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Sunday, 7 July 2013

संसद का काम कैबिनेट ने किया




जो काम संसद को करना था, वह कैबिनेट ने किया और राष्ट्रपति ने उसे अपनी मंजूरी दे दी। ऊपरी तौर पर परियोजना ठीक ठाक है और बीजेपी सिर्फ विरोध करने के लिए ही विरोध करती दिख रही है क्योंकि बीजेपी खाद्य सुरक्षा विधेयक को चुनाव तक इसलिए लटकाना चाहती थी ताकि कांग्रेस इसका चुनावी फायदा न उठा सके। कांग्रेस के रणनीतिकार संभवत: बीजेपी की यह चालाकी समझते हैं इसलिए उन्होंने मानसून सत्र के शुरू होने का भी इंतजार नहीं किया और खाद्य सुरक्षा विधेयक को पारित करवा लिया। अब संसद में भाजपा भला किस मुंह से उस विधेयक का विरोध करेगी जिसमें देश के 60 से 65 फीसदी लोगों को सस्ता राशन देने की वैकल्पिक व्यवस्था बनाने की बात की गई हो?
केंद्र सरकार देश की करीब 67 फीसदी आबादी को एक से तीन रुपये प्रति किलो की रियायती दरों पर हर माह पांच किलो अनाज हासिल करने का कानूनी हक अध्यादेश के जरिये देने जा रही है. इतने महत्वपूर्ण फैसले को वैकल्पिक कानूनी व्यवस्था के मार्फत लागू करना इस बात का संदेश है कि सवा चार साल तक इस विधेयक को टालनेवाली यूपीए सरकार हड़बड़ी में है.
2009 में अपने साझा चुनावी घोषणा-पत्र में इसने वादा किया था कि यदि सत्ता में यूपीए की वापसी होती है तो वह सौ दिन के भीतर खाद्य सुरक्षा विधेयक ले आयेगी. यह सही है कि देश में भूख और कुपोषण बड़ी समस्या है, पर फिलहाल अकाल जैसे हालात नहीं हैं. ऐसे में धन की सुनिश्चित व्यवस्था किये बिना और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त किये बिना 67 प्रतिशत आबादी को पांच किलो अनाज प्रति व्यक्ति प्रति माह देने की कवायद वोट बटोरने का चुनावी हथकंडा लगता है. संसद से बाहर इतना बड़ा फैसला लेना संसद की मर्यादा की अवज्ञा व संविधान की वैधानिकता को ठेंगा दिखाना भी है.
वर्तमान खाद्य सुरक्षा विधेयक का कुछ विशेषज्ञ यह कहते हुए विरोध कर रहे हैं कि इससे खाद्य बाजार में कालाबाजारी बढ़ेगी और जनता को सस्ता राशन मिले न मिले सेठ साहूकारों की चांदी हो जाएगी। जो लोग यह विरोध इस आधार पर कर रहे हैं वे अपने अनुभव के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली की ओर ताकते हैं तो पाते हैं कि कैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली के कारण कालाबाजारी को बढ़ावा मिला है। इसकी पूरी संभावना है और भारत की भ्रष्ट व्यवस्था में ऐसा हो तो कोई आश्चर्य नहीं लेकिन क्या भ्रष्टाचार की आशंका से योजनाओं को बनाना बंद कर देना चाहिए? इसी तरह कुछ विशेषज्ञ इस योजना पर यह कहते हुए सवाल उठा रहे हैं कि इससे देश की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ेगा क्योंकि देश की दो तिहाई आबादी को सस्ता भोजन देने के लिए जितना धन खर्च किया जाएगा उससे देश की अर्थव्यवस्था गड़बड़ा सकती है।
क्या इस तर्क को भी स्वीकार किया जा सकता है कि आम आदमी का पेट भरने से देश की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ेगा इसलिए इसे बंद कर देना चाहिए? बिल्कुल बेतुकी बात है। वैसे भी कांग्रेस की ओर से अजय माकन ने कहा है कि इस योजना को संचालित करने से अर्थव्यवस्था पर सालाना 23,800 करोड़ का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। बकौल माकन, छह लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था में क्या आम आदमी को अन्न मुहैया कराने के लिए यह कोई बहुत बड़ी कीमत है? बिल्कुल नहीं है। और बड़ी कीमत हो तो भी सरकार को चुकानी चाहिए। लेकिन यह सब भी सरकार का आंकलन है। इस देश की 65-70 फीसदी ग्रामीण जनता ऐसी बिल्कुल नहीं है जो खाद्यान्न खरीदकर ही खाती है। हां, शहर की शत प्रतिशत जनता खाद्यान्न खरीदकर ही खाती है और अगर सरकार इसमें पचास फीसदी के लिए राशन सस्ता कर रही है तो उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए। आखिरकार मंहगी होती अर्थव्यवस्था में पेट भरने की कोई योजना आये तो उसका विरोध किस मुंह से किया जा सकता है?
इस पेट भरो परियोजना के तहत तय किया गया है कि गरीब आदमी को क्रमश: 3,2,1 रूपये की दर से चावल, गेहूं और मोटा अनाज दिया जाएगा। इस योजना से पहले सरकार की ओर से अन्त्योदय अन्न योजना पहले से ही संचालित है जो गरीबी रेखा के नीचे रहनेवाले लोगों को इसी दर पर अनाज मुहैया कराती है। तेन्दुलकर समिति का आंकलन है देश में गरीबी रेखा के नीचे रहनेवालों में ग्रामीण आबादी का 41 प्रतिशत हिस्सा आता है तो शहरी आबादी का 25 फीसदी हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे है। अब खाद्य सुरक्षा विधेयक के लागू हो जाने के बाद गरीबी रेखा के नीचेवाले लोगों का यह दायरा बढ़ जाएगा। अब ग्रामीण आबादी का 75 फीसदी इस दायरे में आयेगा तो शहरी आबादी का कमोबेश पचास फीसदी हिस्सा उसी दर पर अनाज खरीद सकेगा जिस दर पर गरीबी रेखा के नीचे रहनेवाले लोग खरीदते रहे हैं।
लेकिन इस महत्वाकांक्षी परियोजना को लागू करने के साथ ही सरकार ने एक ऐसी चालाकी भी कर दी है जो आपत्तिजनक है। सरकार ने इस योजना के तहत खाद्यान्न वितरण के लिए आधार नंबर के जरिए लोगों को चिन्हित करने का फैसला किया है। यह आपत्तिजनक है। लेकिन इस आपत्ति पर भाजपा या सपा शायद ही कभी कोई आपत्ति उठायें क्योंकि देश के नागरिकों की जासूसी में अगर कांग्रेस को कोई आपत्ति नहीं है तो फिर भला भाजपा या सपा को क्योंकर होने लगी? वैसे भी सरकार कह रही है कि छह महीने के अंदर वह इस योजना को लागू कर देगी। यानी चुनाव से पहले संभावित वोटरों के घर तक अनाज और बैंक में कुछ बैलेंस डालने की सभी योजनाएं लागू की जा रही हैं, किसी भी कीमत पर। लेकिन गड़बड़ यह है कि जिनका आधार ही नहीं है वे उन योजनाओं का लाभ कैसे उठायेंगे जिन्हें सरकार आम आदमी के लिए लागू कर रही है? और अगर सारी योजनाएं आधार के जरिए ही लागू की जा रही हैं तो बड़ा सवाल यह उठता है कि आधार के जरिए योजनाओं को लागू किया जा रहा है या योजनाओं के जरिए आधार परियोजना लागू की जा रही है?

केंद्र सरकार को उन राज्य सरकारों से भी मशवरा लेने की जरूरत थी, जो अपने ही मौजूदा आर्थिक स्नेतों के बूते एक व दो रुपये किलो गेहूं-चावल देते हैं. मध्य प्रदेश सरकार तो अन्नपूर्णा योजना के तहत एक रुपये किलो नमक भी दे रही है. वर्तमान में छत्तीसगढ़, तमिलनाडु, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल की राज्य सरकारों ने अपनी गरीब व वंचित आबादी को भोजन का अधिकार दिया हुआ है.
छत्तीसगढ़ सरकार का खाद्य सुरक्षा कानून को तो एक आदर्श नमूना माना जा रहा है. वहां की 90 फीसदी आबादी को भोजन का अधिकार दिया गया है. हालांकि यह व्यवस्था पीडीएस के माध्यम से ही आगे बढ़ायी गयी है, इसलिए इस खाद्य सुरक्षा को एकाएक असंदिग्ध नहीं माना जा सकता है. फिर भी इसमें कुछ ऐसे उपाय किये गये हैं, जो भुखमरी और कुपोषण की समस्या से निजात दिलाते लगते हैं. इसमें रियायती अनाज पाने की पात्रता के लिए परिवार को आधार बनाया गया है, न कि व्यक्ति को.
बहरहाल, खाद्य सुरक्षा जैसे जरूरी मसले को राजनीतिक लाभ की दृष्टि से देखने की बजाय गरीबों के भोजन के हक और किसानों की माली हालत सुधारने की दृष्टि से देखने की जरूरत है. साथ ही इसे संसदीय संवैधानिकता देने की भी जरूरत है.

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