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Saturday, 13 July 2013

नरेंद्र मोदी के बयान का मतलब?



मोदी का कहना है कि अगर कार के नीचे कुत्ते का बच्चा भी आ जाए तो दुख होता है. ऐसा उन्होंने गुजरात दंगों के संदंर्भ में कहा है. बीजेपी की प्रवक्ता निर्मला सीतारमन का कहना है कि मोदी के बयान का कोई गलत अर्थ नहीं निकाला जाए यानि पिल्ले की तुलना मुस्लिमों के साथ नहीं की जाए, लेकिन देश के तमाम दल मोदी के बयान की आलोचना कर रहे हैं उनसे माफी की मांग कर रहे हैं. एक हिसाब से बीजेपी की प्रवक्ता सही कह रही हैं कि मोदी के पूरे इंटरव्यू को सुना जाए, उसे समझा जाए और फिर उसपर टिप्पणी की जाए.

ऐसा होना भी चाहिए लेकिन हिन्दुस्तान की राजनीति में ऐसी होता नहीं है. बयान के एक अंश को सामने रखा जाता है. खण्ड खण्ड में बयान को लिया जाता है और फिर हमला बोला जाता है. बीजेपी के नेता कांग्रेस या दूसरे दलों के नेताओं के बयानों के साथ यही करते रहे हैं. कांग्रेस भी ऐसा ही करती रही है. माया, मुलायम, नीतीश, लालू सभी ऐसा ही करते रहे हैं. जाहिर है कि मोदी के बयान के साथ भी ऐसा ही होने वाला है.

वैसे भी जब जब नेताओं का जानवर प्रेम जागा है तब तब उनके बयानों पर बवाल मचा है. राहुल गांधी ने भारतीय जनमानस की तुलना मधुमक्खी के छत्ते की की तो शोर मचा, जब राशिद अल्वी ने भैंसे की सवारी की बात की तो हल्ला मचा.

जब नितिन गडकरी ने लालू मुलायम को कांग्रेस के आगे दुम हिलाने वाला कुत्ता कहा तो बवाल मचा, जब मोदी का गाय बछड़ा वाला बयान आय़ा तब भी ऐसे ही कांग्रेस तिलमिलाई थी जैसा कि अब बीजेपी भनक रही है.

बड़ा सवाल उठता है कि नेता ऐसे बयान देते ही क्यों हैं जिनके गलत मतलब निकाले जाएं और प्रवक्ताओं को बयान का मतलब समझाने के लिए आगे आना पड़े.

पहला सवाल ये है कि मोदी मुख्यमंत्री के नाते ड्राइविंग सीट पर थे, उनके हाथों में स्टीयरिंग था, उनके पैरों में एक्सीलेटर भी था और ब्रेक भी, तो मोदी ने क्या ब्रेक लगाये? मोदी ने क्या एक्सीलेटर दबाया या फिर मोदी ने स्टेयरिंग को दूसरी तरफ मोड़ा ताकि कोई नीचे आने से बच सके?

दूसरा सवाल ये है कि मोदी ने क्या जानबूझकर इस तरह का बयान दिया? तीसरा सवाल ये है कि क्या मोदी खुद चाहते हैं कि बयान पर विवाद हो जिससे बचने की बात बीजेपी प्रवक्ता कर रही हैं? चौथा सवाल ये है कि मोदी को जब पीएम का उम्मीदवार घोषित करने पर संघ भी सहमत हैं और संत भी तो ऐसे में उनके बयान की टामिंग के राजनीतिक अर्थ क्यों नहीं निकाले जाने चाहिए?

पांचवां सवाल ये है कि मोदी क्या ऐसा बयान देने या ऐसी तुलना करने से बच नहीं सकते थे? छठा सवाल ये कि मोदी का यह बयान क्या यह नहीं बताता कि मोदी को भी लगने लगा है कि सिर्फ विकास के नाम पर चुनाव नहीं जीता जा सकता, लिहाजा वो हिन्दुत्व के एजेंडे को भी विकास के साथ जोड़ रहे हैं? और सातवां सवाल ये कि मोदी को क्या संघ ने साफ इशारा कर दिया है और यह बयान संघ संतों को दक्षिणा की तरह हैं?

अगर इस बयान को छोड़ दिया जाए तो बाकी मोदी ने नया कुछ नहीं कहा है. जिस तरह आडवाणी विवादित ढांचे को गिराये जाने को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हैं लेकिन माफी नहीं मांगते उसी तरह मोदी गुजरात दंगों पर दुख तो जताते हैं लेकिन जिम्मेवारी लेने या माफी मांगने को तैयार नहीं होते.

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