कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह बेषक अपने मुख्यमंत्रीत्वकाल में इतना चर्चा में नहीं रहे हों, लेकिन जब से मध्य प्रदेष छोड़कर दिल्ली आए हैं, अपने बेतुके बोल के लिए जाने जाते हैं। किसी भी मुददे को विवादित बनाना हो, तो दिग्विजय सिंह से बेहतर कोई नाम नहीं है। ऐसे एक नहीं, कई उदाहरण हैं। हाल ही में जिस प्रकार से उन्होंने कांग्रेस सांसद मीनाक्षी नटराजन को लेकर जिस प्रकार की टिप्पणी की और बाद में उसको अलग अर्थों में बयां करने लगे, उससे उनकी दिमागी हालत का पता चलता है।
पूर्वांचल विकास मोर्चा के अध्यक्ष अजीत कुमार पांडेय सीधे सपाट षब्दों में पूछते हैं कि यदि मीनाक्षी नटराजन को दिग्विजय 100 टंच माल कहते हैं, तो उनकी नजर में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी कितना टंच माल है! क्या कोई जवाब है दिग्विजय के पास! दरअसल, किसी भी आदमी को बोलने से पहले पूरा तौल लेना चाहिए। उसके बाद ही बोलना चाहिए। लेकिन भला दिग्विजय सिंह जैसे लोगों को यह समझ में कहां आता है।
मेरे मन में एक सवाल उठ रहा है३.शायद आप लोगों से उसका उत्तर मिल जाए३। भारत में मंत्री ज्ञान और वरिष्ठता के आधार पर बनाए जाते हैं या फिर उनकी पहुंच पार्टी के आला नेताओं तक होती है जो उनकी चाटुकारिता करने पर ईनाम में दिया जाता है३। अगर मंत्री विद्धान और अनुभवी बनाए जाते है तो मंत्रियों के बोल हमेशा विवादों में क्यों रहते हैं.. अक्सर मंत्री काम से कम बेतुके बोल से ज्यादा सुर्खियों में रहते हैं..। यदि चाटुकारिता करने वाले अयोग्य नेताओं को मंत्री बनाया जाता है तो आखिर क्यो.. ? क्या मंत्रालय किसी पार्टी की घर की राजनीति विरासत है जिसे हर कोई इस्तेमाल करे३। क्या ये देश की जनता के साथ धोखा नही है..। अगर धोखा है तो ऐसे लोगों को न्यायलय के कटघरे में क्यों नही खड़ा किया जाता है३।
पत्रकारिता की दुनिया में एक बड़ी पुरानी कहावत चलती है कि खबर वह नहीं है जो आप बोल रहे हैं, खबर वह है जो पत्रकार समझ रहा है। ठीक यही दिग्विजय सिंह के मामले में भी हुआ। खबर वह नहीं बनी जो उन्होंने बोला था। खबर वह बनी जो मीडिया के कुछ कारिंदों को समझ में आया। और शुक्रवार को पूरे दिन देश के भारी भरकम टीवी समुदाय ने इतना विवाद पैदा किया कि खुद दिग्विजिय सिंह ही नहीं उन मीनाक्षी नटराजन को भी मैदान में उतरना पड़ा जिन्हें मीडिया पीड़ित बनाकर पेश कर रहा था। दिग्विजय सिंह ने जो कहा सो कहा, मीनाक्षी नटराजन ने कहा कि प्रशंसा को भी मीडिया विवाद बनाकर पेश कर रहा है।
मंदसौर में दिग्विजय सिंह के बयान मतलब तो वही था जो अब खुद दिग्विजय सिंह और मीनाक्षी नटराजन मीडिया को समझा रहे हैं लेकिन विवाद तलाशता मीडिया अगर अघोषित तौर पर सुपारीबाज बन जाए तो बात बयान बिगाड़ने से कौन रोक सकता है? दिग्विजय सिंह के बयान में भी यही बात सामने आई है।
सबसे अधिक मुखर रूप से दिग्विजय सिंह के बयान को तूल दिया इंडिया टुडे ग्रुप ने जो रणनीतिक तौर पर पिछले कुछ महीनों से मोदी समूह को सपोर्ट करता दिख रहा है। इंडिया टुडे ग्रुप के ही दो चैनलों हेडलाइन्स टुडे और आज तक ने इसे सबसे बड़ा विवाद बनाकर पेश किया बाद में दूसरे चैनलों और वेब मीडिया को मजबूरी में उसे फालो करना पड़ा। लेकिन जब तहकीकात में हकीकत सामने आई तो पता चला कि इंडिया टुडे ग्रुप जानबूझकर दिग्विजय सिंह पर निशाना साध रहा है और पहले ही विवादास्पद नेता बन चुके दिग्विजय सिंह पर मीडिया वार कर रहा है।
अपने बचाव में उतरे दिग्विजय सिंह ने न सिर्फ अपना वह विवादास्पद बयान यू ट्यूब पर पोस्ट किया है जिसको आधार बनाकर इंडिया टु़डे ग्रुप ने दिग्विजय सिंह के खिलाफ अभियान शुरू किया था बल्कि अपने ट्विटर एकाउण्ट पर भी लिखा है कि ष्100 परसेन्ट टंच का मतलब होता है 100 प्रतिशत शुद्ध। और मीडिया इसे सेक्सिस्ट कमेन्ट बता रहा है।ष् दिग्विजय सिंह लिखते हैं कि अपने टीआरपी के लिए मीडिया सामान्य तौर पर इस्तेमाल की जानेवाली एक कहावत को महिला विरोधी बताकर प्रचारित कर रहा है।
खुद मीनाक्षी नटरजान को मीडिया का यह बेजा बवाल पसंद नहीं आया और उन्होंने भी बयान दिया है कि दिग्विजय सिंह ने जो कुछ कहा वह उनकी तारीफ में था। मीडिया बेवजह उसे तूल दे रहा है। जबकि कांग्रेस की महिलावादी नेता रेणुका चैधरी का भी कहना है कि यह कम्पीमेन्ट था, कमेन्ट नहीं। लेकिन मीडिया की क्लिप पर बयान देनेवाले नेताओं को इतना धैर्य भी नहीं था कि वे पूरी बात सुन लेते। शायद यही कारण है कि कांग्रेस की मीनाक्षी की बचाव भाजपा की प्रवक्ता मीनाक्षी लेखी उतर आई और बिना कुछ जाने समझे दिग्विजय सिंह को बुरा भला कहकर विपक्ष होने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी निभा दी।
गालिब ने कहा था छूटती कहां है कमबख्त मुंह से लगी हुई, अंग्रेजी में इसके लिए ओल्ड हैबिट्स डाइ हार्ड का जुमला है और दोनों का लब्बोलुआब यह है कि पुरानी आदतें आसानी से पीछा नहीं छोड़तीं. साठ के दशक में इंदौर के प्रतिष्ठित डेली कॉलेज का एक छात्र जो राघोगढ़ राजपरिवार से ताल्लुक रखता था, आज अपनी उसी आदत से जूझ रहा है. दिग्विजय सिंह कॉलेज के जमाने में जितने शानदार खिलाड़ी क्रिकेट के थे उससे भी जोरदार हाथ वे स्क्वैश में दिखाते थे. कहा जाता है कि छह साल तक वे सेंट्रल इंडिया के जूनियर स्क्वैश चैंपियन भी थे. लेकिन उनके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू यह है कि कॉलेज के जमाने में जितनी बार उन्हें अनुशासनहीनता संबंधी नोटिस भेजे गए उसका भी कोई मुकाबला नहीं है. ईमानदारी के चश्मे से देखें तो आज भी उनके बयान और काम-काज का तरीका अनुशासनहीनता के दायरे में ही आता है लेकिन जैसा कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सीडब्ल्यूसी के एक सदस्य कहते हैं, श्देखते हैं पार्टी कब तक उनके इस रवैये को बर्दाश्त करती है. पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए अलग नियम और बड़े नेताओं के लिए अलग नियम तो नहीं होने चाहिए. आजकल जितने भी कार्यकर्ताओं से मेरी बात होती है सबकी चिंता बस यही होती है कि दिग्विजय सिंह की जुबान पर लगाम क्यों नहीं लगाई जा रही है.श्
दिग्विजय सिंह का मकसद 2009 में सपा से कट कर कांग्रेस के पास आए मुसलमानों को 2012 तक अपने साथ जोड़े रखना है वर्तमान दिग्विजय सिंह के बनने की शुरुआत मध्य प्रदेश का अध्यक्ष बनने से हुई थी. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई एक वाकये का उल्लेख करते हैं, श्राजीव गांधी ने दिग्विजय को फोन करके बताया कि मैं तुम्हें प्रदेश अध्यक्ष बना रहा हूं. यह सुनकर वे इतने खुश हुए कि सीधे अपने राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह के पास पहुंच गए और उन्हें इसकी जानकारी दी. अगले ही दिन उनके पास फिर से राजीव गांधी का फोन आया और वे गुस्से से बोले कि तुमने अर्जुन सिंह को अध्यक्ष बनने की बात क्यों बताई. जाहिर-सी बात है राजीव के निर्णय से अर्जुन खुश नहीं थे.श् यह घटना दिग्गी के अतिउत्साही स्वभाव और बेरोकटोक बोले चले जाने का एक और नमूना है जिससे उनके पहली ही ऊंची छलांग में औंधे मुंह गिरने की नौबत आ गई थी. यह घटना उनके राजनीतिक जीवन का टर्निंग प्वाइंट भी थी. इसके बाद से ही शिष्य के गुरु के प्रति प्राकृतिक प्रेम का स्थान मैनेजमेंटी प्रेम ने ले लिया.
दिग्विजय सिंह की फिसलती जुबान एक-दो वाकयों की दास्तान नहीं है बल्कि सिलसिलेवार बयानों की पूरी शृंखला है और यह कहा जा सकता है कि गंगा में फिसले तो बंगाल की खाड़ी तक जा पहुंचे लेकिन रुके अभी भी नहीं हैं, फिसलते ही जा रहे हैं. उनके बयान उनकी अपनी ही पार्टी और सरकार के लिए मुंह चुराने की जमीन तैयार करते हैं. हालिया जन लोकपाल बिल को लेकर अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए आंदोलन को ही लें. दिग्विजय सिंह ने संतोष हेगड़े को निशाने पर लिया तो कह गए कि कर्नाटक में तो बहुत मजबूत लोकायुक्त कानून है तो भी उन्होंने क्या कर लिया. निर्विवाद छवि वाले हेगड़े पर इस आरोप के बाद भी वे रुके नहीं, अन्ना हजारे को भी चुनौती दे डाली कि यूपी में जाकर कुछ करके दिखाएं. इतना ही नहीं, सूत्रों के मुताबिक इसके बाद दिग्विजय सिंह ने जन लोकपाल की पांच सदस्यीय नागरिक समिति पर कीचड़ उछालने के लिए अमर सिंह की सेवाएं भी लीं जो पहले से ही गुमनामी के अंधेरे से बाहर आने के लिए छटपटा रहे थे. इस पर मचे हल्ले के बाद पार्टी ने जब नफे नुकसान का आकलन करना शुरू किया तो दिग्विजय सिंह ने श्न हां न नाश् वाली मुद्रा अख्तियार कर ली और तीर-कमान पूरी तरह से अपने श्ट्रस्टेडश् अमर सिंह को पकड़ा दिए जो आने वाले कई दिनों तक नागरिक समिति के दो महत्वपूर्ण सदस्यों के साथ हवाई लड़ाई लड़ते रहे. पर पार्टी के नफे नुकसान का अंदाजा और अंदरखाने में मची असहजता का अंदाजा उन्हीं के गृहराज्य से आने वाले वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और राज्यसभा सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी के साथ हुई बातचीत से लगाया जा सकता है - श्दिग्विजय सिंह द्वारा बार-बार जन लोकपाल समिति पर टीका-टिप्पणी से जनता के बीच यह संदेश गया कि कांग्रेस खिसियाई हुई बिल्ली की तरह व्यवहार कर रही है. लोगों को लगने लगा कि कांग्रेस प्रभावशाली लोकपाल कानून की विरोधी है.श्
जिस पार्टी में वे हैं उसमें ऊपर जाने की सीढ़ियां अंतहीन नहीं हैं, एक ऊंचाई पर पहुंचकर वे खत्म हो जाती हैं और वे इसे लगभग छू चुके हैं मौके लपकने में दिग्विजय सिंह द्वारा दिखाई गई हड़बड़ी का हालिया नमूना ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद देखने को मिला जब वे ओसामा को ओसामा जी कहकर संबोधित करते दिखे. फिर उन्होंने ओसामा के लिए उचित अंतिम संस्कार की जरूरत की भी वकालत कर डाली. उनके इस बेतुके रवैये से पूरी पार्टी सकते में आ गई. और उस बयान को दिग्विजय सिंह का निजी विचार कहकर अपनी इज्जत बचाने की कोशिश में लगी रही. कांग्रेस के एक नेता कहते हैं कि क्या यह मुसलमानों का अपमान नहीं है कि उन्हें ओसामा बिन लादेन जैसे आतंकी से सहानुभूति दिखाकर लुभाने की कोशिश दिग्विजय सिंह कर रहे हैं. पहली नजर में इसे मुसलिम वोटों को अपनी तरफ खींचने की होड़ की बेतुकी पर निजी पहल के तौर पर देखा जा सकता है, लेकिन राजनीति पर निगाह रखने वाले इसके पीछे कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की मूक सहमति देखते हैं. लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़ी रही और उसकी अंदरूनी राजनीति को समझने वाली भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नजमा हेपतुल्ला कहती हैं, श्कांग्रेस में किसी की मजाल नहीं है कि सुप्रीम लीडर की सहमति के बिना कुछ भी बोल दे. चाहे वे दिग्विजय सिंह हों या फिर प्रधानमंत्री.श् दिग्विजय सिंह ने पार्टी और सरकार की लाइन से अलग हटते हुए जो राह पकड़ी है उससे सरकार और पार्टी को भले ही परेशानी पेश आ रही हो और विपक्ष भूखे भेड़िये की तरह उनके पीछे पड़ा रहा हो लेकिन दिग्विजय सिंह ने अपने राजनीतिक सरपरस्तों को पूरी तरह से विश्वास में ले रखा है कि इसका फायदा उन्हें चुनाव में वोटों के रूप में शर्ति्तया मिलेगा.
दरअसल, दिग्विजय सिंह की बयानबाजी का सिलसिला काफी पुराना है. लेकिन पहली बार इन पर सबका ध्यान तब केंद्रित हुआ जब वे पिछले साल फरवरी में आजमगढ़ के दौरे पर गए थे. अपने इस दौरे में सिंह उन लोगों के घरों में गए जिन पर आतंकी घटनाओं में शामिल होने के आरोप थे. संजरपुर और सरायमीर स्थित बैतुल उलूम मदरसे में मुसलमानों की भारी भीड़ के बीच उन्होंने बटला हाउस की मुठभेड़ पर सवाल उठाते हुए बयान दिया, ‘बटला हाउस की घटना बेहद दुखद है. यहां के युवकों को न्याय मिलना चाहिए. लोग आजमगढ़ को आतंक की नर्सरी बता रहे हैं. मैं राहुल जी को यहां बुलाऊंगा.’ दिग्विजय सिंह का बयान जंगल की आग की तरह फैल गया और एक बार फिर से पूरे इलाके में तनाव का माहौल तारी हो गया. एक तरफ स्वयं पीएमओ और गृह मंत्रालय बटला हाउस एनकाउंटर को वैध ठहरा रहे थे और न्यायिक जांच कराने से इनकार कर रहे थे. यहां तक कि बटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए पुलिस अधिकारी मोहन चंद शर्मा को केंद्र सरकार ने अशोक चक्र से भी सम्मानित किया था. मगर दिग्विजय इसका बिलकुल उलटा बयान दे रहे थे. प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय के आला अधिकारियों ने उस वक्त दिग्विजय सिंह के प्रति साफ तौर पर नाराजगी जताई थी. लेकिन दिग्विजय सिंह ने वही किया जो वे करना चाहते थे.
श्आज वे किसानों को न्याय दिलाने के लिए धरने पर बैठे हैं लेकिन मध्य प्रदेश में अपने शासनकाल में किसानों की समस्या उठाने के कारण अपनी ही पार्टी की नेता कल्पना परुलेकर को इन्होंने बार-बार जेल में ठूंसाश्
नजमा हेपतुल्ला की बात यहां तब साबित भी हो गई जब बाद में राहुल गांधी आजमगढ़ दौरे पर गए. लेकिन यह दिग्विजय सिंह के विवादित बयानों से मचने वाली हलचलों की शुरुआत थी. उन्होंने इसके कुछ ही दिनों बाद नक्सलवाद के मुद्दे पर गृहमंत्री पी चिदंबरम को बौद्धिक अहंकारी तक कह डाला जबकि प्रधानमंत्री तक ने स्पष्ट कर दिया था कि नक्सली देश के दुश्मन नंबर एक हैं. दिग्विजय सिंह का यह बयान ऐसे समय में आया जब दंतेवाड़ा में माओवादियों ने 76 सीआरपीएफ जवानों को मार दिया था. जानकारों की मानें तो एक बार फिर से दिग्विजय सिंह उसी लाइन पर चल रहे थे जिसे राजनीतिक विश्लेषक पब्लिक पॉश्चरिंग (जनता के बीच छवि निर्माण) करार देते हैं. भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार एनडी शर्मा कहते हैं, श्आज दिग्विजय नक्सलवादी नीति और छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा मानवाधिकारों के हनन की आलोचना कर रहे हैं. लेकिन वे अपना किया भूल जाते हैं. अपने समय में दिग्विजय ने राजद्रोह संबंधी कानून का जो मसविदा तैयार किया था वह इतना खतरनाक और बर्बर था कि उसके सामने छत्तीसगढ़ सरकार का वर्तमान कानून कुछ भी नहीं है. जब इस बिल को लेकर सिविल सोसायटी के लोगों ने भोपाल से लेकर दिल्ली तक विरोध किया तब जाकर दिग्गी ने उसे रद्दी की टोकरी में डाला. खुद उनके कार्यकाल में नौकरशाही और पुलिस सर्वाधिक शक्तिशाली रही.श् शर्मा आगे कहते हैं, श्आज वे किसानों को न्याय दिलाने के लिए धरने पर बैठे हैं लेकिन मध्य प्रदेश में अपने शासनकाल में किसानों की समस्या उठाने के कारण अपनी ही पार्टी की नेता कल्पना परुलेकर को इन्होंने बार-बार जेल में ठूंसा.श्
ऐसा नहीं है कि उनके बयान से पार्टी हलकों में असहजता नहीं पनपी. पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के एक सदस्य नाम नहीं छापने के अनुरोध पर कहते हैं, श्पार्टी के लगभग सभी शीर्ष नेता और मंत्री दिग्विजय सिंह के रवैये से नाराज हैं. कार्यकर्ताओं की तरफ से सबसे ज्यादा शिकायत दिग्विजय सिंह के खिलाफ आ रही है. लेकिन कार्रवाई तो अंततरू शीर्ष नेतृत्व को करनी है. जनार्दन द्विवेदी ने तो उन्हें सीधे-सीधे आगाह करते हुए कह ही दिया था कि पार्टी के घोषित प्रवक्ताओं के अलावा कोई अन्य नेता बयानबाजी न करे.श्
कार्यकर्ताओं के असंतोष का सुर पहली दफा बनारस से खुलकर सामने आया है. प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और वाराणसी मंडल के प्रवक्ता राजेश खत्री ने कुछ दिनों पहले दिग्विजय सिंह को उनके बड़बोलेपन की वजह से उत्तर प्रदेश के प्रभारी पद से हटाने की मांग की थी. खत्री बताते हैं, श्दिग्विजय सिंह, रीता जी समेत कई नेता एक शादी में हिस्सा लेने के लिए ताज होटल में इकट्ठा थे. मैं भी वहां मौजूद था. दिग्विजय सिंह ने मुझसे कहा कि कार्यकर्ताओं को जाने के लिए कहें. मैं लोगों को हटा-बढ़ा रहा था कि पीछे से उनके गनर ने आकर मुझे भी धक्का देते हुए जाने के लिए कहा. इस पर मेरे एक साथी कार्यकर्ता ने कहा कि इन्हें छोड़ दीजिए, वरिष्ठ नेता हैं और इंदिरा जी के साथ इन्होंने काम किया है. इस पर दिग्विजय सिंह मेरे पास आए और बोले- इंदिरा जी गईं और राजीव जी गए, अब आप लोग भी यहां से निकलिए. जिस अपमानजनक तरीके से उन्होंने ये बात कही थी उससे मुझे बेहद दुख हुआ. मैंने सोनिया जी से मांग की है कि ऐसे व्यक्ति को तुरंत ही पार्टी प्रभारी पद से हटाना चाहिए.श् दिग्विजय सिंह को हटाने की मांग के एक दिन बाद ही राजेश खत्री को मंडल प्रवक्ता के पद से निलंबित कर दिया गया.
हालांकि खत्री के बयान के पीछे कुछ राजनीतिक मंशाएं भी हो सकती हैं, लेकिन दिग्विजय सिंह को जानने-समझने वाले उनके इस विस्फोटक रवैये के पीछे उनके व्यक्तित्व के कई अन्य पहलुओं की भूमिका भी देखते हैं. मसलन सत्यव्रत चतुर्वेदी का बयान गौर करने लायक है, श्ऐसा लगता है कि दिग्विजय सिंह की सामंती पृष्ठभूमि अक्सर पार्टी की रीतियों-नीतियों पर हावी हो जाती है. उनके व्यक्तित्व में शामिल सामंती तत्व उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करता है.श् विशुद्ध राजनीतिक नजरिए से देखें तो पिछले दो साल के दौरान आए दिग्विजय सिंह के ज्यादातर विवादास्पद बयान उनकी राजनीतिक मजबूरी भी हैं. गौरतलब है कि उनके ज्यादातर विवादित बयान मुसलिम समुदाय पर केंद्रित रहे हैं - चाहे वह बटला हाउस का बयान हो, करकरे की हत्या पर बयान हो या फिर श्ओसामा जीश् वाला बयान. इनका सीधा लक्ष्य वे दो राज्य हैं जिनके वे प्रभारी हैं- उत्तर प्रदेश और असम. ये दोनों ही राज्य मुसलिम आबादी के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं. उत्तर प्रदेश में देश के सबसे ज्यादा मुसलमान रहते हैं तो निचले असम का बांग्लादेश से लगने वाला पूरा इलाका मुसलिम बहुल है. ऐसे में उनके बयानों के राजनीतिक निहितार्थ समझे जा सकते हैं.
श्दिग्विजय सिंह की रणनीति कांग्रेस की पुरानी रणनीति से अलग नहीं है. वे मुसलमानों को हिंदुओं का भय दिखाकर वोट हासिल करना चाहते हैं. अगर वे सच्चे हैं तो सच्चर कमेटी की सिफारिशें क्यों नहीं लागू कराते?श्
2009 के लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस पूरे देश में अपनी जीत के दावे कर रही थी, लेकिन उत्तर प्रदेश को लेकर उसकी सांस अटकी हुई थी. आखिरी वक्त तक सपा उसे गठबंधन को लेकर छकाती रही. कभी सपा सिर्फ 11 सीटें देने को राजी हुई तो कभी 18 और अंततरू 23 सीटों पर आकर मामला अटका रहा. लेकिन इसके बाद जो कुछ हुआ उसे सपा याद नहीं करना चाहती और कांग्रेस भूलना नहीं चाहती. दिग्विजय सिंह ने उत्तर प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा की थी. उनकी सोच थी कि सपा से 18 या 23 सीटों का समझौता करके वे जितनी सीटें जीतेंगे कमोबेश उतनी ही वे अकेले लड़कर भी फतह कर लेंगे. यह फैसला कैसा साबित हुआ, बताने की जरूरत नहीं. जो कांग्रेस सपा से 23 सीटें ही पा रही थी उसने अकेले 22 सीटों पर परचम फहरा दिया. जिस उन्नाव, फर्रूखाबाद, बाराबंकी और महाराजगंज सीट को लेकर सपा सबसे ज्यादा खिचखिच कर रही थी वे चारों सीटें कांग्रेस के ही खाते में गईं.
हालांकि 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के अप्रत्याशित फायदे और सपा के नुकसान की कोई सपाट व्याख्या नहीं की जा सकती. लेकिन कल्याण सिंह के पार्टी में आगमन और आजम खान के प्रस्थान ने मुसलमान वोटरों की सपा से दूरी और कांग्रेस से नजदीकी में सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी जिसका नतीजा कांग्रेस की इतनी अप्रत्याशित जीत के रूप में सामने आया. इस जीत ने दिग्विजय सिंह समेत कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत के लिए एक अहम रणनीतिक बिंदु दिया- जो मुसलमान वोटर कल्याण सिंह या दूसरे मुद्दे की वजह से सपा से कट कर कांग्रेस के पास आ गया था उसे 2012 के विधानसभा तक अपने साथ जोड़े रखना.
कांग्रेस आलाकमान की इसी सोच ने दिग्विजय सिंह को लगभग फ्रीहैंड दे दिया. अल्पसंख्यकों से जुड़े हर मुद्दे को लपकने की जल्दबाजी इसी का नतीजा है फिर चाहे इसके चलते खुद उनकी और पार्टी की किरकिरी ही क्यों न होती हो. उत्तर प्रदेश में मुसलिम राजनीति का तजुर्बा रखने वाले प्रो. खान आतिफ कहते हैं, श्दिग्विजय सिंह की रणनीति कांग्रेस की पुरानी रणनीति से अलग नहीं है. वे मुसलमानों को हिंदुओं का भय दिखाकर वोट हासिल करना चाहते हैं. अगर वे सच्चे हैं तो सच्चर कमेटी की सिफारिशें क्यों नहीं लागू कराते?श्
अपने लक्ष्य को निशाने पर रखकर दिए जाने वाले ऐसे बयानों की एक पूरी शृंखला है कि जब पार्टी या सरकार खेत की बात कर रही थी तो दिग्विजय सिंह खलिहान खंगाल रहे थे. मुंबई में 26ध्11 को हुए आतंकवादी हमले के लगभग दो साल बाद दिग्विजय सिंह ने ऐसा बयान दे डाला जिससे उनकी पार्टी और सरकार के सामने मुंह छिपाने की नौबत आ गई. मौका सहारा समय उर्दू के संपादक अजीज बर्नी की पुस्तक के विमोचन का था जहां दिग्विजय सिंह ने यह कहकर सबको चैंका दिया कि हेमंत करकरे ने अपनी हत्या के दो घंटे पहले उनसे फोन पर बात करके हिंदूवादी संगठनों द्वारा अपनी हत्या किए जाने का भय जताया था. इस एक बयान ने घर के भीतर और बाहर दोनों जगह सत्ताधारी कांग्रेस को सुरक्षात्मक मुद्रा में डाल दिया. पाकिस्तान ने दिग्विजय सिंह के बयान की आड़ में मुंबई हमलों की जिम्मेदारी से अपना पिंड छुड़ाने में कोई समय नहीं गंवाया. इधर विपक्ष ने यह कहकर सरकार का जीना मुहाल कर दिया कि दिग्विजय सिंह मुंबई हमले जैसे मामले पर तुष्टीकरण की राजनीति और एक शहीद का अपमान कर रहे हैं. विपक्ष का यह भी कहना था कि दिग्विजय ऐसा कहकर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में दुनिया के सामने भारत का पक्ष कमजोर कर रहे हैं. सिर्फ विपक्ष नहीं बल्कि दिग्विजय सिंह के सनातन शत्रु बनते जा रहे गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय में भी उनके इस बयान के प्रति गुस्से की भावना देखने को मिली.
दिग्विजय सिंह द्वारा विवादों को दावत देने में एक चतुराई भरा दिलचस्प ट्रेंड देखने को मिलता है. टारगेट ऑडिएंस (कभी-कभी किसान और ज्यादातर समय मुसलमान) के बीच वे वही बातंे करते हैं जिनसे विवाद पैदा होते हैं और जिनसे राजनीतिक हित पूरे होते हैं. बाद में इन पर सफाई देने के लिए वे उन माध्यमों का सहारा लेते हैं जो अपेक्षाकृत कम सुलभ और सीमित पहुंच वाले हैं- यानी अंग्रेजी चैनल और अखबार जिनकी पहुंच बमुश्किल पांच फीसदी और सिर्फ शहरी इलाकों तक सीमित है. इससे उन्हें अपने बयान में ज्यादा हेरफेर की मुसीबत भी नहीं उठानी पड़ती और उनका काम भी हो जाता है.
उनके बयान पार्टी को बार-बार शर्मनाक स्थिति में डाल देते हैं फिर भी उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती. इस बात का अहसास पार्टी मैनेजरों को भी है इसलिए उन्होंने बचाव के लिए बीच का रास्ता निकाल लिया है- फलां विचार पार्टी का है और फलां विचार दिग्विजय सिंह का निजी है. ताजा वाकया ग्रेटर नोएडा में चल रहे किसान आंदोलन का है. खबर है कि मनोज तेवतिया ने दिग्विजय सिंह के इशारे पर सारा बवाल रचा. बाद में एक निजी टीवी चैनल ने जब उनसे सवाल किया कि टप्पल में हुए आंदोलन के नौ महीने बाद तक केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक संसद में क्यों नहीं पेश किया तो दिग्विजय सिंह ने दो टूक कहा, श्हमने तो पेश कर दिया था लेकिन ममता बनर्जी को इससे थोड़ी दिक्कत थी. अब विधानसभा चुनाव निपट गए हैं तो उम्मीद है कि अगले सत्र में हम इसे पास करवा लेंगे.श् कानून पास न हो पाने के लिए दिग्विजय सिंह ने जो बहाना बनाया शायद उसी विधानसभा चुनाव की गहमागहमी दिग्विजय सिंह की ढाल भी बन गई. न तो ममता बनर्जी का ध्यान उनके बयान पर गया न ही मीडिया का. वरना इसके निहितार्थ भी कई थे मसलन किसानों-मजदूरों के आंदोलन पर राजनीति खड़ी करने वाली ममता ने सिर्फ चुनाव तक के लिए इस विधेयक को रोका था और चुनाव जीतने के बाद उन्हें इससे कोई मतलब नहीं. या फिर एक सहयोगी के दबाव में कांग्रेस ने किसानों के लिए इतने महत्वपूर्ण कानून को महीनों तक लटकाए रखा. अगर यह बात तूल पकड़ लेती तो जनता और मीडिया को दिग्विजय सिंह के एक और अटपटे बयान के साथ कांग्रेस-तृणमूल की धींगामुश्ती का एक और रोमांचक दौर देखने को मिल जाता.
पार्टी के भीतर तमाम विरोधियों के बावजूद उन्हें एक कोने से समर्थन भी मिल रहा है. वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर उनके इस बर्ताव को पार्टी के भीतर स्वस्थ लोकतांत्रिक वातावरण से जोड़ते हैं जिसके बारे में स्वयं राहुल गांधी मान चुके हैं कि उनकी पार्टी में लोकतंत्र का अभाव है. अय्यर के शब्दों में, श्मैं भी उनके जैसी ही बातें करता हूं पर मेरे साथ कभी कोई विवाद नहीं होता. जो बातें दिग्विजय सिंह कर रहे हैं, मैं उनका पूरा समर्थन करता हूं और मैं हमेशा उनके मुद्दों के साथ खड़ा रहूंगा. ये एक विविध विचारों से भरपूर लोकतांत्रिक पार्टी का सबूत है.श्
दिग्विजय सिंह यह सब गांधी-नेहरू परिवार के समर्पण और वफादारी में किए जा रहे हैं या यह सब कुछ वे पार्टी की भलाई के लिए कर रहे हैं, उनकी अपनी कोई महत्वाकांक्षा नहीं- यह नजरिया स्थितियों का एकतरफा विश्लेषण होगा. अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में मध्य प्रदेश के मंत्रिमंडल में दिग्विजय सिंह के साथ काम कर चुके एक नेता बताते हैं, श्मेरा अपना आकलन है कि दिग्विजय सिंह के अंदर महत्वाकांक्षा की कमी कभी नहीं रही, बल्कि इस मामले में वे अपने समकालीन नेताओं से कई कदम आगे हैं.श् नजमा हेपतुल्ला इस विषय को और तफसील से बयान करती हैं, श्दिग्विजय सिंह बहुत चालाक और महत्वाकांक्षी हैं. उन्हें इस बात का अहसास है कि राहुल गांधी की राजनीतिक सोच की एक सीमा है जिसके पार वे जा नहीं सकते. इसी सीमा का फायदा वे उठा रहे हैं. भविष्य में राहुल गांधी को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा.श्
इस लिहाज से वे पीड़ित और अप्रासंगिक न हो जाएं, इस चिंता से दिग्विजय सिंह भरे नजर आते हैं. पीड़ित इस संदर्भ में कि अपनी तमाम योग्यताओं और क्षमताओं के बावजूद उन्हें पता है कि जिस पार्टी में वे हैं उसमें ऊपर जाने की सीढ़ियां अंतहीन नहीं हैं, एक ऊंचाई पर पहुंचकर वे खत्म हो जाती हैं और दिग्विजय सिंह उस सीमा को लगभग छू चुके हैं. दो बार मुख्यमंत्री बन जाने के बाद एक केंद्रीय मंत्री या फिर राज्यपाल जैसा प्रतीकात्मक पद ही अब उन्हें मिल सकता है. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एनवी सुब्रमण्यम के शब्दों में, श्दिग्विजय सिंह कांग्रेस पार्टी की वंशवादी राजनीति के क्लासिक शिकार है.श्
चिंता इस संदर्भ में कि 2013 में उनका खुद पर थोपा गया चुनावी वनवास खत्म होने जा रहा है. ऐसे में अगर वे अभी से खबरों में नहीं रहे तो मौके पर अंगूठा दिखाने वालों की राजनीति में कमी नहीं है. इस मामले में उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह वाली गलती न दोहराने का फैसला कर लिया है. अपने दोस्तों के बीच में दिग्विजय सिंह अक्सर कहते हैं, श्अगर मैं विवादित बयान नहीं दूंगा तो जल्द ही मैं लोगों की निगाह से ओझल हो जाऊंगा.श्
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