गुजरात में चुनाव के बाद से मोदी ने एक दर्जन बार से ज्यादा सार्वजनिक मंच पर खुलकर बयानबाजी नहीं की होगी लेकिन बावजूद इसके देश की राजनीति और मीडिया फिलवक्त मोदी पर नजरें गढ़ाए हुए है। मोदी के मुंह से निकले एक-एक शब्द का विरोधी विशलेषण कर रहे हैं और राजनीति के जानकार उसके शुक्ल और कृष्ण पक्ष पर चर्चा में जुटे हैं। जब मोदी कुत्ते के पिल्ले के गाड़ी के नीचे आना, रमजान की मुबारकबाद और सांप्रदयिकता के बुर्के को ओढने वाले बयान पर विपक्ष इस कदर हमलावार हो जाता है कि जैसे देश किसी आपात स्थिति में फंस गया हो। मोदी को कट्टरवादी हिंदूवादी छवि वाला नेता और मुसलमानों का विरोधी साबित करने में विपक्षी कोई कसर नहीं छोडना चाहते। कांग्रेस के कई प्रवक्ता और मंत्री एकमुशत मोदी का विरोध करने और उनके बयानों को उत्तर देने में दिन-रात एक किये हैं। विपक्ष की रणनीति का दूसरा हिस्सा यह है कि जितना मोदी का विरोध करेंगे उतना वो और उग्र होंगे और पार्टी के परंपरागत हिंदूवादी, राम मंदिर और धारा 370 के पुराने ढर्रे पर चलेगी जिससे धु्रवीकरण होगा जिसका लाभ विपक्ष को मिलेगा। इस तरह से विपक्ष के दोनों हाथ में लड्डू है। इसलिए मोदी के नाम पर विपक्ष लगातार चचार्एं चला रहा है, क्योंकि उसे पता है कि फिलवक्त भाजपा में मोदी से ज्यादा लोकप्रिय कोई दूसरा नेता नहीं है ऐसे में मोदी का विरोध करने पर उन्हें लाभ ही होगा।
भाजपा की परेशानी यह है कि सांप्रदायिकता उसका पीछा छोड़ने का नाम नहीं ले रही है, जबकि उसका पैतृक संगठन संघ अभी भी हिंदुत्व के एजेंडे पर अड़ा हुआ है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी कहा कि भारत को संकट से छुटकारा पाने का एकमात्र रास्ता हिंदुत्व ही है। भागवत का मानना है कि हिंदू-मुस्लिम को आपस में लड़वाकर समाप्त करने की योजना अंग्रेजों की है, लेकिन हिंदुत्व ही एक ऐसा मार्ग है, जिससे दोनों समुदाय लड़कर भी साथ रह सकते हैं। संघ ने मोदी के रूप में इसका नायक भी खोज चुकी है। मोदी संघ के एजेंडे को कितना आगे बढ़ा सकेंगे, यह तो आने वाले लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद ही पता चल पाएगा।
दरअसल नरेन्द्र मोदी वह राजनीतिक सोच में बदलाव नहीं बल्कि राजनीतिक सोच को ही बदलना चाहते हैं। इसलिये सत्ता पाने के 2014 के मिशन को उन्होंने औजार बनाया है। क्योंकि इससे राजनीतिक व्यवस्था पर सीधी चोट भी की जा सकती है और राजनीतिक व्यवस्था के दायरे में खडे होकर मौजूदा राजनीति को ही खारिज भी किया जा सकता है। इसलिये मोदी राजनीति के वर्तमान तौर-तरीको की जड़ पर चोट भी कर रहे हैं और जिस राजनीतिक व्यवस्था ने अपनी सत्ता साधना के लिये नायाब सामाजिक ढांचा बनाया है उसे उलटना भी चाह रहे है। ध्यान दें तो नरेन्दर मोदी तीन मुद्दों पर कांग्रेस या मनमोहन सरकार को घेर रहे हैं। पहला धर्मनिरपेक्षता दूसरा अर्थव्यवयवस्था और तीसरा राष्ट्रीयता। कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता को नरेन्द्र मोदी हिन्दु राष्ट्रवाद से खारिज करना चाहते हैं। मनमोहन की अर्थव्यवस्था को वह कारपोरेट के नजरिये से ही खारिज करना चाहते हैं। तो राष्ट्रवाद का सवाल कांग्रेस की सत्ता के दौर में लगातार हुये भारत के अवमूल्यन से जोड़ रहे हैं। आजादी के बाद से नेहरु की सत्ता और उसके बाद काग्रेसी सत्ता ने कैसे भारत की जमीन, भारत के उघोग-धंधो को चौपट किया और जो चीन 1950 में भारत से हर क्षेत्र में पीछे था, वह 1975 में ही कई गुना आगे निकल गया। चाहे खेती की बात हो या उघोगों की। असल में मोदी मौजूदा राजनीतिक जोड-तोड की सियासी राजनीति में फंसना ही नहीं चाहते हैं। उन्हें लग चुका है कि इस दायरे में फंसने का मतलब है बाकियों की कतार में से एक होकर रह जाना। इसलिये मोदी जो बिसात बिछा रहे है उससे संघ परिवार भी खुश है। क्योंकि संघ के सवाल भी मोदी ही राजनीतिक व्यवस्था के दायरे में राजनीतिक तौर पर उठाते हुये संघ को भी सक्रिय कर रहे हैं। कांग्रेस के साफ्ट हिन्दुत्व ने कैसे संघ को आजादी के बाद काउंटर किया और एक वक्त बाद कैसे जेपी सरीखे काग्रेसी भी समझ गये कांग्रेस देश का भट्टा बैठा रही है तो वह 1975 में जेपी यह कहने से नहीं कतराये कि अगर आरएसएस सांप्रदायिक है तो मै भी सांप्रदायिक हूं। असल में मोदी काग्रेस को खारिज करने के लिये नेहरु के दौर से टकराने को तैयार हो रहे है।
कहने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी उदार हिंदू नेता थे, सांप्रदायिक नहीं थे। लेकिन थे तो विभिन्न रूपों में व्याप्त हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक संगठनों और विचारधारा के शिखर पुरुष। उनके समय में ही गुजरात दंगे हुए। वे देश के प्रधानमंत्री थे। क्या उनका फर्ज सिर्फ इतना ही था कि वे बस एक बयान दे दें कि मोदी ने राजधर्म नहीं निभाया? क्या वे मोदी को बर्खास्त नहीं कर सकते थे। शिखर पुरुष होकर भी ऐसा न कर सके, तो स्वयं तो पद त्याग देने का काम बस इस आत्मावलोकन के साथ कर देते कि मोदी ने राजधर्म नहीं निभाया, तो मैं ही कहां निभा पाया हूं? बाबरी मस्जिद ढहने के बाद उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार समेत चार राज्यों की भाजपा सरकारों को बर्खास्त करने का नरसिंह राव का उदाहरण बहुत पुराना तो नहीं था! पूरी दुनिया में भारत की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में बनी हुई है। भारतीय संविधान भी धर्मनिरपेक्षता का पूरी तरह पक्षधर है। और तो और, स्वतंत्रता से लेकर अब तक वर्तमान यूपीए सरकार के सबसे बड़े घटक दल कांग्रेस पार्टी को ही देश की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा का संरक्षण करने वाला सबसे बड़ा राजनीतिक दल माना जाता रहा है। लेकिन जिस प्रकार यूपीए 2 के शासनकाल में एक के बाद एक घोटाले तथा कीर्तिमान स्थापित करने वाले भ्रष्टाचारों की कतार में एक के बाद एक घोटाले तथा कीर्तिमान स्थापित करने वाले भ्रष्टाचारों घटनाएं सामने रही हैं, उससे कांग्रेस को निरंतर आघात पर आघात लगता जा रहा है। धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर जो लोग कांग्रेस पार्टी को ही देश में शासन करने के लिए सबसे योग्य राजनीतिक दल समझते थे, वही आम लोग भ्रष्टाचार, घोटाले तथा उसपर नियंत्रण पा सकने में कांग्रेस की नाकामी के चलते अब स्वयं कांग्रेस से मुंह फेरते दिखाई दे रहे हैं। दूसरी ओर, भाजपा के साथ दिक्कत इस बात की भी है कि भाजपा देश के समक्ष स्वयं को भ्रष्टाचार मुक्त तथा देश को स्वच्छ, ईमानदार, घोटालामुक्त शासन दे पाने के लिए प्रमाणित नहीं कर पा रही है। इसका भी कारण यही है कि जिस प्रकार कांग्रेस व यूपीए के अन्य कई घटक दलों में भ्रष्टाचार में संलिप्त नेता देखे जा रहे हैं, उन्हें मंत्रीपद अथवा अन्य प्रमुख पद छोड़ने पड़े हैं। उन्हें जेल की हवा तक खानी पड़ी है। ठीक उसी प्रकार भाजपा के भी तमाम नेता मायामोह में उलझकर अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। जिस प्रकार देश की इन दो प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने भ्रष्टाचार व सांप्रदायिकता के विषय पर देश के समक्ष अपनी छवि को दागदार बनाया है, उसे देख कर लगता है कि कहीं धर्मनिरपेक्षता का परचम संभावित तीसरे मोर्चे के हाथों में न चला जाए! ऐसे में 2014 के आम चुनाव में भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता व धर्मनिरपेक्षता के बीच ाबरदस्त घमासान होने की पूरी संभावना है।
गौर करने योग्य तथ्य यह भी है कि देश का पहला आम चुनाव 1952 में हुआ था। जनसंघ की स्थापना उसके कुछ ही महीने पूर्व डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में हो चुकी। बहुत कम लोग इस पार्टी का नाम भर जानते थे। चुनाव के बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तत्काल प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का आभार व्यक्त किया। उन्होंने कहा हम तो तीन सौ उम्मीदवार भी नहीं खड़ा कर सके। यह चुनाव हमने अपनी पार्टी की पहचान बनाने के लिए लड़ा। हमारे बस में नहीं था यह पहचान बना पाना। लेकिन हम आपके आभारी हैं कि आपने सारे देश में हमारी पार्टी पर ही निशाना साध कर हमारा उद्देश्य सफल कर दिया। तब से आज तक जनसंघ और भाजपा पर एक ही आरोप लगता रहा है, यह सांप्रदायिक पार्टी है। मुस्लिम समुदाय में इस पार्टी के भय की पैठ इतनी अधिक गहरी कर दी गई है कि वह कोई भी तर्कसंगत बात सुनने के लिए तैयार नहीं है।
कहा तो यह भी जा रहा है कि मुस्लिम वोटरों को रिझाने के लिए भाजपा जिस विजन डाक्यूूमेंट को तैयार कर रही है वो भी मोदी की ही सोच का नतीजा है। असल में सारा खेल वोट बैंक को अपने साथ जोडने और खड़ा करने का है। विपक्ष को पता है कि अगर भाजपा अकेले दम पर 180 से 200 के बीच सीटें ले आती हैं तो एनडीए को साथी तलाशने के लिए कोई खास मशक्कत नहीं करनी होगी वहीं अगर पांच विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन ठीक रहा तो मोदी को प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं पाएगा ऐसे में कांग्रेस और विरोधी दलों ने मोदी की लोकप्रियता के लिटमस टेस्ट के लिए इस साल और 2014 में पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में जांचने परखने की रणनीति के तहत हमले तेज कर दिए हैं।
No comments:
Post a Comment