Translate

Monday, 15 July 2013

मैं दोस्तों की दुआएं बचा के रखता था

इस खबर पर सहसा विश्वास नहीं हुआ कि दो बार विधायक रहा कोई व्यक्ति जीवन के अंतिम पड़ाव  में न केवल बदहाली में जीया बल्कि मरने पर उसके पास कफन तक के पैसे न रहे हों। यहां तक कि उसके शव को पैतृक गांव भेजने तक के पैसे अस्पताल वालों ने दिये। लेकिन यह हकीकत है कि उ.प्र. की सुरक्षित इकौना सीट से वर्ष 1967 व 1969 में जनसंघ के टिकट पर विधायक चुने जाने वाले भगौती प्रसाद को बेहद मुफलिसी  में जि़ंदगी गुजारनी पड़ी। जीवन के अंतिम दिनों में गरीबों को मिलने वाले इंदिरा आवास योजना के घर में रहने वाले व इलाज के लिए पैसे न जुटा पाने वाले पूर्व विधायक की स्थिति देखकर सहज विश्वास नहीं होता कि भारतीय लोकतंत्र के पूर्वाद्र्ध में ऐसे राजनेता भी थे। आज जब नेता विधायक बनते ही सात पीढिय़ों तक का भविष्य बनाने में जुट जाते हैं तो उनके क्रियाकलाप देखकर अचरज नहीं होता। जाहिर-सी बात है कि आज़ादी के बाद दूसरे दशक की राजनीतिक तस्वीर का प्रतिनिधि चेहरा थे भगौती प्रसाद। यह वह दौर था जब लोग राजनीति को सेवा का माध्यम मानते थे, न कि सेवा पाने का। तब सामान्य पृष्ठभूमि से आगे आने वाले ईमानदार व्यक्ति भी विधायक बन सकते थे। राजस्थान की पहली विधानसभा में एक ऐसा  व्यक्ति विधायक बना था,  जो जयपुर में शपथग्रहण समारोह में इसलिए भाग नहीं ले सका क्योंकि उसके पास जाने का किराया न था। आज की पीढ़ी शायद ऐसे विधायकों की हकीकत पर सहज विश्वास न करे। वजह साफ है कि राजनीति में पैसे का इतना अधिक वर्चस्व हो गया है कि ऐसे लोगों की राजनीतिक परिदृश्य में कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज की राजनीतिक पीढ़ी की एक बानगी दिखाते हुए जनकवि अदम गोंडवी लिख गये :-
काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में,
उतरा है राम-राज विधायक निवास में।
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत,
इतना असर है खादी के उजले लिबास में।
भगौती प्रसाद की बदहाली और अभावग्रस्त हालात में हुई मौत कई सवाल खड़े करती है। कुछ लोग वर्तमान जनप्रतिनिधियों की पैसा व संपत्ति जुटाने की भूख को तार्किक आधार देंगे कि यदि वे ऐसा न करेंगे तो उनका हश्र भी भगौती प्रसाद जैसा होगा। सवाल यह भी उठ सकता है कि पूर्व विधायक जीवन प्रबंधन में चूके, जिससे उनका भविष्य अभावग्रस्त हो गया। यह भी कि वे अपनी दूसरी पीढ़ी को इतना सक्षम नहीं बना पाये कि उनके बुढ़ापे का सहारा बन सके। लेकिन यहां सवाल समाज के लोगों पर उठता है कि वे अपने ईमानदार नुमाइंदे की मदद को आगे नहीं आये। यह हमारे आधुनिक समाज की विडंबना भी है कि वह संपन्नता व शक्ति के केंद्र के ही इर्दगिर्द मंडराता है। इसमें उसके अपने स्वार्थ निहित होते हैं। समाज का व्यवहार भी लगातार कृत्रिम होता गया है। लोग उसे अहमियत देने लगे हैं जो जनता के संसाधनों का बेजा इस्तेमाल करता रहे और कुछ अंश अपने चेले-चांटों को भी बांटता रहे। जिसके पास धन-बल, बाहुबल और तिकड़म है, जमाना उसी को सलाम ठोकता नजर आता है। यानी अगर राजनीतिक मूल्यों में गिरावट है तो समाज में भी गिरावट कम नहीं है। राजनीतिक चरित्र की आधुनिक परिभाषा को किशोर तिवारी कुछ इस तरह बयां करते हैं :-
हमें वही लगता है क्यों सच्चा नेता,
जिसकी फितरत बिल्कुल लंपट होती है।
यह भी एक हकीकत है कि आज देश का जो राजनीतिक परिदृश्य है, जैसे लोग राजनीति में आ रहे हैं, उसके मूल में समाज की भी अहम भूमिका है। समाज की सोच में आया बदलाव देश की राजनीतिक धारा को बदलता जा रहा है। हम साफ-सुथरी राजनीति की बजाय ऐसा प्रतिनिधि चाहते हैं जो अपने विधानसभा क्षेत्र का कल्याण करने के बजाय व्यक्ति विशेष, जाति विशेष, क्षेत्र विशेष को नियम-कानून ताक पर रखकर लाभ पहुंचाए। चुनाव प्रक्रिया में जो विद्रूपताएं सामने आ रही हैं, उसके लिए मतदाता भी जिम्मेदार है। चुनाव के दौरान जो करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं, उसमें मतदाता का प्रलोभन भी शामिल है। चुनाव सभा, रैलियों व नुक्कड़ सभाओं में जो मुफ्त बांटा जा रहा है, उसका खर्चा बाद में मतदाताओं की जेब से होता है। नेताओं को भ्रष्ट बनने के मौके व कारण हम ही उपलब्ध कराते हैं। यानी आज भगौती प्रसाद जैसे लोग चुनाव लडऩे आयें तो हम उन्हें सहजता से नहीं लेंगे और शायद आज वे ऐसे खर्चीले चुनाव जीत भी न पायें। इस सारे परिदृश्य को डॉ. मनोहर अभय कुछ यूं शब्द देते हैं।
हवा बदचलन हो गई, भौंरे हैं शैतान,
दोनों मिलकर काटते, फूलों के चालान।
बदलाव के इस दौर में हमारे जीवन के मूल्य, सोच और आचार-व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन आया है। जीवन की पद्धति में जो गणितीय आधार है, वह अंकगणित के बजाय बीजगणित पर आधारित है। यानी जीवन में सादगी-सहजता का लोप है। अर्थात कुछ लोग मानते हैं दो-दो चार नहीं होते, पांच भी होते हैं। लेकिन लोग भूल जाते हैं कि जीवन के शाश्वत मूल्य हर युग में विद्यमान होते हैं। यह बात अलग है कि इन्हें स्वीकारने में वक्त लग जाता है। एक ईरानी कहावत भी है कि सच जब चलने के लिए पैर के जूते के फीते बांधता है, झूठ पूरे शहर का चक्कर लगा आता है। लेकिन अंतत: जीत की राह पर सच ही आगे रहता है। कोई ईमानदार व्यक्ति भले ही कष्ट सहे, अभावों में जीये, लेकिन नैतिक बल उसे यशकीर्ति अवश्य देता है जिसके लिए लोग उसे याद रखते हैं। ऐसे लोग समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए सामाजिक संबंधों को प्राथमिकता देते नजर आते हैं। आर्थिक हित उनके लिए गौण होते हैं। कुछ ऐसे ही लोगों की बात यहां ज्ञान प्रकाश विवेक भी कर रहे हैं :-
बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लकेंभर लीं,
मैं दोस्तों की दुआएं बचा के रखता था।

No comments:

Post a Comment