दरअसल अपनी भारतीयता की अन्तर्निहित स्वीकारोक्ति की भावना को छोड़ जब हम पश्चिमी मापदंड अपनाते हैं, तब हमें नैसर्गिकता भी विकृति लगने लगती है। ये उन्हीं मापदंडों का दोष है कि परछाई देखकर एक शुभ वस्तु भी काली कलूटी समझ ली जाती है। कुछ इसी तर्ज पर लंदन की संवाद एजेंसी रॉयटर में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के इंटरव्यू को लेकर खासा सियासी हंगामा खड़ा हो गया। खासकर गैरभाजपाई दलों के तमाम नेता खुद-ब-खुद इसे गुजरात में 2002 में हुए दंगे को लेकर मोदी के बयानों में कुछ ऐसा ढूंढ़ने लगे जिससे आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी को नीचा दिखाया जाए। जबकि इंटरव्यू के 18 सवालों में से किसी भी सवाल के जवाब में मोदी ने गुजरात दंगों के लिए कोई माफी नहीं मांगी है और माफी मांगे भी क्यों जब वह साफ-साफ कह रहे हैं, `साल 2002 में मैंने कोई गलती नहीं की है।` सवाल है कि आप गलती करेंगे तभी तो माफी मांगने या ना मांगने का सवाल उठेगा।
रॉयटर को दिए इंटरव्यू में मोदी ने खुद को `हिंदू राष्ट्रवादी` होने की बात कही है। साल 2002 में हुए गुजरात दंगों को लेकर मोदी ने साफ कहा, `मैं राष्ट्रवादी हूं, मैं देशभक्त हूं, इसमें कुछ भी गलत नहीं है। मैं पैदाइशी हिंदू हूं इसमें भी कुछ गलत नहीं। हां, आप कह सकते हैं कि मैं `हिंदू राष्ट्रवादी` हूं क्योंकि मैं पैदाइशी हिंदू हूं, मैं देशभक्त हूं तो इसमें गलत क्या है। और जहां तक प्रगतिशील, विकासवादी, ज्यादा काम करने वाला या वे कुछ भी कहें, इन दोनों के बीच में कोई अन्तर्विरोध नहीं है। दोनों एक ही बात हैं।` गैरभाजपाई दलों के नेताओं खासकर कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने मोदी के `हिंदू राष्ट्रवादी` होने को लेकर आपत्ति जताई है। विरोधियों का कहना है कि मोदी खुद को `हिंदू राष्ट्रवादी` घोषित कर देश को बांट रहे हैं। मोदी के `हिंदू राष्ट्रवादी` शब्द का विरोध करने वाले नेताओं से यह पूछा जाना चाहिए कि अगर कोई हिंदू खुद को हिंदू नहीं कहेगा तो क्या ईसाई कहेगा या मुसलमान कहेगा। क्या ऐसा संभव है?
दिग्विजय सिंह से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि अगर उनके सामने यह बताने की बाध्यता हो कि आपका मजहब क्या है तो वो क्या जवाब देंगे। क्या दिग्विजय सिंह कहेंगे कि मैं ईसाई राष्ट्रवादी हूं या मुस्लिम राष्ट्रवादी हूं या फिर भारतीय राष्ट्रवादी हूं। दरअसल पृथ्वी का हर इंसान अपने मजहब से बंधा होता है और उसके कायदे-कानून का ईमानदारी से पालन करता है। जो इसका पालन नहीं करता है वह अपने मजहब से गद्दारी करता है। अगर आप राम-राम जपते हुए वोट के लिए मुस्लिम टोपी पहन लेते हैं तो यह दोनों ही मजहब को धोखा देने के समान होगा। नरेंद्र मोदी के `हिंदू राष्ट्रवादी` और दिग्विजय सिंह के `भारतीय राष्ट्रवादी` में यही मौलिक अंतर है। इस अंतर का समय रहते देश को समझना होगा।

रॉयटर के एक सवाल में मोदी से पूछा गया कि क्या आपको लगता है कि भारत को धर्मनिरपेक्ष नेता मिलना चाहिए? तो मोदी ने कहा, `हम इसी में तो विश्वास रखते हैं। लेकिन धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा क्या है? मेरे लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब `भारत पहले` है। मेरी पार्टी का सिद्धांत है, `सभी को न्याय मिले, तुष्टिकरण किसी के लिए नहीं।` हमारे लिए यही धर्मनिरपेक्षता है।` लेकिन तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने वाले तमाम मोदी विरोधी नेताओं को `मोदी की धर्मनिरपेक्षता` हजम नहीं हो रही है। हजम हो भी कैसे सकती है क्यों कि देश की जनता को `मोदी की धर्मनिरपेक्षता` और मोदी की `हिंदू राष्ट्रवादी` छवि जबरदस्त तरीके से भा रही है। कहते हैं कि लोकतंत्र में नेता वही होता है जो लोकप्रिय होता है और इसमें कोई दो राय नहीं कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी देश में सबसे लोकप्रिय नेता बन गए हैं। यह बात तमाम सियासी दलों के नेताओं और खासकर गैरभाजपाई दलों को समझना चाहिए। इन नेताओं को यह भी समझना चाहिए कि मोदी अपनी लोकप्रियता की वजह से काफी उत्साहित हैं और विरोधी नेता मोदी पर जितना कीचड़ उछाल रहे हैं, मोदी की लोकप्रियता में और इजाफा होता जा रहा है।
बहरहाल, ऊपर कही गई बातों के आधार पर मैं यह कतई नहीं कह रहा हूं कि नरेंद्र मोदी ही देश के सबसे सुयोग्य नेता हैं और बिना किसी तर्क-वितर्क के उन्हें देश का प्रधानमंत्री बना देना चाहिए। यह कहने का हक भी मुझे नहीं है। इसका फैसला आगामी चुनाव में देश की जनता करेगी। लेकिन नरेंद्र मोदी की परछाई से डरने वाले उन नेताओं को मेरी यह नेक सलाह जरूर होगी कि तार्किक आलोचना के साथ नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री पद उम्मीदवारी को खारिज करिए। ठोस मुद्दे पर जनता के बीच बहस करिए। कुछ तो निकलकर आए। आरोप लगाना आसान होता है और आलोचना उतनी ही कठिन। यहां यह बात खासतौर पर उल्लेखनीय है कि नरेंद्र मोदी ने सदैव `मेरे पांच करोड़ गुजराती` कह कर अपनी प्रजा को संबोधित किया। दुख होता है तब जब हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपना लिखा हुआ भाषण पढ़ते हुए लाल किले की प्राचीर से भी भारतवासियों को नहीं, `हिंदुओं, मुस्लिमों, सिखों, ईसाईयों` को संबोधित करते हैं। सबका साथ, सबका विकास, समरसता, सद्भावना को जीवंत करके दिखलाने वाले नरेंद्र मोदी के गुजरात में विगत एक दशक के अभूतपूर्व सांप्रदायिक सौहार्द के साल रहे हैं। दंगों का लंबा इतिहास रखने वाले गुजरात में 2002 के दंगों के बाद वहां साम्प्रदायिकता का एक पत्ता नहीं खड़का। स्वयं भारत सरकार द्वारा मनोनीत समितियों की रिपोर्ट भी कहती है कि गुजरात में मुसलमान भारत के किसी अन्य राज्य की अपेक्षा अधिक सुखी और अधिक संपन्न हैं। बावजूद इसके मोदी की छवि को उसके बिलकुल विपरीत बनाने का प्रयास निरंतर जारी है, देश के लिए नहीं सिर्फ वोट की खातिर।
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