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Wednesday, 3 July 2013

पीएम पद के दावेदार नरेंद्र मोदी के सामने चुनौतियां और संभावनाएं


देश की राजनीति की जमीन गुजरात की तरह समतल नहीं है बल्कि पथरीली, कंटीली और ऊबड़ खाबड़ है लेकिन इस सफर में नरेन्द्र मोदी के साथ आरएसएस और बीजेपी के एक बड़े धड़े का भरपूर समर्थन है. इसका मतलब ये नहीं है कि मोदी के खिलाफ विरोध नहीं है.

मोदी के खिलाफ पार्टी के अंदर भी विरोध है और एनडीए में भी विरोध है इसके अलावा सेक्युलर कहलाने वाली पार्टियां पहले से ही विरोध कर रही है यानि यूं कहें कि मोदी के खिलाफ दुश्मनों की एक बड़ी फौज खड़ी है जो मोदी को अछूत करार देकर उनके रास्ते को रोकने की कोशिश में हैं.

मोदी से छूत और अछूत के खेल में बीजेपी के पुराने दोस्त नीतीश कुमार ने भी रिश्ता तोड़ लिया. नीतीश से बीजेपी की दोस्ती ही नहीं टूटी बल्कि नीतीश ने मोदी की राह में रोड़ा डालने के लिए एक नया प्लेटफॉर्म भी तैयार कर दिया है.

नीतीश ने मोदी के खिलाफ जो मुद्दा बनाया है उसे भी भरपूर मदद मिल रही है चाहे ममता हो, नवीन पटनायक हो, चंद्रबाबू नायडू हो या हो लेफ्ट नीतीश के उठाए गये मुद्दों पर लामबंद होने की कोशिश कर रहे हैं यानि मोदी के लिए राजनीतिक जमीन सिकुड़ती जा रही है. 


देश की राजनीति की जमीन गुजरात की तरह समतल नहीं है बल्कि पथरीली, कंटीली और ऊबड़ खाबड़ है लेकिन इस सफर में नरेन्द्र मोदी के साथ आरएसएस और बीजेपी के एक बड़े धड़े का भरपूर समर्थन है. इसका मतलब ये नहीं है कि मोदी के खिलाफ विरोध नहीं है.

नीतीश से रिश्ता टूटने के बाद भी बीजेपी में संशय की स्थिति बनी हुई है. माना जा रहा था कि मोदी की राह में नीतीश ही रोड़ा बने हुए थे लेकिन नीतीश के अलग होने के बाद ये तय नहीं है कि मोदी को और नई जिम्मेदारी दी जाएगी या नहीं यानि बीजेपी में सांप और सीढ़ी का खेल जारी है.

चुनाव की कमान मोदी के हाथ में है और पार्टी की कमान राजनाथ सिंह के पास और एनडीए की लगाम लालकृष्ण अडवाणी के पास है. मोदी को ऐसे घोड़े का घुड़सवार बनाया गया है जिसकी लगाम और कमान किसी और के हाथ में है इससे ये सवाल पैदा हो रहा है कि मोदी कथित अच्छे घुड़सवार होने के बावजूद क्या पार्टी विद डिफरेंसेस से ग्रसित पार्टी को कितनी रफ्तार दे पाएंगे.

ये संशय की स्थिति इसीलिए है क्योंकि नरेन्द्र मोदी विवादास्पद नेता रहे हैं और उनके प्रति जनता से लेकर नेताओं को आशंकाएं भी हैं. ये भी दलील है कि विवादास्पद होने की वजह से मोदी को फायदा हो रहा है उनके खिलाफ जितनी आवाज उठ रही है उतना ही मोदीवाद फैलता जा रहा है.

आशंकाएं ये हैं कि मोदी देश की राजनीति को किस दिशा में ले जाएंगे? क्या वो 1990 के हिंदूवाद की राजनीति के दलदल में ले जाएंगे या विकास की राह पकड़कर विश्व की नई शक्ति बनेंगे? या 1996 की असमंजस्य की दौड़ में छोड़ देंगे ?

चूंकि ये चुनाव पार्टी नहीं व्यक्ति के आधार पर लड़ा जा रहा है इसलिए ये भी एक गूढ़ सवाल है कि अगर मोदी पीएम बनते हैं तो देश की विदेश नीति कैसी होगी? क्या वही सम्मान नरेन्द्र मोदी को मिलेगा जो और दूसरों प्रधानमंत्री को मिलता रहा है? अभी तक मोदी को अमेरिका ने वीजा नहीं दिया है मोदी के मामले में अमेरिका को अपनी नीति बदलनी पड़ेगी लेकिन मोदी जहां भी जाएंगे वहां विरोध से इंकार नहीं किया जा सकता है?

गुजरात में मोदी मतलब बीजेपी और बीजेपी मतलब मोदी जितने ही मोदी के विरोधी थे सभी को किनारे लगा दिया गया है. बीजेपी के कई नेता सहमे हुए हैं आशंका जता रहे हैं कि मोदी के दिल्ली आगमन से लोकतांत्रिक पार्टी बीजेपी का अस्तित्व खतरे में पड जाएगा, सामूहिक और एक दूसरे की राय से चलने वाले नेतृत्व समाप्त हो जाएगा.

ये डर बीजेपी के ही नहीं बल्कि दूसरों दलों के नोताओं को भी सता रहा है कि अगर मोदी के हाथ दिल्ली की गद्दी हाथ लग गई तो क्या होगी दिल्ली की हवा और फिज़ा. विकास को लेकर भी उन्हीं के पार्टी के नेता ने सवाल उठा रहे हैं. आडवाणी की दलील थी कि गुजरात पहले से एक उन्नत प्रदेश था और मोदी ने उसे बेहतर कर दिया है. आर्थिक मामले में भी गुजरात और दूसरे राज्यों की स्थिति साफ बिल्कुल भिन्न है.

सवाल ये भी है कि क्या मोदी की जादू की छड़ी दूसरे राज्यों में कारगर साबित होगी लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि बीजेपी के पास मोदी के अलावा कोई विकल्प नहीं है. ऐसे में लोकतांत्रिक प्रकिया के तहत हजारों पार्टी कार्यकर्ताओं की आवाज को अनसुना नहीं किया जा सकता है.

मोदी के सामने चुनौतियां

अब मोदी के सामने चुनौतियां है सुस्त पड़े संगठन में जान फूंकना, जितना गठबंधन का दायरा है उसे मजबूत करना और उसी में बेहतर करना है. मोदीवाद में मुग्ध हुए नेताओं को इतिहास से भी सीखना पड़ेगा जब 1977 में जेपी की बयार चल रही थी तब भी देश का एक बड़ा हिस्सा उस बयार से अनभिज्ञ था.


ये भी एक सवाल है कि मोदी के पक्ष में हवा है भी नहीं. मोदी को ये भी ध्यान रखना होगा कि बीजेपी की राजनीतिक जमीन सिर्फ 71 फीसदी उपजाऊ है तो 29 फीसदी जमीन पार्टी के लिए बंजर की तरह है यानि 156 पर पार्टी का वजूद नहीं है.
मोदी को 71 फीसदी लोकसभा सीटों पर ही करिश्मा दिखाना होगा. उनके लिए दिल्ली का ताज तभी संभव है जब पार्टी के ग्राफ को वो 200 सीटों से ऊपर ले जाने में कामयाब हो पाते हैं यानि इन सीटों पर 60 फीसदी सफलता  की जरूरत होगी.

बीजेपी की मौजूदगी 543 लोकसभा सीटों में से करीब 387 सीटों पर है.  ये राज्य हैं असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गोवा, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, झारखंड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, दिल्ली, उड़ीसा,पंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश और उत्तरांचल. ये भी बात चल रही है कि मोदी को लखनऊ से चुनाव लड़ाया जाए ताकि यूपी में ज्यादा से ज्यादा वोटरों को अपने पक्ष में आकर्षित किया जा सके और एक तरह का धुर्वीकरण किया जा सके.

2009 के चुनाव में बीजेपी 110 सीटों पर दूसरे नंबर पर थी, मोदी को इन सीटों पर खास ध्यान रखना पड़ेगा ताकि आसानी से यहां पर जीत हासिल की जा सके. मोदी और बीजेपी को सर्वे के नतीजे पर गदगद नहीं होना चाहिए क्योंकि ये सर्वे भी बाजार के सेंसेक्स की तरह कभी हंसाता है तो कभी रुलाता है. बीजेपी को यथास्थिति से सामंजस्य बनाने की जरूरत है.

सर्वे के नतीजे की वजह से ही इंडिया शाइनिंग की चकाचौंध में चकराकर बीजेपी का सपना चकनाचूर हो गया था वैसे ही कहीं मोदी शाइनिंग के मुगालते में कहीं पार्टी की दुर्गति 2004 जैसी न हो जाए. इसके लिए जमीनी राजनीति और मुद्दे को बारीकी से समझने की जरूरत है. गुजरात नहीं बल्कि गुजरात जैसे अन्य राज्यों में बीजेपी को पैठ बढ़ाने की जरूरत है.

जोड़ने पड़ेंगे नए और पुराने साथी

हर राज्य की अपनी राजनीति जमीन और समीरकरण हैं. ऐसे में पार्टी से बिछुड़े हुए दोस्तों को फिर वापस लाने की आवश्यकता है वहीं बीजेपी से जिसे परहेज नहीं है उससे गठबंधन की जरूरत है.
पहले बाबूलाल मरांडी और येदिरप्पा को वापस लाने की जरूरत हो सकती है वहीं झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा, हरियाणा में कुलदीप विश्नोई या ओमप्रकाश चौटाला, उत्तरप्रदेश में अजित सिंह, असम में असम गण परिषद, आंध्राप्रदेश में चंद्रबाबू नायूड, चंद्रशेखर राव या जगन मोहन रेड्डी से गठन करने की सख्त आवश्यकता हो सकती है.

मोदी को उत्तरप्रदेश में खास ध्यान की जरूरत है लेकिन मोदी ने पहले ही अपने खास सिपहसलार को जिम्मेदारी दे चुके हैं. अब महाराष्ट्र में खास ध्यान की जरुरत है बीजेपी, शिवसेना,आरपीआई के अलावा राज ठाकरे से दोस्ती करने की जरूरत है लेकिन उद्घव ठाकरे तैयार होते हैं या नहीं इस पर निर्भर करता है. उद्वव ठाकरे अगर सहमत हो जाते हैं तो एनडीए को महाराष्ट्र में जबर्दस्त फायदा हो सकता है.

इन दलों से गठबंधन होने की स्थिति में बीजेपी के घटक दलों को 40 सीटें मिल सकती है यानि मोदी रणनीति के तहत काम करे तो तो एनडीए को 230-240 सीटों पर पुहंचाया जा सकता है. ऐसी स्थिति में जयललिता, चंद्रबाबू नायडू, ममता बनर्जी और नवीन पटनायक जैसे नेताओ में कम से कम दो नेता मोदी को समर्थन करने को मजबूर हो सकते हैं. अक्सर यही होता आ रहा है क्षेत्रीय दल बड़ी पार्टी के पक्ष में झुक जाती है.

मोदी के पक्ष में हवा क्यों

दरअसल राजनीतिक माहौल और परिस्थिति बीजेपी और मोदी के पक्ष में है ये इसीलिए नहीं है कि मोदी बहुत लोकप्रिय नेता है बल्कि इसीलिए है कि मनमोहन सरकार से जनता नाराज है और मोदी को एक विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है. यूं कहें तो मोदी का पारा ऊपर चढ़ाने में यूपीए सरकार का भी हाथ है.

युवा वोटर ऐसे नेता को चाह रहा है जो उसके लिए नए तरह की संभावनाएं खोल सके. राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस से युवाओं में निराशा दिख रही है. वहीं मनमोहन सिंह सरकार के भ्रष्ट्राचार, महंगाई और असुरक्षा से जनता नाराज है. युवाओँ को अपनी तरफ खींचने के लिए मोदी के पास क्या प्लान है उसे खोलना पड़ेगा.

वहीं महिला मतदाताओं को अपनी तरफ लुभावने के लिए क्या प्लान है उसे भी दिखाना होगा. ये सारे मुद्दे आसान भी नहीं है तो मश्किल भी नहीं है अब इस पर निर्भर करता है कि विषम परिस्थति में मोदी राजनीति हवा को अपने पक्ष में मोड़ने में कितने कामयाब हो पाते हैं.

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