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Monday, 29 July 2013

दिग्विजय सिंह क्या कह रहे हैं?





कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह बेषक अपने मुख्यमंत्रीत्वकाल में इतना चर्चा में नहीं रहे हों, लेकिन जब से मध्य प्रदेष छोड़कर दिल्ली आए हैं, अपने बेतुके बोल के लिए जाने जाते हैं। किसी भी मुददे को विवादित बनाना हो, तो दिग्विजय सिंह से बेहतर कोई नाम नहीं है। ऐसे एक नहीं, कई उदाहरण हैं। हाल ही में जिस प्रकार से उन्होंने कांग्रेस सांसद मीनाक्षी नटराजन को लेकर जिस प्रकार की टिप्पणी की और बाद में उसको अलग अर्थों में बयां करने लगे, उससे उनकी दिमागी हालत का पता चलता है।
पूर्वांचल विकास मोर्चा के अध्यक्ष अजीत कुमार पांडेय सीधे सपाट षब्दों में पूछते हैं कि यदि मीनाक्षी नटराजन को दिग्विजय 100 टंच माल कहते हैं, तो उनकी नजर में कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी कितना टंच माल है! क्या कोई जवाब है दिग्विजय के पास! दरअसल, किसी भी आदमी को बोलने से पहले पूरा तौल लेना चाहिए। उसके बाद ही बोलना चाहिए। लेकिन भला दिग्विजय सिंह जैसे लोगों को यह समझ में कहां आता है।
मेरे मन में एक सवाल उठ रहा है३.शायद आप लोगों से उसका उत्तर मिल जाए३। भारत में मंत्री ज्ञान और वरिष्ठता के आधार पर बनाए जाते हैं या फिर उनकी पहुंच पार्टी के आला नेताओं तक होती है जो उनकी चाटुकारिता करने पर ईनाम में दिया जाता है३। अगर मंत्री विद्धान और अनुभवी बनाए जाते है तो मंत्रियों के बोल हमेशा विवादों में क्यों रहते हैं.. अक्सर मंत्री काम से कम बेतुके बोल से ज्यादा सुर्खियों में रहते हैं..। यदि चाटुकारिता करने वाले अयोग्य नेताओं को मंत्री बनाया जाता है तो आखिर क्यो.. ?  क्या मंत्रालय किसी पार्टी की घर की राजनीति विरासत है जिसे हर कोई इस्तेमाल करे३। क्या ये देश की जनता के साथ धोखा नही है..। अगर धोखा है तो ऐसे लोगों को न्यायलय के कटघरे में क्यों नही खड़ा किया जाता है३।
पत्रकारिता की दुनिया में एक बड़ी पुरानी कहावत चलती है कि खबर वह नहीं है जो आप बोल रहे हैं, खबर वह है जो पत्रकार समझ रहा है। ठीक यही दिग्विजय सिंह के मामले में भी हुआ। खबर वह नहीं बनी जो उन्होंने बोला था। खबर वह बनी जो मीडिया के कुछ कारिंदों को समझ में आया। और शुक्रवार को पूरे दिन देश के भारी भरकम टीवी समुदाय ने इतना विवाद पैदा किया कि खुद दिग्विजिय सिंह ही नहीं उन मीनाक्षी नटराजन को भी मैदान में उतरना पड़ा जिन्हें मीडिया पीड़ित बनाकर पेश कर रहा था। दिग्विजय सिंह ने जो कहा सो कहा, मीनाक्षी नटराजन ने कहा कि प्रशंसा को भी मीडिया विवाद बनाकर पेश कर रहा है।
मंदसौर में दिग्विजय सिंह के बयान मतलब तो वही था जो अब खुद दिग्विजय सिंह और मीनाक्षी नटराजन मीडिया को समझा रहे हैं लेकिन विवाद तलाशता मीडिया अगर अघोषित तौर पर सुपारीबाज बन जाए तो बात बयान बिगाड़ने से कौन रोक सकता है? दिग्विजय सिंह के बयान में भी यही बात सामने आई है।
सबसे अधिक मुखर रूप से दिग्विजय सिंह के बयान को तूल दिया इंडिया टुडे ग्रुप ने जो रणनीतिक तौर पर पिछले कुछ महीनों से मोदी समूह को सपोर्ट करता दिख रहा है। इंडिया टुडे ग्रुप के ही दो चैनलों हेडलाइन्स टुडे और आज तक ने इसे सबसे बड़ा विवाद बनाकर पेश किया बाद में दूसरे चैनलों और वेब मीडिया को मजबूरी में उसे फालो करना पड़ा। लेकिन जब तहकीकात में हकीकत सामने आई तो पता चला कि इंडिया टुडे ग्रुप जानबूझकर दिग्विजय सिंह पर निशाना साध रहा है और पहले ही विवादास्पद नेता बन चुके दिग्विजय सिंह पर मीडिया वार कर रहा है।
अपने बचाव में उतरे दिग्विजय सिंह ने न सिर्फ अपना वह विवादास्पद बयान यू ट्यूब पर पोस्ट किया है जिसको आधार बनाकर इंडिया टु़डे ग्रुप ने दिग्विजय सिंह के खिलाफ अभियान शुरू किया था बल्कि अपने ट्विटर एकाउण्ट पर भी लिखा है कि ष्100 परसेन्ट टंच का मतलब होता है 100 प्रतिशत शुद्ध। और मीडिया इसे सेक्सिस्ट कमेन्ट बता रहा है।ष् दिग्विजय सिंह लिखते हैं कि अपने टीआरपी के लिए मीडिया सामान्य तौर पर इस्तेमाल की जानेवाली एक कहावत को महिला विरोधी बताकर प्रचारित कर रहा है।
खुद मीनाक्षी नटरजान को मीडिया का यह बेजा बवाल पसंद नहीं आया और उन्होंने भी बयान दिया है कि दिग्विजय सिंह ने जो कुछ कहा वह उनकी तारीफ में था। मीडिया बेवजह उसे तूल दे रहा है। जबकि कांग्रेस की महिलावादी नेता रेणुका चैधरी का भी कहना है कि यह कम्पीमेन्ट था, कमेन्ट नहीं। लेकिन मीडिया की क्लिप पर बयान देनेवाले नेताओं को इतना धैर्य भी नहीं था कि वे पूरी बात सुन लेते। शायद यही कारण है कि कांग्रेस की मीनाक्षी की बचाव भाजपा की प्रवक्ता मीनाक्षी लेखी उतर आई और बिना कुछ जाने समझे दिग्विजय सिंह को बुरा भला कहकर विपक्ष होने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी निभा दी।
गालिब ने कहा था छूटती कहां है कमबख्त मुंह से लगी हुई,  अंग्रेजी में इसके लिए ओल्ड हैबिट्स डाइ हार्ड का जुमला है और दोनों का लब्बोलुआब यह है कि पुरानी आदतें आसानी से पीछा नहीं छोड़तीं. साठ के दशक में इंदौर के प्रतिष्ठित डेली कॉलेज का एक छात्र जो राघोगढ़ राजपरिवार से ताल्लुक रखता था, आज अपनी उसी आदत से जूझ रहा है. दिग्विजय सिंह कॉलेज के जमाने में जितने शानदार खिलाड़ी क्रिकेट के थे उससे भी जोरदार हाथ वे स्क्वैश में दिखाते थे. कहा जाता है कि छह साल तक वे सेंट्रल इंडिया के जूनियर स्क्वैश चैंपियन भी थे. लेकिन उनके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू यह है कि कॉलेज के जमाने में जितनी बार उन्हें अनुशासनहीनता संबंधी नोटिस भेजे गए उसका भी कोई मुकाबला नहीं है. ईमानदारी के चश्मे से देखें तो आज भी उनके बयान और काम-काज का तरीका अनुशासनहीनता के दायरे में ही आता है लेकिन जैसा कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सीडब्ल्यूसी के एक सदस्य कहते हैं, श्देखते हैं पार्टी कब तक उनके इस रवैये को बर्दाश्त करती है. पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए अलग नियम और बड़े नेताओं के लिए अलग नियम तो नहीं होने चाहिए. आजकल जितने भी कार्यकर्ताओं से मेरी बात होती है सबकी चिंता बस यही होती है कि दिग्विजय सिंह की जुबान पर लगाम क्यों नहीं लगाई जा रही है.श्
दिग्विजय सिंह का मकसद 2009 में सपा से कट कर कांग्रेस के पास आए मुसलमानों को 2012 तक अपने साथ जोड़े रखना है वर्तमान दिग्विजय सिंह के बनने की शुरुआत मध्य प्रदेश का अध्यक्ष बनने से हुई थी. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई एक वाकये का उल्लेख करते हैं, श्राजीव गांधी ने दिग्विजय को फोन करके बताया कि मैं तुम्हें प्रदेश अध्यक्ष बना रहा हूं. यह सुनकर वे इतने खुश हुए कि सीधे अपने राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह के पास पहुंच गए और उन्हें इसकी जानकारी दी. अगले ही दिन उनके पास फिर से राजीव गांधी का फोन आया और वे गुस्से से बोले कि तुमने अर्जुन सिंह को अध्यक्ष बनने की बात क्यों बताई. जाहिर-सी बात है राजीव के निर्णय से अर्जुन खुश नहीं थे.श् यह घटना दिग्गी के अतिउत्साही स्वभाव और बेरोकटोक बोले चले जाने का एक और नमूना है जिससे उनके पहली ही ऊंची छलांग में औंधे मुंह गिरने की नौबत आ गई थी. यह घटना उनके राजनीतिक जीवन का टर्निंग प्वाइंट भी थी. इसके बाद से ही शिष्य के गुरु के प्रति प्राकृतिक प्रेम का स्थान मैनेजमेंटी प्रेम ने ले लिया.
दिग्विजय सिंह की फिसलती जुबान एक-दो वाकयों की दास्तान नहीं है बल्कि सिलसिलेवार बयानों की पूरी शृंखला है और यह कहा जा सकता है कि गंगा में फिसले तो बंगाल की खाड़ी तक जा पहुंचे लेकिन रुके अभी भी नहीं हैं, फिसलते ही जा रहे हैं. उनके बयान उनकी अपनी ही पार्टी और सरकार के लिए मुंह चुराने की जमीन तैयार करते हैं. हालिया जन लोकपाल बिल को लेकर अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए आंदोलन को ही लें. दिग्विजय सिंह ने संतोष हेगड़े को निशाने पर लिया तो कह गए कि कर्नाटक में तो बहुत मजबूत लोकायुक्त कानून है तो भी उन्होंने क्या कर लिया. निर्विवाद छवि वाले हेगड़े पर इस आरोप के बाद भी वे रुके नहीं, अन्ना हजारे को भी चुनौती दे डाली कि यूपी में जाकर कुछ करके दिखाएं. इतना ही नहीं, सूत्रों के मुताबिक इसके बाद दिग्विजय सिंह ने जन लोकपाल की पांच सदस्यीय नागरिक समिति पर कीचड़ उछालने के लिए अमर सिंह की सेवाएं भी लीं जो पहले से ही गुमनामी के अंधेरे से बाहर आने के लिए छटपटा रहे थे. इस पर मचे हल्ले के बाद पार्टी ने जब नफे नुकसान का आकलन करना शुरू किया तो दिग्विजय सिंह ने श्न हां न नाश् वाली मुद्रा अख्तियार कर ली और तीर-कमान पूरी तरह से अपने श्ट्रस्टेडश् अमर सिंह को पकड़ा दिए जो आने वाले कई दिनों तक नागरिक समिति के दो महत्वपूर्ण सदस्यों के साथ हवाई लड़ाई लड़ते रहे. पर पार्टी के नफे नुकसान का अंदाजा और अंदरखाने में मची असहजता का अंदाजा उन्हीं के गृहराज्य से आने वाले वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और राज्यसभा सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी के साथ हुई बातचीत से लगाया जा सकता है - श्दिग्विजय सिंह द्वारा बार-बार जन लोकपाल समिति पर टीका-टिप्पणी से जनता के बीच यह संदेश गया कि कांग्रेस खिसियाई हुई बिल्ली की तरह व्यवहार कर रही है. लोगों को लगने लगा कि कांग्रेस प्रभावशाली लोकपाल कानून की विरोधी है.श्

जिस पार्टी में वे हैं उसमें ऊपर जाने की सीढ़ियां अंतहीन नहीं हैं, एक ऊंचाई पर पहुंचकर वे खत्म हो जाती हैं और वे इसे लगभग छू चुके हैं मौके लपकने में दिग्विजय सिंह द्वारा दिखाई गई हड़बड़ी का हालिया नमूना ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद देखने को मिला जब वे ओसामा को ओसामा जी कहकर संबोधित करते दिखे. फिर उन्होंने ओसामा के लिए उचित अंतिम संस्कार की जरूरत की भी वकालत कर डाली. उनके इस बेतुके रवैये से पूरी पार्टी सकते में आ गई. और उस बयान को दिग्विजय सिंह का निजी विचार कहकर अपनी इज्जत बचाने की कोशिश में लगी रही. कांग्रेस के एक नेता कहते हैं कि क्या यह मुसलमानों का अपमान नहीं है कि उन्हें ओसामा बिन लादेन जैसे आतंकी से सहानुभूति दिखाकर लुभाने की कोशिश दिग्विजय सिंह कर रहे हैं. पहली नजर में इसे मुसलिम वोटों को अपनी तरफ खींचने की होड़ की बेतुकी पर निजी पहल के तौर पर देखा जा सकता है, लेकिन राजनीति पर निगाह रखने वाले इसके पीछे कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की मूक सहमति देखते हैं. लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़ी रही और उसकी अंदरूनी राजनीति को समझने वाली भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नजमा हेपतुल्ला कहती हैं, श्कांग्रेस में किसी की मजाल नहीं है कि सुप्रीम लीडर की सहमति के बिना कुछ भी बोल दे. चाहे वे दिग्विजय सिंह हों या फिर प्रधानमंत्री.श् दिग्विजय सिंह ने पार्टी और सरकार की लाइन से अलग हटते हुए जो राह पकड़ी है उससे सरकार और पार्टी को भले ही परेशानी पेश आ रही हो और विपक्ष भूखे भेड़िये की तरह उनके पीछे पड़ा रहा हो लेकिन दिग्विजय सिंह ने अपने राजनीतिक सरपरस्तों को पूरी तरह से विश्वास में ले रखा है कि इसका फायदा उन्हें चुनाव में वोटों के रूप में शर्ति्तया मिलेगा.

दरअसल, दिग्विजय सिंह की बयानबाजी का सिलसिला काफी पुराना है. लेकिन पहली बार इन पर सबका ध्यान तब केंद्रित हुआ जब वे पिछले साल फरवरी में आजमगढ़ के दौरे पर गए थे. अपने इस दौरे में सिंह उन लोगों के घरों में गए जिन पर आतंकी घटनाओं में शामिल होने के आरोप थे. संजरपुर और सरायमीर स्थित बैतुल उलूम मदरसे में मुसलमानों की भारी भीड़ के बीच उन्होंने बटला हाउस की मुठभेड़ पर सवाल उठाते हुए बयान दिया, ‘बटला हाउस की घटना बेहद दुखद है. यहां के युवकों को न्याय मिलना चाहिए. लोग आजमगढ़ को आतंक की नर्सरी बता रहे हैं. मैं राहुल जी को यहां बुलाऊंगा.’ दिग्विजय सिंह का बयान जंगल की आग की तरह फैल गया और एक बार फिर से पूरे इलाके में तनाव का माहौल तारी हो गया. एक तरफ स्वयं पीएमओ और गृह मंत्रालय बटला हाउस एनकाउंटर को वैध ठहरा रहे थे और न्यायिक जांच कराने से इनकार कर रहे थे. यहां तक कि बटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए पुलिस अधिकारी मोहन चंद शर्मा को केंद्र सरकार ने अशोक चक्र से भी सम्मानित किया था. मगर दिग्विजय इसका बिलकुल उलटा बयान दे रहे थे. प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय के आला अधिकारियों ने उस वक्त  दिग्विजय सिंह के प्रति साफ तौर पर नाराजगी जताई थी. लेकिन दिग्विजय सिंह ने वही किया जो वे करना चाहते थे.

श्आज वे किसानों को न्याय दिलाने के लिए धरने पर बैठे हैं लेकिन मध्य प्रदेश में अपने शासनकाल में किसानों की समस्या उठाने के कारण अपनी ही पार्टी की नेता कल्पना परुलेकर को इन्होंने बार-बार जेल में ठूंसाश्

नजमा हेपतुल्ला की बात यहां तब साबित भी हो गई जब बाद में राहुल गांधी आजमगढ़ दौरे पर गए. लेकिन यह दिग्विजय सिंह के विवादित बयानों से मचने वाली हलचलों की शुरुआत थी. उन्होंने इसके कुछ ही दिनों बाद नक्सलवाद के मुद्दे पर गृहमंत्री पी चिदंबरम को बौद्धिक अहंकारी तक कह डाला जबकि प्रधानमंत्री तक ने स्पष्ट कर दिया था कि नक्सली देश के दुश्मन नंबर एक हैं. दिग्विजय सिंह का यह बयान ऐसे समय में आया जब दंतेवाड़ा में माओवादियों ने 76 सीआरपीएफ जवानों को मार दिया था. जानकारों की मानें तो एक बार फिर से दिग्विजय सिंह उसी लाइन पर चल रहे थे जिसे राजनीतिक विश्लेषक पब्लिक पॉश्चरिंग (जनता के बीच छवि निर्माण) करार देते हैं. भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार एनडी शर्मा कहते हैं, श्आज दिग्विजय नक्सलवादी नीति और छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा मानवाधिकारों के हनन की आलोचना कर रहे हैं. लेकिन वे अपना किया भूल जाते हैं. अपने समय में दिग्विजय ने राजद्रोह संबंधी कानून का जो मसविदा तैयार किया था वह इतना खतरनाक और बर्बर था कि उसके सामने छत्तीसगढ़ सरकार का वर्तमान कानून कुछ भी नहीं है. जब इस बिल को लेकर सिविल सोसायटी के लोगों ने भोपाल से लेकर दिल्ली तक विरोध किया तब जाकर दिग्गी ने उसे रद्दी की टोकरी में डाला. खुद उनके कार्यकाल में नौकरशाही और पुलिस सर्वाधिक शक्तिशाली रही.श् शर्मा आगे कहते हैं, श्आज वे किसानों को न्याय दिलाने के लिए धरने पर बैठे हैं लेकिन मध्य प्रदेश में अपने शासनकाल में किसानों की समस्या उठाने के कारण अपनी ही पार्टी की नेता कल्पना परुलेकर को इन्होंने बार-बार जेल में ठूंसा.श्

ऐसा नहीं है कि उनके बयान से पार्टी हलकों में असहजता नहीं पनपी. पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के एक सदस्य नाम नहीं छापने के अनुरोध पर कहते हैं, श्पार्टी के लगभग सभी शीर्ष नेता और मंत्री दिग्विजय सिंह के रवैये से नाराज हैं. कार्यकर्ताओं की तरफ से सबसे ज्यादा शिकायत दिग्विजय सिंह के खिलाफ आ रही है. लेकिन कार्रवाई तो अंततरू शीर्ष नेतृत्व को करनी है. जनार्दन द्विवेदी ने तो उन्हें सीधे-सीधे आगाह करते हुए कह ही दिया था कि पार्टी के घोषित प्रवक्ताओं के अलावा कोई अन्य नेता बयानबाजी न करे.श्
कार्यकर्ताओं के असंतोष का सुर पहली दफा बनारस से खुलकर सामने आया है. प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और वाराणसी मंडल के प्रवक्ता राजेश खत्री ने कुछ दिनों पहले दिग्विजय सिंह को उनके बड़बोलेपन की वजह से उत्तर प्रदेश के प्रभारी पद से हटाने की मांग की थी. खत्री बताते हैं, श्दिग्विजय सिंह, रीता जी समेत कई नेता एक शादी में हिस्सा लेने के लिए ताज होटल में इकट्ठा थे. मैं भी वहां मौजूद था. दिग्विजय सिंह ने मुझसे कहा कि कार्यकर्ताओं को जाने के लिए कहें. मैं लोगों को हटा-बढ़ा रहा था कि पीछे से उनके गनर ने आकर मुझे भी धक्का देते हुए जाने के लिए कहा. इस पर मेरे एक साथी कार्यकर्ता ने कहा कि इन्हें छोड़ दीजिए, वरिष्ठ नेता हैं और इंदिरा जी के साथ इन्होंने काम किया है. इस पर दिग्विजय सिंह मेरे पास आए और बोले- इंदिरा जी गईं और राजीव जी गए, अब आप लोग भी यहां से निकलिए. जिस अपमानजनक तरीके से उन्होंने ये बात कही थी उससे मुझे बेहद दुख हुआ. मैंने सोनिया जी से मांग की है कि ऐसे व्यक्ति को तुरंत ही पार्टी प्रभारी पद से हटाना चाहिए.श् दिग्विजय सिंह को हटाने की मांग के एक दिन बाद ही राजेश खत्री को मंडल प्रवक्ता के पद से निलंबित कर दिया गया.

हालांकि खत्री के बयान के पीछे कुछ राजनीतिक मंशाएं भी हो सकती हैं, लेकिन दिग्विजय सिंह को जानने-समझने वाले उनके इस विस्फोटक रवैये के पीछे उनके व्यक्तित्व के कई अन्य पहलुओं की भूमिका भी देखते हैं. मसलन सत्यव्रत चतुर्वेदी का बयान गौर करने लायक है, श्ऐसा लगता है कि दिग्विजय सिंह की सामंती पृष्ठभूमि अक्सर पार्टी की रीतियों-नीतियों पर हावी हो जाती है. उनके व्यक्तित्व में शामिल सामंती तत्व उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करता है.श् विशुद्ध राजनीतिक नजरिए से देखें तो पिछले दो साल के दौरान आए दिग्विजय सिंह के ज्यादातर विवादास्पद बयान उनकी राजनीतिक मजबूरी भी हैं. गौरतलब है कि उनके ज्यादातर विवादित बयान मुसलिम समुदाय पर केंद्रित रहे हैं - चाहे वह बटला हाउस का बयान हो, करकरे की हत्या पर बयान हो या फिर श्ओसामा जीश् वाला बयान. इनका सीधा लक्ष्य वे दो राज्य हैं जिनके वे प्रभारी हैं- उत्तर प्रदेश और असम. ये दोनों ही राज्य मुसलिम आबादी के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं. उत्तर प्रदेश में देश के सबसे ज्यादा मुसलमान रहते हैं तो निचले असम का बांग्लादेश से लगने वाला पूरा इलाका मुसलिम बहुल है. ऐसे में उनके बयानों के राजनीतिक निहितार्थ समझे जा सकते हैं.

श्दिग्विजय सिंह की रणनीति कांग्रेस की पुरानी रणनीति से अलग नहीं है. वे मुसलमानों को हिंदुओं का भय दिखाकर वोट हासिल करना चाहते हैं. अगर वे सच्चे हैं तो सच्चर कमेटी की सिफारिशें क्यों नहीं लागू कराते?श्

2009 के लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस पूरे देश में अपनी जीत के दावे कर रही थी, लेकिन उत्तर प्रदेश को लेकर उसकी सांस अटकी हुई थी. आखिरी वक्त तक सपा उसे गठबंधन को लेकर छकाती रही. कभी सपा सिर्फ 11 सीटें देने को राजी हुई तो कभी 18 और अंततरू 23 सीटों पर आकर मामला अटका रहा. लेकिन इसके बाद जो कुछ हुआ उसे सपा याद नहीं करना चाहती और कांग्रेस भूलना नहीं चाहती. दिग्विजय सिंह ने उत्तर प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा की थी. उनकी सोच थी कि सपा से 18 या 23 सीटों का समझौता करके वे जितनी सीटें जीतेंगे कमोबेश उतनी ही वे अकेले लड़कर भी फतह कर लेंगे. यह फैसला कैसा साबित हुआ, बताने की जरूरत नहीं. जो कांग्रेस सपा से 23 सीटें ही पा रही थी उसने अकेले 22 सीटों पर परचम फहरा दिया. जिस उन्नाव, फर्रूखाबाद, बाराबंकी और महाराजगंज सीट को लेकर सपा सबसे ज्यादा खिचखिच कर रही थी वे चारों सीटें कांग्रेस के ही खाते में गईं.

हालांकि 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के अप्रत्याशित फायदे और सपा के नुकसान की कोई सपाट व्याख्या नहीं की जा सकती. लेकिन कल्याण सिंह के पार्टी में आगमन और आजम खान के प्रस्थान ने मुसलमान वोटरों की सपा से दूरी और कांग्रेस से नजदीकी में सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी जिसका नतीजा कांग्रेस की इतनी अप्रत्याशित जीत के रूप में सामने आया. इस जीत ने दिग्विजय सिंह समेत कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत के लिए एक अहम रणनीतिक बिंदु दिया- जो मुसलमान वोटर कल्याण सिंह या दूसरे मुद्दे की वजह से सपा से कट कर कांग्रेस के पास आ गया था उसे 2012 के विधानसभा तक अपने साथ जोड़े रखना.

कांग्रेस आलाकमान की इसी सोच ने दिग्विजय सिंह को लगभग फ्रीहैंड दे दिया. अल्पसंख्यकों से जुड़े हर मुद्दे को लपकने की जल्दबाजी इसी का नतीजा है फिर चाहे इसके चलते खुद उनकी और पार्टी की किरकिरी ही क्यों न होती हो. उत्तर प्रदेश में मुसलिम राजनीति का तजुर्बा रखने वाले प्रो. खान आतिफ कहते हैं, श्दिग्विजय सिंह की रणनीति कांग्रेस की पुरानी रणनीति से अलग नहीं है. वे मुसलमानों को हिंदुओं का भय दिखाकर वोट हासिल करना चाहते हैं. अगर वे सच्चे हैं तो सच्चर कमेटी की सिफारिशें क्यों नहीं लागू कराते?श्

अपने लक्ष्य को निशाने पर रखकर दिए जाने वाले ऐसे बयानों की एक पूरी शृंखला है कि जब पार्टी या सरकार खेत की बात कर रही थी तो दिग्विजय सिंह खलिहान खंगाल रहे थे. मुंबई में 26ध्11 को हुए आतंकवादी हमले के लगभग दो साल बाद दिग्विजय सिंह ने ऐसा बयान दे डाला जिससे उनकी पार्टी और सरकार के सामने मुंह छिपाने की नौबत आ गई. मौका सहारा समय उर्दू के संपादक अजीज बर्नी की पुस्तक के विमोचन का था जहां दिग्विजय सिंह ने यह कहकर सबको चैंका दिया कि हेमंत करकरे ने अपनी हत्या के दो घंटे पहले उनसे फोन पर बात करके हिंदूवादी संगठनों द्वारा अपनी हत्या किए जाने का भय जताया था. इस एक बयान ने घर के भीतर और बाहर दोनों जगह सत्ताधारी कांग्रेस को सुरक्षात्मक मुद्रा में डाल दिया. पाकिस्तान ने दिग्विजय सिंह के बयान की आड़ में मुंबई हमलों की जिम्मेदारी से अपना पिंड छुड़ाने में कोई समय नहीं गंवाया. इधर विपक्ष ने यह कहकर सरकार का जीना मुहाल कर दिया कि दिग्विजय सिंह मुंबई हमले जैसे मामले पर तुष्टीकरण की राजनीति और एक शहीद का अपमान कर रहे हैं. विपक्ष का यह भी कहना था कि दिग्विजय ऐसा कहकर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में दुनिया के सामने भारत का पक्ष कमजोर कर रहे हैं. सिर्फ विपक्ष नहीं बल्कि दिग्विजय सिंह के सनातन शत्रु बनते जा रहे गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय में भी उनके इस बयान के प्रति गुस्से की भावना देखने को मिली.

दिग्विजय सिंह द्वारा विवादों को दावत देने में एक चतुराई भरा दिलचस्प ट्रेंड देखने को मिलता है. टारगेट ऑडिएंस (कभी-कभी किसान और ज्यादातर समय मुसलमान) के बीच वे वही बातंे करते हैं जिनसे विवाद पैदा होते हैं और जिनसे राजनीतिक हित पूरे होते हैं. बाद में इन पर सफाई देने के लिए वे उन माध्यमों का सहारा लेते हैं जो अपेक्षाकृत कम सुलभ और सीमित पहुंच वाले हैं- यानी अंग्रेजी चैनल और अखबार जिनकी पहुंच बमुश्किल पांच फीसदी और सिर्फ शहरी इलाकों तक सीमित है. इससे उन्हें अपने बयान में ज्यादा हेरफेर की मुसीबत भी नहीं उठानी पड़ती और उनका काम भी हो जाता है.

उनके बयान पार्टी को बार-बार शर्मनाक स्थिति में डाल देते हैं फिर भी उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती. इस बात का अहसास पार्टी मैनेजरों को भी है इसलिए उन्होंने बचाव के लिए बीच का रास्ता निकाल लिया है- फलां विचार पार्टी का है और फलां विचार दिग्विजय सिंह का निजी है. ताजा वाकया ग्रेटर नोएडा में चल रहे किसान आंदोलन का है. खबर है कि मनोज तेवतिया ने दिग्विजय सिंह के इशारे पर सारा बवाल रचा. बाद में एक निजी टीवी चैनल ने जब उनसे सवाल किया कि टप्पल में हुए आंदोलन के नौ महीने बाद तक केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक संसद में क्यों नहीं पेश किया तो दिग्विजय सिंह ने दो टूक कहा, श्हमने तो पेश कर दिया था लेकिन ममता बनर्जी को इससे थोड़ी दिक्कत थी. अब विधानसभा चुनाव निपट गए हैं तो उम्मीद है कि अगले सत्र में हम इसे पास करवा लेंगे.श् कानून पास न हो पाने के लिए दिग्विजय सिंह ने जो बहाना बनाया शायद उसी विधानसभा चुनाव की गहमागहमी दिग्विजय सिंह की ढाल भी बन गई. न तो ममता बनर्जी का ध्यान उनके बयान पर गया न ही मीडिया का. वरना इसके निहितार्थ भी कई थे मसलन किसानों-मजदूरों के आंदोलन पर राजनीति खड़ी करने वाली ममता ने सिर्फ चुनाव तक के लिए इस विधेयक को रोका था और चुनाव जीतने के बाद उन्हें इससे कोई मतलब नहीं. या फिर एक सहयोगी के दबाव में कांग्रेस ने किसानों के लिए इतने महत्वपूर्ण कानून को महीनों तक लटकाए रखा. अगर यह बात तूल पकड़ लेती तो जनता और मीडिया को दिग्विजय सिंह के एक और अटपटे बयान के साथ कांग्रेस-तृणमूल की  धींगामुश्ती का एक और रोमांचक दौर देखने को मिल जाता.

पार्टी के भीतर तमाम विरोधियों के बावजूद उन्हें एक कोने से समर्थन भी मिल रहा है. वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर उनके इस बर्ताव को पार्टी के भीतर स्वस्थ लोकतांत्रिक वातावरण से जोड़ते हैं जिसके बारे में स्वयं राहुल गांधी मान चुके हैं कि उनकी पार्टी में लोकतंत्र का अभाव है. अय्यर के शब्दों में, श्मैं भी उनके जैसी ही बातें करता हूं पर मेरे साथ कभी कोई विवाद नहीं होता. जो बातें दिग्विजय सिंह कर रहे हैं, मैं उनका पूरा समर्थन करता हूं और मैं हमेशा उनके मुद्दों के साथ खड़ा रहूंगा. ये एक विविध विचारों से भरपूर लोकतांत्रिक पार्टी का सबूत है.श्

दिग्विजय सिंह यह सब गांधी-नेहरू परिवार के समर्पण और वफादारी में  किए जा रहे हैं या यह सब कुछ वे पार्टी की भलाई के लिए कर रहे हैं, उनकी अपनी कोई महत्वाकांक्षा नहीं- यह नजरिया स्थितियों का एकतरफा विश्लेषण होगा. अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में मध्य प्रदेश के मंत्रिमंडल में दिग्विजय सिंह के साथ काम कर चुके एक नेता बताते हैं, श्मेरा अपना आकलन है कि दिग्विजय सिंह के अंदर महत्वाकांक्षा की कमी कभी नहीं रही, बल्कि इस मामले में वे अपने समकालीन नेताओं से कई कदम आगे हैं.श् नजमा हेपतुल्ला इस विषय को और तफसील से बयान करती हैं, श्दिग्विजय सिंह बहुत चालाक और महत्वाकांक्षी हैं. उन्हें इस बात का अहसास है कि राहुल गांधी की राजनीतिक सोच की एक सीमा है जिसके पार वे जा नहीं सकते. इसी सीमा का फायदा वे उठा रहे हैं. भविष्य में राहुल गांधी को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा.श्

इस लिहाज से वे पीड़ित और अप्रासंगिक न हो जाएं, इस चिंता से दिग्विजय सिंह भरे नजर आते हैं. पीड़ित इस संदर्भ में कि अपनी तमाम योग्यताओं और क्षमताओं के बावजूद उन्हें पता है कि जिस पार्टी में वे हैं उसमें ऊपर जाने की सीढ़ियां अंतहीन नहीं हैं, एक ऊंचाई पर पहुंचकर वे खत्म हो जाती हैं और दिग्विजय सिंह उस सीमा को लगभग छू चुके हैं. दो बार मुख्यमंत्री बन जाने के बाद एक केंद्रीय मंत्री या फिर राज्यपाल जैसा प्रतीकात्मक पद ही अब उन्हें मिल सकता है. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एनवी सुब्रमण्यम के शब्दों में, श्दिग्विजय सिंह कांग्रेस पार्टी की वंशवादी राजनीति के क्लासिक शिकार है.श्

चिंता इस संदर्भ में कि 2013 में उनका खुद पर थोपा गया चुनावी वनवास खत्म होने जा रहा है. ऐसे में अगर वे अभी से खबरों में नहीं रहे तो मौके पर अंगूठा दिखाने वालों की राजनीति में कमी नहीं है. इस मामले में उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह वाली गलती न दोहराने का फैसला कर लिया है. अपने दोस्तों के बीच में दिग्विजय सिंह अक्सर कहते हैं, श्अगर मैं विवादित बयान नहीं दूंगा तो जल्द ही मैं लोगों की निगाह से ओझल हो जाऊंगा.श्

100 करोड़ रुपये में राज्‍यसभा सांसद की कुर्सी!



संसद के उच्‍च सदन राज्‍यसभा का सांसद कैसे बना जाता है, इस पर सवालिया निशान खड़ा हो गया है? क्‍या राज्‍यसभा की सदस्‍या खरीदी जाती है? हरियाणा के एक कांग्रेसी नेता की मानें तो राज्‍यसभा का सासंद बनने के लिए काबिलियत नहीं, बल्कि जेब में करोड़ों रुपये होने चाहिए।

दरअसल, हरियाणा के दिग्‍गज नेता बीरेंद्र सिंह ने अपनी भड़ास निकालने हुए दावा किया है कि लोग राज्‍यसभा के सासंद बनने के लिए 100 करोड़ रुपये खर्च कर रहे हैं। यह दावा कर नेता जी ने अपनी ही पार्टी के नेताओं पर हमला कर दिया है। लेकिन बीरेंद्र सिंह आखिर अपनी ही पार्टी के दिग्‍गज नेताओं पर भ्रष्‍टाचार की आरोप क्‍यों लगा रहे हैं? इसका जवाब भी उन्‍हीं के बयान से साफ हो जाता है। वह बताते हैं, रेल मंत्री की कुर्सी सिर्फ योग्यता पर नहीं, बल्कि दान से मिलती है। पिछली बार मेरा रेल मंत्री बनना तय था, लेकिन आखिरी मौके पर पत्ता साफ हो गया।' उन्होंने इशारों ही इशारों में कहा कि गोल करने ही वाला था कि रेफरी ने सीटी बजा दी।

इस मौके पर चौधरी ने कहा कि मुझसे एक व्यक्ति ने कहा कि राज्यसभा सांसद बनने के लिए मेरा बजट 100 करोड़ रुपये का था, लेकिन मेरा काम 80 करोड़ रुपये में ही हो गया। मैंने 20 करोड़ रुपये बचा लिए। हालांकि, यहां भी उन्होंने उस व्यक्ति का नाम नहीं बताया। चौधरी के इस बयान पर कांग्रेस सांसद पी.एल. पूनिया ने कहा कि राज्यसभा में जो लोग आते हैं वे अपनी समाजसेवा के दम पर आते हैं। उनमें से बहुत से तो ऐसे होते हैं कि 1 लाख रुपया तक नहीं दे सकते, 100 करोड़ की तो दूर की बात है।

बता दें कि चौधरी बीरेंद्र सिंह लम्बे समय से हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुडा की राजनीति को कमजोर करने में जुटे हुए हैं। लेकिन शायद कोई बड़ा पद न मिलने के कारण उनका सब्र का बांध गया है। जानकारों की मानें तो बीरेंद्र के बगावती तेवर देख लगता है कि वह कुछ बड़ा फैसला लेने के मूड में हैं। 

सबसे ज्‍यादा फायदा बीजेपी को

देश के पांच राज्‍यों में विधानसभा चुनाव नजदीक हैं, ऐसे में भारतीय जनता पार्टी ने एक बार फिर 2013 में ही लोकसभा चुनावों की संभावना जताई है। इस बार यह संभावना लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्‍वराज ने जताई है। हाल ही में लालकृष्‍ण आडवाणी ने भी कुछ ऐसी ही संभावना व्‍यक्‍त की थी। दिल्ली में बीजेपी महिला कार्यकर्ता सम्मेलन को संबोधित करते हुए लोकसभा में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज ने संभावना जताई कि हो सकता है कि  मिशन 2014 -मिशन 2013 में बदल जाए। सुषमा ने दावा किया कि देश के हालात को देख कर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आमचुनाव इसी साल हो जाएं।

यहां सुषमा ने कहा, 'सत्‍तारूढ़ यूपीए सरकार अपना कार्यकाल पूरी करेगी इसे लेकर हर किसी में संदेह बना हुआ है। ऐसे में लोकसभा चुनाव जल्द होने की पूरी संभावना है। हालांकि अगामी लोकसभा चुनाव कभी भी हों, इस बार बीजेपी की ही सरकार बनेगी। इस समय देश में हवा का रुख बीजेपी के पक्ष में है।' बता दें कि बीजेपी के लगभग सभी बड़े नेता यह संभावना जता चुके हैं कि देश में आम चुनाव 2013 में ही हो सकते हैं। हाल ही में आडवाणी ने भी कहा था कि देश की स्थिति को देखकर लगता है कि जल्‍द ही आम चुनाव हो सकते हैं। इसके साथ ही उन्‍होंने बीजेपी के कार्यकर्ताओं को आम चुनावों के लिए तैयार रहने के लिए कहा था। अब सुषमा स्‍वराज ने भी यह संभावना जता दी है कि लोक सभा चुनाव इसी साल हो सकते हैं।

अगर देश में 2013 में लोक सभा चुनाव होते हैं, तो इसका सबसे ज्‍यादा फायदा बीजेपी को होगा, चुनावों से जुड़े तमाम रुझान इस ओर इशारा करते हैं। रुझान तो इस ओर भी इशारा करते हैं कि अगर अगस्‍त में ही लोक सभा चुनाव हो जाते हैं तो सत्‍ता बीजेपी के हाथ में आ सकती है। उधर कांग्रेस को 2013 में लोकसभा चुनाव होने से नुकसान होने की बहुत ज्‍यादा संभावना है। इसीलिए कांग्रेस नहीं चाहती कि देश में जल्‍द आम चुनाव हों। कांग्रेस इस समय अपनी छवि को सुधारने में लगी हुई है, क्‍योंकि पिछले कुछ समय में भ्रष्‍टाचार कई मामले सामने आए हैं।

वोट बैंक की राजनीति कर रही है कांग्रेस



कांग्रेस पर वोट बैंक की राजनीति करने का आरोप लगाते हुए भाजपा ने सोमवार को कहा कि सत्ताधारी पार्टी के इसी दृष्टिकोण के कारण देश की सुरक्षा चिन्ता का विषय बन गयी है और राष्ट्र असहाय हो गया है।

मुख्य विपक्षी दल ने कहा कि कांग्रेस नेताओं ने वोट बैंक राजनीतिक के लिए बटला हाउस मुठभेड को लेकर संदेह व्यक्त करते हुए बयानबाजी की लेकिन अब वह मुठभेड सही निकली।

राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली ने पार्टी की महिला मोर्चा की बैठक में आज कहा कि जब तक कांग्रेस देश की सुरक्षा को सुरक्षा मुद्दे से जोडकर इसे वोट बैंक की राजनीति से अलग नहीं कर देती, तब तक देश की सुरक्षा चिन्ता का विषय बना रहेगी।

उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी देश की सुरक्षा को सुरक्षा मुद्दे से नहीं जोड रही है बल्कि इसे वोट बैंक राजनीति से जोड रही है। जेटली ने कहा कि संप्रग सरकार ने देश को असहाय कर दिया है। कमजोर बना दिया है। यहां तक कि छोटे राष्ट्र भी भारत को आंखें दिखा रहे हैं।

उन्होंने बटला हाउस मुठभेड में मारे गये या आरोपियों के परिजनों से सहानुभूति व्यक्त करने के लिए कांग्रेस नेताओं की उनसे मुलाकात पर सवाल उठाये। जेटली ने कांग्रेस नेताओं से ये सवाल भी किया कि क्या वे मुठभेड में शहीद हुए पुलिस वालों के परिजनों से कभी मिलने गये।

जेटली ने कहा कि देश की सुरक्षा की स्थिति ऐसी है कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार की नीतियों के कारण देश असुरक्षित महसूस कर रहा है।

Saturday, 27 July 2013

दिग्विजय सिंह मानसिक तौर पर बीमार हैं

मीनाक्षी नटराजन बोलीं- दिग्विजय सिंह ji ने मेरी तारीफ में कहा था मुझे 'टंच माल'..

वाह ! मीनाक्षी जी ! लगता है लोलीपोप बाबा का सन्देश आप तक पहुँच गया है..की खुद ही पर्दा ढँक दो ....


जब आपको तारीफ में टंच माल कहलाना पसंद है तो जय हो आपकी और जय हो कांग्रेसी प्रेमियों की..


शकल से बेहद शालीन दिखने वाली मीनाक्षी जी आप काश शब्दों की शालीन मर्यादा समझती तो कुछ अन्य के लिए उदहारण कायम कर पाती.


ठीक बात है महिलाएं ही दोषी होती है ज्यादातर मामलों में खुद की प्रतिष्ठा गिराने में.


लो जी, दिग्विजय अंकल जी आपकी तो मौज हो गयी..
जय हो ...

Friday, 26 July 2013

बीजेपी की रणनीति से सपा में बेचैनी



गुजरात के मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी की चुनाव अभियान समिति के प्रमुख नरेंद्र मोदी के उत्तर प्रदेश से लोकसभा चुनाव लड़ने की अटकलों और उनके करीबी अमित शाह को प्रदेश प्रभारी बनाए जाने से समाजवादी पार्टी में बेचैनी है। उत्तर प्रदेश में 50 सीटें जीतने का ख्वाब देख रही सपा को अब 'मोदी फैक्टर' के कारण मिशन पूरा होने में थोड़ी बाधा दिखाई दे रही है।
गुजरात में तीन बार मुख्यमंत्री बनने वाले नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रबंधन की कमान उनके खास सिपहसालार अमित शाह ने संभाली थी। अब शाह उत्तर प्रदेश में भाजपा के प्रभारी बनकर विभिन्न क्षेत्रों का दौरे कर रहे हैं और लोकसभा चुनाव के मद्देनजर पार्टी संगठन को धार देने में जिस ढंग से जुटे हैं, उससे सपा खेमे में बेचैनी है।
कल तक भाजपा को चौथी नंबर की पार्टी बताकर उस पर कोई टिप्पणी करने में परहेज करने वाले सपा नेता अब भाजपा पर ज्यादा हमले कर रहे हैं। सपा के इस बदले हुए रुख से लगता है कि वह अब लोकसभा चुनाव में भाजपा को ही अपना सबसे प्रमुख प्रतिद्वंदी मान रही है।
सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव से लेकर प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव और पार्टी के अन्य नेताओं को अब यह प्रचारित करने की जरूरत महसूस हो रही है कि मोदी फैक्टर का उत्तर प्रदेश में कोई असर नहीं होगा। कैबिनेट मंत्री और सपा के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी कहते हैं कि मोदी और शाह सांप्रदायिक हैं और ये उत्तर प्रदेश में लोगों को बहकाकर सांप्रदायिक माहौल तैयार करने की कोशिश में जुटे हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश की जनता ऐसे लोगों को सबक सिखा देगी।
उन्होंने कहा कि भाजपा जिस मकसद से मोदी और उनके सिपहसालार को उत्तर प्रदेश में सक्रिय कर रही है, वह पूरा नहीं होगा और उसे लोकसभा चुनाव में दहाई का आंकड़ा भी नहीं मिलेगा। सपा संसदीय बोर्ड के एक सदस्य ने आईएएनएस से कहा कि नरेंद्र मोदी के उत्तर प्रदेश में सक्रिय होने से पहले अमित शाह जमीन तैयार कर रहे हैं। मोदी के आने से उत्तर प्रदेश में मतों का ध्रुवीकरण होना लगभग तय है। ऐसे में आशंका है कि ध्रुवीकरण का सबसे ज्यादा लाभ भाजपा को ही मिलेगा।
बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में सपा को लगता है कि अगर वह पिछड़ा वर्ग और मुस्लिम को अपने साथ रख पाने में सफल रही तो उसे बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस की तुलना में सबसे कम नुकसान होगा। सूत्रों के मुताबिक, राज्य की आबादी में करीब 52 फीसदी की हिस्सेदारी वाले पिछड़ा वर्ग को लुभाने की रणनीति के तहत हालिया मंत्रिमंत्रिमंडल विस्तार में सपा नेतृत्व ने पिछड़ा वर्ग के दो नेताओं को कैबिनेट मंत्री बनाया और इसी वर्ग के एक राज्यमंत्री को प्रोन्नति देकर स्वतंत्र प्रभार सौंपा गया।
पिछले विधानसभा चुनाव में भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में बंद पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा को मुद्दा बनाने वाली सपा द्वारा उनके कुनबे को पार्टी में शामिल करने के पीछे पिछड़ा वर्ग को गोलबंद करने की ही रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है। सपा सूत्रों के मुताबिक, सरकार बनने के बाद से मुस्लिमों को लुभाने के लिए विभिन्न योजनाएं चलानी वाली वाली अखिलेश सरकार आने वाले दिनों में अपने इस वोटबैंक को लुभाने के लिए कुछ और अहम फैसले ले सकती है।
उधर, भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक कहते हैं कि अमित शाह के नेतृत्व में जिस तरह से उत्तर प्रदेश में भाजपा ने सपा सरकार की तुष्टिकरण नीतियों की पोल खोलना शुरू किया है, उससे सपा की सारी सच्चाई लोगों के सामने आ रही है। पाठक ने कहा कि पिछले कुछ समय से जनता के सरोकारों के लिए सड़क पर संघर्ष करने वाली पार्टियों में भाजपा सबसे आगे रही है। जिस तरह उसे जनसमर्थन मिल रहा है उससे सपा का भयभीत होना स्वभाविक है।

उत्तर प्रदेश में बीजेपी सब पर भारी



अगर इस वक्त आम चुनाव हो जाएं तो उत्तर प्रदेश में किस पार्टी का जलवा होगा, IBN7 के लिए CSDS के विशेष ओपिनियन पोल में प्रदेश में बीजेपी का कमल खिलता नजर आ रहा है। सर्वे कहता है कि भारत के दिल माने जाने वाले इस प्रदेश में बीजेपी अपनी लोकसभा सीटें तीन गुनी तक बढ़ा सकती है। जबकि मुलायम की समाजवादी पार्टी हो या मायावती की बीएसपी, किसी को भी फायदा नहीं मिलने जा रहा है। वहीं कांग्रेस को भी ग्रहण लग सकता है।
मुलायम और माया तो अपनी पार्टियों के अध्यक्ष हैं वहीं नरेंद्र मोदी बीजेपी के तो राहुल कांग्रेस के स्टार चेहरे हैं। आखिर वो प्रदेश किस विचारधारा या पार्टी को तवज्जो देगा जो देश की संसद में सबसे ज्यादा सांसदों को चुन कर भेजता है। कहते हैं जिसने उत्तर प्रदेश जीत लिया उसने देश पर हमेशा ही राज किया है तो अगर आम चुनाव इस वक्त हो जाएं तो प्रदेश में किसका डंका बजेगा।
IBN7 के लिए CSDS ने एक अहम ओपनियन पोल किया। सर्वे के नतीजे दो बातें साफ बता रहे हैं पहला ये कि एक साल के भीतर ही अखिलेश सरकार ने अपनी लोकप्रियता गंवा दी है। दूसरा समाजवादी पार्टी को नुकसान तो सीधा फायदा बीजेपी का। प्रदेश में कमल खिलने को बेताब है।
वोट शेयर का चौंकाने वाला आंकड़ा
-सबसे आगे है बीजेपी। नरेंद्र मोदी के मोदित्व में डूबी इस पार्टी को 27 फीसदी वोट मिल सकते हैं। पिछली बार के मुकाबले 9 फीसदी ज्यादा वोट।
-वहीं राज्य में मौजूदा सरकार चला रही समाजवादी पार्टी को 22 फीसदी वोट मिल सकते हैं। पिछली बार के मुकाबले 1 फीसदी कम।
-वहीं मायावती की बीएसपी को भी 21 फीसदी तक वोट नसीब हो सकते हैं। ये वोट भी पिछली बार के मुकाबले 1 फीसदी कम हैं।
-प्रदेश में दोबारा खड़ा होने की पुरजोर कोशिश में लगी कांग्रेस 16 फीसदी वोट पा सकती है। पिछली बार पार्टी को 2 फीसदी ज्यादा वोट मिले थे।
-अजित सिंह की आरएलडी सिर्फ 1 फीसदी वोट ही पा सकती है। पिछली बार के मुकाबले उसका वोटबैंक 2 फीसदी घट सकता है।
-वहीं अन्य और निर्दलीयों के वोट 3 फीसदी तक बढ़ सकते हैं। इस बार 13 फीसदी तक वोट पड़ सकते हैं।
तो क्या ज्यादा वोट ज्यादा सीटों में तब्दील होंगे। आखिर उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा की सीटों में कौन कितनी ले जा सकता है। हमारे सर्वे के मुताबिक अगर अभी चुनाव हों तो बीजेपी उत्तर प्रदेश में 29 से 33 सीटें तक जीत सकती है। 2009 की 10 सीटों के मुकाबले पार्टी तीन गुना ज्यादा सीटें जीत सकती हैं।
सपा को 17-21 सीटें
वहीं सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी को 17 से 21 सीटें तक मिल सकती हैं। 2009 में पार्टी को प्रदेश से 22 लोकसभा सीटें हासिल हुई थीं, यानि नुकसान। बीएसपी का हाथी 14-18 सीटें झटक सकता है, जबकि पिछली बार उसे 20 सीटें मिली थीं, यानि नुकसान। कांग्रेस को सिर्फ 11 से 15 सीटें मिलने के आसार हैं, जबकि पिछले आम चुनाव में राहुल गांधी के ताकत लगाने से पार्टी को 22 सीटें मिली थीं, यानि तगड़ा नुकसान। आरएलडी को 2 सीटें मिल सकती हैं। पिछली बार पार्टी का खाता तक नहीं खुला था।
चमक खो रही है कांग्रेस
हमारा सर्वे साफ कह रहा है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस चमक खोती दिख रही है, वहीं बीजेपी चमक पाती नजर आ रही है। समाजवादी पार्टी का जलवा-जलाल ढलान पर आ सकता है। 26 फीसदी लोग ही अखिलेश सरकार को बेहतर मान रहे हैं।
जबकि 29 फीसदी का कहना है कि माया सरकार बेहतर है। लेकिन मुलायम के लिए अच्छी खबर ये है कि 46 फीसदी मुस्लिम अखिलेश सरकार से संतुष्ट हैं तो अन्य पिछड़ा वर्ग के 30 फीसदी वोटर भी राज्य सरकार से संतुष्ट हैं।
सपा से नाराजगी क्यों?
सवाल है कि ये नाराजगी क्यों है। इसकी पड़ताल के लिए हमने अलग-अलग मुद्दों पर जनता की राय मांगी। जहां तक रोजगार के मौकों का सवाल है 41 फीसदी लोग कहते हैं कि कोई बदलाव नहीं लेकिन 30 फीसदी का मानना है कि रोजगार दरअसल घटे हैं। हत्या, अपहरण और अपराध के बारे में 45 फीसदी का कहना है कि ये भी बढ़े हैं। 32 फीसदी लोगों का कहना है कि प्रदेश में जातिगत हिंसा बढ़ी है हालांकि, 44 फीसदी के मुताबिक इसमें बदलाव नहीं आया। 51 फीसदी लोगों का कहना है कि यूपी में गुंडागर्दी बढ़ी है। जहां तक हिंदु मुस्लिम भाई-चारे का सवाल है तो 54 फीसदी उसमें कोई बदलाव नहीं देखते। विकास की रफ्तार में भी 42 फीसदी लोग कोई बदलाव नहीं देख रहे हैं
क्या मुलायम को मिले कमान?
एक अहम सवाल ये भी कि अखिलेश हो मुख्यमंत्री या फिर मुलायम। ज्यादातर पुत्र के मुकाबले अनुभवी पिता को ही सत्ता में देखना चाहते हैं। 53 फीसदी चाहते हैं कि मुलायम संभालें यूपी की कमान। 67 फीसदी समाजवादी पार्टी समर्थक भी मुलायम को ही मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं। 66 फीसदी यादव वोटरों की राय में मुलायम ही बनें मुख्यमंत्री, 49 फीसदी मुसलमान भी मुलायम को ही सीएम देखना चाहते हैं।
सुशासन में बीजेपी को ज्यादा वोट
हमने सवाल पूछा कि किस पार्टी में है सुशासन और अपराध रोकने का दम तो कांग्रेस को 13 फीसदी लोग सुशासन और 11 फीसदी अपराध रोकने में कामयाब मानते हैं। जबकि बीजेपी को 28 फीसदी सुशासन और 25 फीसदी अपराध नियंत्रण में कामयाब मानते हैं। वहीं समाजवादी पार्टी को 16 फीसदी लोग ही सुशासन के काबिल मानते हैं और अपराध नियंत्रण में सिर्फ 12 फीसदी।
जाहिर है बीजेपी को नंबर ज्यादा मिले हैं। चाहे वोट प्रतिशत हो या फिर सीटें या फिर सुशासन और अपराध रोकने में सक्षम पार्टी। सर्वे बताता है कि उत्तर प्रदेश में बीजेपी की हवा चल सकती है। तो क्या इस हवा के केंद्र में नरेंद्र मोदी हैं या हो सकते हैं ? कम से कम पार्टी तो यही दावा करेगी और विपक्ष इसे काटेगा।

Thursday, 25 July 2013

दिग्विजय देश से मांगें माफी



 भाजपा ने आज कहा कि बटला हाउस मुठभेड़ संबंधी अदालत के आज के फैसले से साबित हो गया है कि यह फर्जी मुठभेड़ नहीं थी और इसके बारे में दुष्प्रचार करने के लिए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह को देश से माफी मांगनी चाहिए. मुख्य विपक्षी दल के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने यहां कहा, ‘‘दिग्विजय सिंह को समझना चाहिए कि अदालत उनसे सहमत नहीं है. कांग्रेस के नेताओं को फर्जी बयान देने की आदत हो गई है. हर चीज में गुमराह करते हैं.’’  उन्होंने कहा, बटला हाउस मुठभेड़ को फर्जी बताना विशुद्ध रुप से वोट बैंक की राजनीति का हिस्सा थी. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पर व्यंग्य करते हुए जोशी ने कहा, ‘‘दिग्विजय जी को एक समझदार व्यक्ति के नाते देश से अब कहना चाहिए कि मैंने जो कहा था, वह गलत कहा था.’’अदालत ने आज अपने फैसले में उक्त घटना में इंस्पेक्टर एम. सी. शर्मा पर गोली दागने के लिए मुख्य अभियुक्त और इंडियन मुजाहिदीन के संदिग्ध आपरेटिव शहजाद अहमद को दोषी करार दिया है. गोली लगने से शर्मा का बाद में निधन हो गया था. भाजपा के अन्य नेता रविशंकर प्रसाद ने कहा कि अदालत का यह निर्णय आतंकवाद से लड़ रहे सुरक्षा बलों के मनोबल को बढ़ाने में दूरगामी परिणामों वाला साबित होगा. उन्होंने कहा, ‘‘विचित्र स्थिति बन गई थी. एक ओर सरकार ने शहीद एम. सी. शर्मा को उनकी बहादुरी के लिए सम्मानित किया और दूसरी ओर सत्तारुढ़ कांग्रेस के ही नेता इस मुठभेड़ की सत्यता पर सवाल उठा रहे थे.’’  प्रसाद ने कहा कि अदालत द्वारा शहजाद को दोषी पाए जाने पर इंस्पेक्टर शर्मा की आत्मा को शांति मिलेगी.

है दम तो समय से पहले कराए चुनाव



दिल्ली दरबार से लेकर व्हाइट हाउस तक नरेंद्र मोदी को लेकर झगड़े की गूंज है। लेकिन मोदी का सरकार के खिलाफ हमला जारी है। अहमदाबाद में उन्होंने एक बार फिर कांग्रेस के खिलाफ़ हमला बोला। मोदी ने चुनौती दी कि अगर यूपीए सरकार में दम है तो वो वक्त से पहले आम चुनाव करवाकर दिखाए। अपने भाषण में मोदी ने नेहरू से लेकर मनमोहन तक की आर्थिक नीतियों तक को कोसा। पंडित नेहरू के जिन नीतियों की तारीफ करते कांग्रेसी अघाते नहीं उन्हीं में नरेंद्र मोदी ने सरेआम खोट निकाल दिया।

बयान देने में महारथी मोदी इस बात को कहते हुए तनिक भी नहीं हिचके और तो और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के 6 महीने पुराने बयान की भी बखिया उधेड़ी दी। बीजेपी के इलेक्शन कैप्टन ने जब इतना कुछ कहा तो वो चुनाव पर कहना कैसे चूकते। खैर, 2014 के चुनाव के नतीजे कैसे और क्या होंगे अभी से इसपर कहना मुमकिन नहीं है। मगर जहां तक सवाल मोदी का है उन्हें ये बात याद रखनी होगी कि इस बार दांव पर उनका भी बहुत कुछ है।

5 और 12 रुपये में भरपेट खाना ?



योजना आयोग की तरफ से गरीबी के नए आंकड़े पेश किए जाने के बाद कांग्रेस इसे सही ठहराने की पुरजोर कोशिश में है। दिन भर की गुजर के लिए 33 रुपये को पर्याप्त बताने वाले योजना आयोग की दलीलों को कांग्रेस सही ठहराने पर तुले हैं। इसे लेकर बीजेपी के हमले के बाद कांग्रेस प्रवक्ता राज बब्बर ने चैलेंज किया है कि 33 रुपये पर्याप्त हैं। राज बब्बर ने ब्रीफिंग में सवालों के जवाब में दलील देते हुए समझाने की कोशिश की कि कीमतों में इजाफे के बावजूद गरीबी घटी है। राज बब्बर ने कहा कि मैं मुंबई जैसे शहर में 12 रुपये में भरपेट खाना खा सकता हूं। वो भी बड़ा पाव नहीं, बल्कि चावल, दाल और सांभर।
उधर, कांग्रेस नेता रशीद मसूद ने भी कुछ ऐसा ही दावा किया। मसूद ने कहा कि दिल्ली में तो पांच रुपये में भरपेट खाना खाया जा सकता है। मसूद ने कहा कि मुंबई का तो मुझे पता नहीं, लेकिन दिल्ली में जामा मस्जिद के नजदीक पांच रुपये में खाना मिल जाता है। उधर, भारतीय जनता पार्टी ने इसे गरीबों के साथ मजाक करार दिया है। बीजेपी का कहना है कि ऐसे बयानों से पता चलता है कि सरकार की गरीबी की परिभाषा महंगाई की असलियत से कितनी दूर है। कांग्रेस नेताओं के ऐसे बयानों ने बीजेपी को हमले का और मौका दे दिया है।
बता दें कि योजना आयोग ने यूपीए सरकार के कार्यकाल में देश में गरीबी का आंकड़ा 22 फीसदी घटने का दावा किया था। आयोग ने पेट पालने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 28 रुपये और शहरी क्षेत्रों के लिए 33 रुपये प्रतिदिन को पर्याप्त बताया था। इसी को सही साबित करने के लिए कांग्रेस के नेताओं की तरफ से बयानों का दौर चल रहा है।

Tuesday, 23 July 2013

कांग्रेस का राजनीतिक आचरण ठीक नहीं



राजनाथ सिंह 'सूर्य'

हमारा दावा था कि राजनीतिक आजादी अधूरी है जब तक आर्थिक आजादी नहीं आ जाती। आर्थिक गुलामी के कारण हमारी राजनीतिक आजादी भी खतरे में पड़ गई है, यह अंतर्राष्ट्रीय मामलों में हमारी सरकार के व्यवहार से स्पष्ट है। वित्त मंत्री भी मदद मांगने के लिए अभी तो सिर्फ अमेरिका में ही घूम रहे हैं, कल कहां कहां जायेंगे इसका अनुमान लगाया जा सकता है। कुशासन का हाल यह है कि भारत सरकार का एक मंत्रालय यह भी नहीं जानता कि दूसरा मंत्रालय क्या कर रहा है। भूटान को गैस आपूर्ति के मामले में तेल और विदेश मंत्रालय के बीच विवाद इसका नवीनतम उदाहरण है।

कांग्रेस भी यही कर रही है। सोनिया गांधी द्वारा कुछ वर्ष पूर्व 'मौत का सौदागर' की टिप्पणी के बाद कांग्रेस विरोधी भाजपा को झूठा नीच कहते कहते अब बच्चा बच्चा राम का... की अभिव्यक्ति पर उतर आई है। यह वह कांग्रेस है जिसने अपनी महिला मुवक्किल के चीरहरण प्रयास का प्रकरण सामने आने पर एक प्रवक्ता का न केवल उस पद से हटा दिया था बल्कि लोकपाल संबंधी संसदीय समिति के अध्यक्ष पद से भी इस्तीफा दिलवा दिया था। उस घृणित घटना के पटाक्षेप होने में सभी ने भलाई समझी इसलिए कुछ महीने बाद उस नेता को फिर से प्रवक्ता के रूप में टेलीविजन पर पेश किए जाने पर भी किसी ने सवाल नहीं उठाए। क्योंकि सभ्य समाज में इस प्रकार की घटनाओं को चर्चाहीन रखना ही श्रेयस्कर माना जाता है। लेकिन भाजपा द्वारा अपने एक मंत्री को किसी ऐसी ही घटना के कारण मंत्री पद और पार्टी दोनों से निकाल दिए जाने के बाद जेल भेज दिया गया। फिर भी कांग्रेस ने मध्य प्रदेश विधानसभा में अपने नेताओं से और केंद्रीय स्तर पर दिग्विजय सिंह द्वारा जैसी प्रतिक्रिया व्यक्त कराई है वह गलत है।

इस संदर्भ में एक और तथ्य का संज्ञान लेना आवश्यक है। केंद्रीय मंत्री और कांग्रस नेता रहमान खान ने कहा है कि वह मुस्लिम युवकों को आतंकवादी होने के फर्जी आरोप में गिरफ्तार किए जाने पर चिंतित हैं और प्रधानमंत्री के लिए एक ज्ञापन तैयार कर रहे हैं कि बिना मुकदमा चलाये इन युवकों की जल्द रिहाई की जाये। शायद उन्हें उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव की सरकार द्वारा 'आतंकी' घटना को अंजाम देने के आरोपियों से मुकदमा वापिस लेने के प्रयास से प्रेरणा मिली हो। लेकिन क्या उनका प्रयास सफल हो पाया। जानते हुए भी कि जो मामला अदालत में है उसके चलते रहने या समाप्त होने का निर्णय केवल न्यायालय ही कर सकता है, मुस्लिम मतदाताओं को गुमराह करने के लिए ऐसा प्रयास किया गया था। जो हश्र अखिलेश के प्रयास का हुआ वही रहमान के प्रयास का भी होने वाला है, इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या केवल मुस्लिम युवक ही 'फर्जी' मामलों में बंद हैं कोई हिंदू नहीं बंद है? तो सरकारी तौर पर केवल मुसलमानों के लिए ऐसा प्रयास क्यों?

यह बात सर्विवदित है सबसे अधिक आतंकी होने के आरोप में लोग महाराष्ट्र में ही बंद हैं जो एकमात्र राज्य है जहां 'मकोका' के तहत किसी को भी अनिश्चितकाल के लिए न्यायालीय सुविधा से वंचित रखा जा सकता है। पोटा कानून हटाने के बाद केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र का मकोका कायम रहने दिया तथा किसी भी अन्य राज्य को ऐसा कानून बनाने की मंजूरी देने से इंकार कर दिया।

Our heartiest congratulation to Mr. Nitin Gadkari for becoming In-Charge of Delhi and Rajsthan election



Today BJP announces Nitin Gadkari as in-charge of Delhi and Rajsthan Election. 

भाजपा को मोदी से करिश्मे की आस



प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा की ओर से नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी का सवाल भारत के मौजूदा चुनावी बहस में बेहद अहम हो गया है. ऐसे वक्त में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह इशारों में मोदी की उम्मीदवारी का एलान करें, वह भी अमेरिका की धरती से, तो उसके निहितार्थ समझे जाने चाहिए.

अमेरिका में राजनाथ सिंह का यह कहना काफी मानीखेज है कि मोदी इस समय देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं और वे सिर्फ गुजरात में ही नहीं, बल्कि तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार में भी भीड़ जुटाने में समर्थ हैं. इसका पहला संदेश तो यही है कि भाजपा का एक बड़ा धड़ा मोदी को सबसे कद्दावर नेता मानता है और उनके नेतृत्व में चुनावी नैया पार कर लेने का उसे पूरा यकीन है.

दूसरी बात यह है कि भाजपा मोदी की दावेदारी के सवाल को सिर्फ भारत की धरती तक नहीं, बल्कि विदेशी धरती तक भी ले जाना चाहती है. भाजपा को संभवत: इस बात का एहसास है कि गुजरात दंगों के बाद भारत से बाहर मोदी को लेकर एक तरह से अस्पृश्यता की भावना उनकी चुनावी संभावनाओं पर नकारात्मक असर डाल सकती है.

शायद यही वजह है कि राजनाथ ने अमेरिका में न सिर्फ मोदी की शान में कसीदे पढ़े, बल्कि मोदी पर लगे वीजा प्रतिबंधों को हटाने की मांग भी की. ऐसा करते हुए राजनाथ विदेशों में रहनेवाले उस भारतीय डायस्पोरा को भी साधने की कोशिश कर रहे थे, जो वाइब्रेंट गुजरात जैसे आयोजनों में पहले ही मोदी पर अपना दुलार लुटाता आया है. राजनाथ के बयान में भाजपा की आक्रामकता को भी पढ़ा जा सकता है.

राजनीतिक पंडितों का मानना है कि आनेवाले समय में कांग्रेस मोदी को घेरने की पूरी कोशिश करेगी. ऐसे में मोदी की उम्मीदवारी का ऐलान कर भाजपा कांग्रेस को किसी किस्म का बढ़त लेने से रोकना चाह रही है. उसकी मंशा मोदी की ओर उठनेवाली हर उंगली को ‘राजनीति से प्रेरित’ कह कर खारिज करने की हो सकती है.

अब यह लगभग तय है कि आनेवाले हफ्तों में देश की राजनीति ज्यादा से ज्यादा मोदी केंद्रित होती जायेगी. इसकी बड़ी वजह यह है कि भाजपा की तरह कांग्रेस को भी मोदी में आशा की एक किरण दिख रही है. कांग्रेस के लिए मोदी एक ऐसे शख्स हैं, जिनके इर्द-गिर्द चुनाव प्रचार को केंद्रित कर वह मुख्य बहस को अपनी असफलताओं से दूर धकेल सकती है.

ऐसे में मोदी की उम्मीदवारी असल में किसे फायदा पहुंचायेगी, यह तो आनेवाला वक्त ही बतायेगा. फिलहाल मोदी के नाम पर पसरे कुहासे को हटा कर राजनाथ ने जनता को चयन का स्पष्ट विकल्प देने का काम तो किया ही है

Monday, 22 July 2013

बीमार ही तो हैं ना.. मरे तो नहीं नीतीश बाबू

बिहार में मिड-डे मील त्रासदी के बाद बच्चों के साथ लापरवाही की एक के बाद एक घटनाएं सानने आ रही है, लेकिन सूबे के मुखिया नीतीश कुमार का कुछ पता नहीं है हैं, आखिर क्‍यों सामने नहीं आ रहे हैं मुख्‍यमंत्री साहब?

बताया जा रहा है कि नीतीश बीमार हैं और हम इस पर कोई सवाल नहीं उठा रहे। हम उनके जल्दी स्वस्थ होने की कामना भी करते हैं। हम बिहार के सीएम को सिर्फ ये आगाह करना चाहते हैं कि छपरा की घटना शायद उनके कार्यकाल की सबसे दर्दनाक घटना है और हमें लगता है कि मुख्यमंत्री को एक बार प्रदेश के लोगों के सामने आकर स्थिति जरूर साफ करनी चाहिए।

मुख्यमंत्री के नजदीकी लोग उनके स्वास्थ्य के बारे में जो कुछ बता रहे हैं, उसके मुताबिक नीतीश कुमार को पैर में चोट है और वे स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। नीतीश को इसका हक है, लेकिन इसके साथ वे एक सूबे के मुखिया भी हैं उनकी जिम्मेदारियां काफी बड़ी हैं-। इतनी बड़ी घटना का दोष उनके सिपहसलार भले ही विपक्षियों के सिर मढ़ने की कोशिश कर रहे हों, पर नीतीश की सरकार अपनी जिम्मेदारियों से बरी नहीं हो सकती। जाहिर है ऐसे में सबसे पहले जवाब की दरकार खुद सीएम से है।

तथ्य ये है कि नीतीश अस्वस्थ हैं और तथ्य ये भी है कि इस चोट के बाद भी उन्होंने जनता दरबार में हिस्सा लिया था। लेकिन छपरा में मौत के तांडव के बाद उन्हें देश ने नहीं देखा। क्या नीतीश को सामने आकर प्रदेश की जनता से दो शब्द नहीं कहने चाहिए? आखिर उनकी तकलीफ उन परिवारों से बड़ी कैसे हो सकती है, जिन्होंने अपने नौनिहालों को खोया है, जिनका सबकुछ खत्म हो गया है?

नीतीश के लिए ऐसा करना इसलिए भी जरूरी हो जाता है, क्योंकि संकट दोहरा है। एक तरफ इतने मासूमों की जान गई है, दूसरी तरफ हर रोज घटना को लेकर अजीब थ्योरी सामने आ रही है। ऐसे में ये बात शायद नीतीश ही बता सकते हैं कि छपरा में जो कुछ हुआ वो एक हादसा था, किसी की लापरवाही या कोई बड़ी राजनीतिक साजिश?

 लेकिन नीतीश सामने नहीं आ रहे, लालू प्रसाद कहते हैं कि नीतीश अहंकारी हो गए हैं। बीजेपी कहती है कि उसके हटते ही बिहार में सिस्टम बिखर गया है। ये नीतीश के विरोधी हैं। ऐसी बातें करना इनकी सियासी मजबूरी भी हो सकती है, लेकिन क्या नीतीश इन्हें मौका नहीं दे रहे? उन्हें एक बार अपनी जनता के सामने आकर सारी बातें साफ नहीं करनी चाहिए?

बिहार में मिड-डे मील त्रासदी के बाद बच्चों के साथ लापरवाही की एक के बाद एक घटनाएं सानने आ रही है, लेकिन सूबे के मुखिया नीतीश कुमार का कुछ पता नहीं है हैं, आखिर क्‍यों सामने नहीं आ रहे हैं मुख्‍यमंत्री साहब?

बताया जा रहा है कि नीतीश बीमार हैं और हम इस पर कोई सवाल नहीं उठा रहे। हम उनके जल्दी स्वस्थ होने की कामना भी करते हैं। हम बिहार के सीएम को सिर्फ ये आगाह करना चाहते हैं कि छपरा की घटना शायद उनके कार्यकाल की सबसे दर्दनाक घटना है और हमें लगता है कि मुख्यमंत्री को एक बार प्रदेश के लोगों के सामने आकर स्थिति जरूर साफ करनी चाहिए।

मुख्यमंत्री के नजदीकी लोग उनके स्वास्थ्य के बारे में जो कुछ बता रहे हैं, उसके मुताबिक नीतीश कुमार को पैर में चोट है और वे स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। नीतीश को इसका हक है, लेकिन इसके साथ वे एक सूबे के मुखिया भी हैं उनकी जिम्मेदारियां काफी बड़ी हैं-। इतनी बड़ी घटना का दोष उनके सिपहसलार भले ही विपक्षियों के सिर मढ़ने की कोशिश कर रहे हों, पर नीतीश की सरकार अपनी जिम्मेदारियों से बरी नहीं हो सकती। जाहिर है ऐसे में सबसे पहले जवाब की दरकार खुद सीएम से है।

तथ्य ये है कि नीतीश अस्वस्थ हैं और तथ्य ये भी है कि इस चोट के बाद भी उन्होंने जनता दरबार में हिस्सा लिया था। लेकिन छपरा में मौत के तांडव के बाद उन्हें देश ने नहीं देखा। क्या नीतीश को सामने आकर प्रदेश की जनता से दो शब्द नहीं कहने चाहिए? आखिर उनकी तकलीफ उन परिवारों से बड़ी कैसे हो सकती है, जिन्होंने अपने नौनिहालों को खोया है, जिनका सबकुछ खत्म हो गया है?

नीतीश के लिए ऐसा करना इसलिए भी जरूरी हो जाता है, क्योंकि संकट दोहरा है। एक तरफ इतने मासूमों की जान गई है, दूसरी तरफ हर रोज घटना को लेकर अजीब थ्योरी सामने आ रही है। ऐसे में ये बात शायद नीतीश ही बता सकते हैं कि छपरा में जो कुछ हुआ वो एक हादसा था, किसी की लापरवाही या कोई बड़ी राजनीतिक साजिश?

 लेकिन नीतीश सामने नहीं आ रहे, लालू प्रसाद कहते हैं कि नीतीश अहंकारी हो गए हैं। बीजेपी कहती है कि उसके हटते ही बिहार में सिस्टम बिखर गया है। ये नीतीश के विरोधी हैं। ऐसी बातें करना इनकी सियासी मजबूरी भी हो सकती है, लेकिन क्या नीतीश इन्हें मौका नहीं दे रहे? उन्हें एक बार अपनी जनता के सामने आकर सारी बातें साफ नहीं करनी चाहिए?

बीस नहीं इक्कीस हैं मोदी





गुजरात में चुनाव के बाद से मोदी ने एक दर्जन बार से ज्यादा सार्वजनिक मंच पर खुलकर बयानबाजी नहीं की होगी लेकिन बावजूद इसके देश की राजनीति और मीडिया फिलवक्त मोदी पर नजरें गढ़ाए हुए है।  मोदी के मुंह से निकले एक-एक शब्द का विरोधी विशलेषण कर रहे हैं और राजनीति के जानकार उसके शुक्ल और कृष्ण पक्ष पर चर्चा में जुटे हैं। जब मोदी कुत्ते के पिल्ले के गाड़ी के नीचे आना, रमजान की मुबारकबाद और सांप्रदयिकता के बुर्के को ओढने वाले बयान पर विपक्ष इस कदर हमलावार हो जाता है कि जैसे देश किसी आपात स्थिति में फंस गया हो। मोदी को कट्टरवादी हिंदूवादी छवि वाला नेता और मुसलमानों का विरोधी साबित करने में विपक्षी कोई कसर नहीं छोडना चाहते। कांग्रेस के कई प्रवक्ता और मंत्री एकमुशत मोदी का विरोध करने और उनके बयानों को उत्तर देने में दिन-रात एक किये हैं। विपक्ष की रणनीति का दूसरा हिस्सा यह है कि जितना मोदी का विरोध करेंगे उतना वो और उग्र होंगे और पार्टी के परंपरागत हिंदूवादी, राम मंदिर और धारा 370 के पुराने ढर्रे पर चलेगी जिससे धु्रवीकरण होगा जिसका लाभ विपक्ष को मिलेगा। इस तरह से विपक्ष के दोनों हाथ में लड्डू है। इसलिए मोदी के नाम पर विपक्ष लगातार चचार्एं चला रहा है, क्योंकि उसे पता है कि फिलवक्त भाजपा में मोदी से ज्यादा लोकप्रिय कोई दूसरा नेता नहीं है ऐसे में मोदी का विरोध करने पर उन्हें लाभ ही होगा।
भाजपा की परेशानी यह है कि सांप्रदायिकता उसका पीछा छोड़ने का नाम नहीं ले रही है, जबकि उसका पैतृक संगठन संघ अभी भी हिंदुत्व के एजेंडे पर अड़ा हुआ है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी कहा कि भारत को संकट से छुटकारा पाने का एकमात्र रास्ता हिंदुत्व ही है। भागवत का मानना है कि हिंदू-मुस्लिम को आपस में लड़वाकर समाप्त करने की योजना अंग्रेजों की है, लेकिन हिंदुत्व ही एक ऐसा मार्ग है, जिससे दोनों समुदाय लड़कर भी साथ रह सकते हैं। संघ ने मोदी के रूप में इसका नायक भी खोज चुकी है। मोदी संघ के एजेंडे को कितना आगे बढ़ा सकेंगे, यह तो आने वाले लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद ही पता चल पाएगा।
दरअसल नरेन्द्र मोदी वह राजनीतिक सोच में बदलाव नहीं बल्कि राजनीतिक सोच को ही बदलना चाहते हैं। इसलिये सत्ता पाने के 2014 के मिशन को उन्होंने औजार बनाया है। क्योंकि इससे राजनीतिक व्यवस्था पर सीधी चोट भी की जा सकती है और राजनीतिक व्यवस्था के दायरे में खडे होकर मौजूदा राजनीति को ही खारिज भी किया जा सकता है। इसलिये मोदी राजनीति के वर्तमान तौर-तरीको की जड़ पर चोट भी कर रहे हैं और जिस राजनीतिक व्यवस्था ने अपनी सत्ता साधना के लिये नायाब सामाजिक ढांचा बनाया है उसे उलटना भी चाह रहे है। ध्यान दें तो नरेन्दर मोदी तीन मुद्दों पर कांग्रेस या मनमोहन सरकार को घेर रहे हैं। पहला धर्मनिरपेक्षता दूसरा अर्थव्यवयवस्था और तीसरा राष्ट्रीयता। कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता को नरेन्द्र मोदी हिन्दु राष्ट्रवाद से खारिज करना चाहते हैं। मनमोहन की अर्थव्यवस्था को वह कारपोरेट के नजरिये से ही खारिज करना चाहते हैं। तो राष्ट्रवाद का सवाल कांग्रेस की सत्ता के दौर में लगातार हुये भारत के अवमूल्यन से जोड़ रहे हैं। आजादी के बाद से नेहरु की सत्ता और उसके बाद काग्रेसी सत्ता ने कैसे भारत की जमीन, भारत के उघोग-धंधो को चौपट किया और जो चीन 1950 में भारत से हर क्षेत्र में पीछे था, वह 1975 में ही कई गुना आगे निकल गया। चाहे खेती की बात हो या उघोगों की। असल में मोदी मौजूदा राजनीतिक जोड-तोड की सियासी राजनीति में फंसना ही नहीं चाहते हैं। उन्हें लग चुका है कि इस दायरे में फंसने का मतलब है बाकियों की कतार में से एक होकर रह जाना। इसलिये मोदी जो बिसात बिछा रहे है उससे संघ परिवार भी खुश है। क्योंकि संघ के सवाल भी मोदी ही राजनीतिक व्यवस्था के दायरे में राजनीतिक तौर पर उठाते हुये संघ को भी सक्रिय कर रहे हैं। कांग्रेस के साफ्ट हिन्दुत्व ने कैसे संघ को आजादी के बाद काउंटर किया और एक वक्त बाद कैसे जेपी सरीखे काग्रेसी भी समझ गये कांग्रेस देश का भट्टा बैठा रही है तो वह 1975 में जेपी यह कहने से नहीं कतराये कि अगर आरएसएस सांप्रदायिक है तो मै भी सांप्रदायिक हूं। असल में मोदी काग्रेस को खारिज करने के लिये नेहरु के दौर से टकराने को तैयार हो रहे है।
कहने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी उदार हिंदू नेता थे, सांप्रदायिक नहीं थे। लेकिन थे तो विभिन्न रूपों में व्याप्त हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक संगठनों और विचारधारा के शिखर पुरुष। उनके समय में ही गुजरात दंगे हुए। वे देश के प्रधानमंत्री थे। क्या उनका फर्ज सिर्फ इतना ही था कि वे बस एक बयान दे दें कि मोदी ने राजधर्म नहीं निभाया? क्या वे मोदी को बर्खास्त नहीं कर सकते थे। शिखर पुरुष होकर भी ऐसा न कर सके, तो स्वयं तो पद त्याग देने का काम बस इस आत्मावलोकन के साथ कर देते कि मोदी ने राजधर्म नहीं निभाया, तो मैं ही कहां निभा पाया हूं? बाबरी मस्जिद ढहने के बाद उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार समेत चार राज्यों की भाजपा सरकारों को बर्खास्त करने का नरसिंह राव का उदाहरण बहुत पुराना तो नहीं था! पूरी दुनिया में भारत की पहचान एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में बनी हुई है। भारतीय संविधान भी धर्मनिरपेक्षता का पूरी तरह पक्षधर है। और तो और, स्वतंत्रता से लेकर अब तक वर्तमान यूपीए सरकार के सबसे बड़े घटक दल कांग्रेस पार्टी को ही देश की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा का संरक्षण करने वाला सबसे बड़ा राजनीतिक दल माना जाता रहा है। लेकिन जिस प्रकार यूपीए 2 के शासनकाल में एक के बाद एक घोटाले तथा कीर्तिमान स्थापित करने वाले भ्रष्टाचारों की कतार में एक के बाद एक घोटाले तथा कीर्तिमान स्थापित करने वाले भ्रष्टाचारों घटनाएं सामने रही हैं, उससे कांग्रेस को निरंतर आघात पर आघात लगता जा रहा है। धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर जो लोग कांग्रेस पार्टी को ही देश में शासन करने के लिए सबसे योग्य राजनीतिक दल समझते थे, वही आम लोग भ्रष्टाचार, घोटाले तथा उसपर नियंत्रण पा सकने में कांग्रेस की नाकामी के चलते अब स्वयं कांग्रेस से मुंह फेरते दिखाई दे रहे हैं। दूसरी ओर, भाजपा के साथ दिक्कत इस बात की भी है कि भाजपा देश के समक्ष स्वयं को भ्रष्टाचार मुक्त तथा देश को स्वच्छ, ईमानदार, घोटालामुक्त शासन दे पाने के लिए प्रमाणित नहीं कर पा रही है। इसका भी कारण यही है कि जिस प्रकार कांग्रेस व यूपीए के अन्य कई घटक दलों में भ्रष्टाचार में संलिप्त नेता देखे जा रहे हैं, उन्हें मंत्रीपद अथवा अन्य प्रमुख पद छोड़ने पड़े हैं। उन्हें जेल की हवा तक खानी पड़ी है। ठीक उसी प्रकार भाजपा के भी तमाम नेता मायामोह में उलझकर अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। जिस प्रकार देश की इन दो प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने भ्रष्टाचार व सांप्रदायिकता के विषय पर देश के समक्ष अपनी छवि को दागदार बनाया है, उसे देख कर लगता है कि कहीं धर्मनिरपेक्षता का परचम संभावित तीसरे मोर्चे के हाथों में न चला जाए! ऐसे में 2014 के आम चुनाव में भ्रष्टाचार, सांप्रदायिकता व धर्मनिरपेक्षता के बीच ाबरदस्त घमासान होने की पूरी संभावना है।
गौर करने योग्य तथ्य यह भी है कि देश का पहला आम चुनाव 1952 में हुआ था। जनसंघ की स्थापना उसके कुछ ही महीने पूर्व डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में हो चुकी। बहुत कम लोग इस पार्टी का नाम भर जानते थे। चुनाव के बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तत्काल प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का आभार व्यक्त किया। उन्होंने कहा हम तो तीन सौ उम्मीदवार भी नहीं खड़ा कर सके। यह चुनाव हमने अपनी पार्टी की पहचान बनाने के लिए लड़ा। हमारे बस में नहीं था यह पहचान बना पाना। लेकिन हम आपके आभारी हैं कि आपने सारे देश में हमारी पार्टी पर ही निशाना साध कर हमारा उद्देश्य सफल कर दिया। तब से आज तक जनसंघ और भाजपा पर एक ही आरोप लगता रहा है, यह सांप्रदायिक पार्टी है। मुस्लिम समुदाय में इस पार्टी के भय की पैठ इतनी अधिक गहरी कर दी गई है कि वह कोई भी तर्कसंगत बात सुनने के लिए तैयार नहीं है।
कहा तो यह भी जा रहा है कि मुस्लिम वोटरों को रिझाने के लिए भाजपा जिस विजन डाक्यूूमेंट को तैयार कर रही है वो भी मोदी की ही सोच का नतीजा है। असल में  सारा खेल वोट बैंक को अपने साथ जोडने और खड़ा करने का है। विपक्ष को पता है कि अगर भाजपा अकेले दम पर 180 से 200 के बीच सीटें ले आती हैं तो एनडीए को साथी तलाशने के लिए कोई खास मशक्कत नहीं करनी होगी वहीं अगर पांच विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन ठीक रहा तो मोदी को प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं पाएगा ऐसे में कांग्रेस और विरोधी दलों ने मोदी की लोकप्रियता के लिटमस टेस्ट के लिए इस साल और 2014 में पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में जांचने परखने की रणनीति के तहत हमले तेज कर दिए हैं।

Sunday, 21 July 2013

खाना पर भी कांग्रेस की नज़र



ग्रामीण मजदूरी बढ़ने से लेकर खाद्य सुरक्षा कानून लागू होने तक में 2014 के आम चुनाव के लिए छिपा राजनीतिक संदेश यह है कि भुखमरी के जनतंत्र में ‘नमो’ के सामने कठिन चुनौती है. जिस प्रकार से खबरें आ रही हैं कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कांग्रेस के लिए मास्टर स्ट्रोक साबित होगा, उससे तो यही लगता है कि चुनावी मंचों से इसका खूब महिमामंडन किया जाएगा। लेकिन यह योजना अपने मुकाम को हासिल कर पाएगा? मन में एक नहीं कई सवाल उठ रहा है, आखिर इसकी शुरुआत 15 अगस्त को क्यों नहीं किया जा रहा है? क्या •ाारतीय लोकतंत्र के लिए इससे बेहतर कोई और दिन हो सकता है? आखिर 20 अगस्त को पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के जन्मदिवस पर इसकी शुरुआत करने का क्या औचित्य है? क्या यूपीए सरकार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की उस सलाह को धकियाना चाहती है, जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय योजनाओं को गांधी-नेहरू परिवार से नहीं जोड़ने की सलाह दी थी? जिस प्रकार से चर्चाएं उठ रही हैं, उससे तो यह लगता है कि यूपीए सरकार के कुछ मंत्री और सलाहकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना का नाम राजीव गांधी के नाम पर करने की सोच रहे हैं। हालांकि, यह अप्रत्याशित •ाी नहीं लगता। आंकड़ों के आधार पर बात की जाए, तो इस देश की 65 प्रतिशत से अधिक योजना इसी परिवार के नाम पर चल रही है।

 खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने पर महीनों की दुविधा के बाद यूपीए सरकार ने आखिर अध्यादेश का रास्ता चुना. कांग्रेस महासचिव अजय माकन ने इसे लाइफ सेवर (जीवन रक्षक) व लाइफ चेंजर (जीवन बदलनेवाला) करार दिया, जबकि विपक्षी पार्टियों और नीतिगत विश्लेषकों ने इसे लागू करने के तरीके पर आपत्ति जाहिर की. यह ऐतिहासिक फैसला देश के करीब 67 फीसदी लोगों को सस्ते अनाज पाने का कानूनी हक मुहैया करायेगा.

इस कानून और अंत्योदय योजना को मिला कर ग्रामीण क्षेत्रों में 75 फीसदी और शहरी क्षेत्रों में 50 फीसदी घरों को लाभ मिलेगा. हकीकत में यह कानून कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के विचार और मनमोहन सिंह सरकार के विकास की जरूरत के बीच समझौता है. सूचना का अधिकार कानून और मनरेगा से मिले चुनावी लाभ का फायदा उठा चुकी कांग्रेस समर्थित यूपीए सरकार सामाजिक योजनाओं के जरिये देश में गरीब समर्थित राजनीति की जगह पर कब्जा जमा रही है.

24 देशों के साथ, जिनमें दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, इक्वाडोर, ग्वोटेमाला शामिल है, भारत भी खाने के अधिकार को संवैधानिक बनाने वालों में शामिल हो गया. वर्ष 2011-12 में रिकार्ड तोड़ 252 मिलियन टन फसलों के उत्पादन की विडंबना के बीच भुखमरी ने अंतत: भारत के नीति-निर्माताओं का ध्यान इस ओर खींचा. 40 फीसदी खाद्यान्न बाजार में जाने, फर्जी राशन कार्ड बनने, एफसीआइ के गोदामों में अनाज सड़ने और जस्टिस वाधवा कमिटी द्वारा उचित मूल्य की निजी दुकानों को भ्रष्टाचार का केंद्र बताने के बीच खाद्य सुरक्षा कानून को भी भविष्य में देश से भुखमरी और गरीबी को खत्म करने में बाधा व असफलता का सामना करना पड़ेगा.

मॉनसून सत्र शुरू होने में महीने से भी कम समय बचा है. ऐसे में संविधान की धारा 123 के जरिये अध्यादेश कर रास्ता अपनाने और संसदीय लोकतंत्र व संधीय व्यवस्था के तौर-तरीकों का सम्मान नहीं करने पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं. विपक्षी दलों के बाधा खड़ी करनेवाले व्यवहार, सक्रिय किसान लॉबी और संसद में गरीबों के प्रति नव उदारवादियों के पूर्वाग्रह के कारण अध्यादेश जैसा असाधारण कदम उठाने के अपने तर्क हैं.

केंद्र सरकार का यह संवैधानिक दायित्व है कि इस अध्यादेश को दोनों सदन के पटल पर रखे और छह हफ्ते के अंदर पारित करवाये. इस विषय पर सदन में विपक्षी दलों, जिनमें वाम दल भी शामिल हैं, द्वारा संसदीय बहस और राज्यों के अधिकारों की अनदेखी करने पर हंगामेदार बहस होना तय है.

कुछ राज्यों, खास कर तमिलनाडु और छत्तीसगढ़, में व्यापक पीडीएस लागू है और संभावना है कि उनका खाद्य आवंटन कम हो सकता है. वे न सिर्फ राज्यों के अधिकारों का बचाव करेंगे, बल्कि खाद्य सुरक्षा कानून के व्यापक स्तर पर पहुंच की असफलता पर भी हमला करेंगे.

आंध्र प्रदेश सब्सिडी के तहत चावल मुहैया कराता है और मध्य प्रदेश ने पहले ही एक जून से गेहूं एक रुपया किलो और चावल दो रुपये किलो मुहैया कराने की घोषणा कर दी है. ओड़िशा और कर्नाटक ने भी ऐसी ही योजना की घोषणा की है. गरीबी और भुखमरी से लड़ने के लिए नीति बनाने में राज्यों की स्वायत्तता पर होनेवाली बहस में यूपीए के गेम चेंजर की वैधता हल्का होने की संभावना है.

यह कानून इस मायने में गेम चेंजर है कि मिड डे मिल, समग्र बाल विकास योजना और महिला सशक्तीकरण योजना को इससे जोड़ दिया है. इस पर गौर करें. 6 महीने से 6 साल तक आयु वर्ग के बच्चों को इस कानून के तहत उम्र के लिहाज से भोजन की गारंटी मुफ्त में स्थानीय आंगनबाड़ी के जरिये दी गयी है. 6-14 आयु वर्ग के बच्चों को रोजाना एक वक्त भोजन (स्कूल में छुट्टी को छोड़ कर) का मुफ्त प्रबंध सरकारी व सरकारी मदद से चलनेवाले स्कूलों में कक्षा 8 तक कर दिया गया है.

सभी गर्भवती और दूध पिलाने वाली मां स्थानीय आंगनबाड़ी में मुफ्त भोजन पाने की हकदार हैं. साथ ही मातृत्व लाभ 6 हजार रुपये किस्तों में मिलेगा. लैंगिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए परिवारों में सबसे बुजुर्ग महिला को मुखिया मानते हुए राशन कार्ड जारी किया जायेगा. कानून में महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को दुकान का लाइसेंस देने का भी प्रावधान है. पौष्टिक इमरजेंसी से निबटने के लिए कानून में तेल, दाल और अन्य खाद्य सामग्री को भी भविष्य में जोड़ने का वादा किया गया है.

पीडीएस पाने के योग्य घरों की पहचान राज्यों द्वारा सामाजिक और आर्थिक जाति जनगणना से की जायेगी. इसका मतलब है कि खाद्य सुरक्षा कानून अभी लागू नहीं होगा, क्योंकि हरियाणा और त्रिपुरा को छोड़ कर ज्यादातर राज्यों ने लाभार्थियों के पहचान की जनगणना नहीं की है. यह काम काफी जटिल है. यही कारण है कि 200 सबसे गरीब जिलों में समग्र पीडीएस के विचार को स्थगित करना पड़ा और इस पर खाद्य सुरक्षा के एनएसी के वास्तविक ड्राफ्ट में चर्चा की गयी थी. बीपीएल वास्तव में अभावग्रस्तता की रेखा है और इससे बड़ी संख्या में भूखे, कुपोषित और खाद्य असुरक्षा वाले घर पीडीएस के दायरे से बाहर हो गये. ऐसे में समग्र पीडीएस के विचार को छोड़ना दुर्भाग्यपूर्ण है.

आरटीआइ से प्रेरित होकर और मनरेगा में हुए भ्रष्टाचार के खुलासे से सबक लेते हुए खाद्य सुरक्षा कानून में शिकायतों के लिए दो स्तरीय व्यवस्था की गयी है, इसमें राज्य खाद्य कमीशन व जिला स्तरीय शिकायत निवारण अधिकारी शामिल हैं.

मनरेगा में सोशल ऑडिट के प्रावधान के हालत को देखते हुए इसकी शिकायत निवारण व्यवस्था एक बड़ी चुनौती है. लाभार्थियों को खाद्य अधिकार के बदले कैश ट्रांसफर व फूड कूपन देना भी इसमें शामिल किया गया है. सर्वे व अध्ययन इशारा करते हैं कि जिन इलाकों में बेहतर पीडीएस है, वहां कैश ट्रांसफर के प्रति अनिच्छा मजबूत है. बिहार और यूपी, जहां पीडीएस अक्षम व भ्रष्ट है, में कैश ट्रांसफर और कूपन के पक्ष में समर्थन मजबूत है.

इस योजना में सालाना 62 मिलियन टन खाद्य पदार्थ के वितरण से सरकार का खाद्य सब्सिडी बजट 1,24,724 करोड़ रुपये बढ़ जायेगा. बजट 2013-14 में सब्सिडी 90 हजार करोड़ रुपये थी और खाद्य सुरक्षा के लिए 10 हजार करोड़ रु अतिरिक्त आवंटन किया गया था. नवउदारवादी और वित्तीय रुढ़ीवादी विकास कम होने और चुनावी साल में फिजूलखर्ची को लेकर हो हल्ला मचा रहे हैं, लेकिन रिसर्च से पता चलता है इस कानून के सही क्रियान्वयन से बीपीएल परिवारों का जरूरी खाद्य पदार्थो पर खर्च कम होगा, जिससे वे शिक्षा, स्वास्थ्य और छोटे कारोबार पर खर्च करेंगे. प्रति बीपीएल परिवार साल में 4400 रुपये की बचत होगी.
अतिरिक्त बचत और गरीबों द्वारा खपत व निवेश न सिर्फ अच्छा अर्थशास्त्र है, बल्कि खाद्य असुरक्षित और माओवाद से ग्रस्त क्षेत्रों के लिए शांति का लाभ हासिल करने का वादा भी करता है. ग्रामीण मजदूरी बढ़ने की अच्छी खबर से लेकर खाद्य सुरक्षा कानून लागू होने तक में 2014 के आम चुनाव के लिए छिपा राजनीतिक संदेश यह है कि भुखमरी के जनतंत्र में ‘नमो’ के सामने कठिन चुनौती है.

Saturday, 20 July 2013

मुलायम-कांग्रेस में हो गई डील?



सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने कहा है कि उनकी पार्टी फूड सिक्योरिटी बिल का विरोध करेगी। आज मुलायम सिंह ने कहा कि न मुझे किसी ने मनाया न मेरी कोई बात हुई। हम फूड सिक्योरिटी बिल का विरोध करेंगे। बता दें कि इस तरह की खबरें आ रही थीं कि मुलायम फूड सिक्योरिटी बिल का समर्थन करेंगे। बताया जा रहा है कि कांग्रेस और मुलायम के बीच अंदरखाने कुछ समझौता हो गया है, जिसके बाद मुलायम ने इस बिल पर सरकार को समर्थन देने का फैसला लिया है। लेकिन मुलायम बिल के विरोध की बात कह रहे हैं। असल मामला क्या है इसकी भनक किसी को नहीं है।
उधर, बीजेपी ने इसे लेकर हमला बोल दिया है। पार्टी प्रवक्ता निर्मला सीतारमन ने कहा कि कांग्रेस सरकार सीबीआई का दुरुपयोग करते हुए संसद में बिल पास कराने के लिए छोटी पार्टियों को सताते आई है। कोर्ट में सीबीआई द्वारा शायद मुलायम के खिलाफ केस बंद कराने के लिए कोशिश होगी। इस कारण मुलायम जिस बिल के खिलाफ थे उसको समर्थन देने जा रहे हैं। क्या पता कांग्रेस औऱ मुलायम के बीच कुछ अंडरस्टैंडिंग बन गई हो।
समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति मामले में याचिकाकर्ता विश्वनाथ चतुर्वेदी ने सनसनीखेज आरोप लगाया है कि सपा और कांग्रेस के बीच एक डील हुई है, जिसके मुताबिक मुलायम की पार्टी संसद में कांग्रेस के महत्वाकांक्षी खाद्य सुरक्षा बिल को समर्थन देगी और उसके बदले में कांग्रेस सीबीआई के जरिए मुलायम के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के केस में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करवाएगी।

बीजेपी ने फूंका चुनावी बिगुल


तमाम मतभेदों के बीच घंटों माथापच्ची के बाद भाजपा संसदीय बोर्ड ने पार्टी की चुनाव समिति का ऐलान आज शाम कर दिया। चुनाव समिति के प्रमुख नरेंद्र मोदी होंगे। समिति में मुरली मनोहर जोशी, नितिन गडकरी, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, अनंत कुमार, थावरचंद गहलोत, रामलाल, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह और मनोहर पार्रिकर होंगे। इसके साथ ही अन्य समितियों को भी घोषणा की गयी। मिशन 2014 को ध्यान में रखते में हुए भाजपा ने आज चुनावी अभियान को धारदार बनाने वाले सेनापतियों के नाम का ऐलान कर दिया। नाम ऐलान करने से पहले संसदीय बोर्ड को लंबी माथापच्ची करनी पड़ी। इसमें मतभेद की खबरें भी आ रही थीं और कहा जा रहा था कि इसका ऐलान टल सकता है। आगामी लोकसभा चुनावों से काफी पहले भाजपा ने टीम मोदी के तहत प्रचार के विभिन्न पहलुओं को देखने के लिए शुक्रवार को 20 समितियों के गठन का ऐलान किया। नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाली भाजपा की केन्द्रीय चुनाव अभियान समिति के तहत सारी समितियां काम करेंगी और मोदी को रिपोर्ट करेंगी।

रिपोर्ट के मुताबिक चुनाव अभियान समिति में 11 अन्य सदस्य शामिल किये गये हैं। इनमें मुरली मनोहर जोशी, एम वेंकैया नायडू, नितिन गडकरी, सुषमा स्वराज, अरूण जेटली, अनंत कुमार, थावरचंद गहलौत, रामलाल, शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह और मनोहर पारिक्कर शामिल हैं।

भाजपा संसदीय बोर्ड की कल हुई बैठक के बाद 20 समितियों में शामिल सदस्यों की सूची जारी की गयी। पार्टी के वरिष्ठ नेता अनंत कुमार ने बताया कि मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्रीय चुनाव अभियान समिति का मार्गदर्शन अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी एवं पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह करेंगे।

भाजपा संसदीय बोर्ड ने राजनाथ और मोदी को आगामी लोकसभा चुनावों के लिए विभिन्न पहलुओं को देखने वाली समितियों के गठन के लिए अधिकृत किया था। दोनों नेताओं ने समितियों का गठन कर इसमें सदस्यों को नामित किया।

वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी को घोषणापत्र तैयार करने वाली समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। इसमें जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा, प्रेम कुमार धूमल, सुशील कुमार मोदी, जुएल उराव, विजय कुमार मल्होत्रा, लक्ष्मीकांत चावला, सत्यपाल मलिक, बंडारू दत्तात्रेय, विजया चक्रवर्ती, सत्यनारायण जटिया, शाहनवाज हुसैन, महेश चंद्र शर्मा, कंचन गुप्ता और षणमुखनाथन बतौर सदस्य शामिल हैं।

पूर्व भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी को विजन दस्तावेज समिति का जिम्मा सौंपा गया है। इसके सदस्यों में ओम प्रकाश कोहली, विनय सहस्त्रबुद्धे और हरी बाबू शामिल हैं।

प्रचार एवं प्रसिद्धि समिति के सदस्यों में सुषमा स्वराज, अरूण जेटली के साथ अमित शाह और सुधांशु त्रिवेदी शामिल हैं। चुनावों के लिए देश भर में पार्टी नेताओं की रैलियां आदि आयोजित करने के लिए रैली समिति का गठन किया गया है, जिसके सदस्य अनंत कुमार और वरूण गांधी हैं।

देश भर में हर बूथ के कार्यकर्ताओं के सम्मेलन आयोजित करने के लिए संसदीय सम्मेलन समिति बनायी गयी है, जिसमें थावरचंद गहलौत, जे पी नडडा, पुरूषोत्तम रूपाला, विनोद पांडे और एल गणेशन शामिल हैं।

अनंत कुमार ने बताया कि बुुनकर, श्रमिकों, किसानों आदि वगो के सम्मेलन करने के लिए वर्गवार सम्मेलन समिति का गठन किया गया है, जिसे मुरलीधर राव, विनय कटियार, श्याम जाजू, कृष्ण दास, लुइस मरांडी, विजय सोनकर शास्त्री और महेन्द्र पांडे देखेंगे।

पार्टी ने नये मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए नव मतदाता अभियान समिति बनायी है, जिसमें अमित शाह, नवजोत सिंह सिद्धू, त्रिवेन्द्र रावत और पूनम महाजन शामिल हैं।

लोकगीत, लोक नाटक और नुक्कड नाटकों के जरिए मतदाताओं तक पहुंच बनाने के लिए पारंपरिक अभियान समिति बनायी गयी है, जिसे स्मृति ईरानी, कैप्टन अभिमन्यु और वाणी त्रिपाठी देखेंगी।

डाक्टरों, इंजीनियरों, चार्टर्ड एकाउण्टेंट और विभिन्न क्षेत्रों के बुद्धिजीवियों को पार्टी से जोडने के लिए बुद्धिजीवी सम्मेलन एवं भाजपा के मित्र समिति का गठन किया गया है, जिसके सदस्य राजीव प्रताप रूडी, प्रकाश जावडेकर और तमिल ईसाई हैं ।

कुमार ने बताया कि राष्ट्रवादी संगठनों से जुडे लोगों, असंगठित मजदूरों और अन्य संगठनों से संबंधित मतदाताओं से संपर्क साधने के लिए विशेष संपर्क अभियान समिति बनायी है, जिसमें गडकरी, उमा भारती, सी पी ठाकुर, जे के जैन, मृदुला सिन्हा, कलराज मिश्र और किरण महेश्वरी शामिल हैं।

उन्होंने बताया कि शहरों और ग्रामीण इलाकों के चार चार, पांच पांच मतदान केन्द्रों को एकजुट कर उनमें समन्वय स्थापित करने के लिए चुनाव संगठन समिति का गठन किया गया है । इसमें रामलाल, वी सतीश और सौदान सिंह हैं।

कुमार के मुताबिक कांग्रेस और संप्रग सरकार के नौ साल के कथित कुशासन, महंगाई, आर्थिक संकट, भ्रष्टाचार, घोटाले आदि का पर्दाफाश करने के लिए कांग्रेस संप्रग के खिलाफ आरोप पत्र समिति बनायी गयी है। इसके सदस्यों में गोपीनाथ मुंडे, रवि शंकर प्रसाद, आरती मेहरा, किरीट सोमैया, निर्मला सीतारमण और मीनाक्षी लेखी हैं।

भाजपा नेता ने बताया कि वेबसाइट से लेकर व्हाट्सएप के जरिए चुनाव प्रचार के लिए इंफार्मेशन कम्युनिकेशन अभियान समिति बनायी गयी है, जिसे पीयूष गोयल देखेंगे। उन्होंने बताया कि जन समीक्षा और जन भागीदारी समिति में धर्मेन्द्र प्रधान, रामेश्वर चौरसिया, मनोहर लाल खटटर और नलिन कोहली को शामिल किया गया है।

प्रचार प्रसार के उद्देश्य से साहित्य निर्माण समिति बनायी गयी है, जिसे बलबीर पुंज, प्रभात झा, विनय सहस्त्रबुद्धे और सुधा मलैया देखेंगी। चुनाव के दौरान नेताओं के कार्यक्रम और आने जाने की व्यवस्था देखने के लिए कार्यक्रम और यातायात समिति का गठन किया गया है, जिसे मुख्तार अब्बास नकवी, अनिल जैन और अरूण सिंह देखेंगे।

23 मौतें, 23 सवाल



बिहार के सारण जिले के  (मशरक प्रखंड ) गंडामन  प्राथमिक विद्यालय में 16 जुलाई को मिड डे मील खाने से 23 बच्चों की मौत हो गयी. चार दिन बाद उस स्कूल की क्या स्थिति है, घटना के दिन क्या हुआ था और अब सरकार क्या कर रही है, इससे संबंधित 23 अहम सवाल अब भी अनुतरित हैं.हैरत की बात तो यह है कि नितीश कुमार की ओर से एक भी बयान नहीं है. लोग तो अब यही कह रहे हैं की नीतीश की पैर टूटी है, जुबान तो दुरुस्त है, फिर चुप क्यों हैं ?


बच्चों ने क्या खाया था?
घटना के दिन स्कूल में उपस्थित बच्चों ने भात और आलू व सोयाबीन की तरकारी खायी थी. रसोइये ने खुद अपनी हाथों से भोजन पकाया था. टिफिन के समय बच्चों को यही भोजन परोसा गया था.


खाने में क्या मिला था?
बीमार बच्चों को जब अस्पताल में भरती कराया गया, तो डॉक्टरों को पहली नजर में भोजन में जहर मिले होने का अंदेशा हुआ. बच्चों की उल्टी और शुरुआती लक्षण से डॉक्टरों की यह राय बनी. उनकी समझ में यह विषैला पदार्थ आर्गेनोफास्फोरस हो सकता है. जिस तेल से तरकारी बनायी गयी, उसमें इसके मिले होने क ी आशंका है.



जहरवाले बरतन में खाना बना या तेल में जहरीला पदार्थ था?

अब तक मिली रिपोर्ट के अनुसार, तेल में ही जहरीला पदार्थ मिला हुआ था. इसकी पुष्टि गुरुवार को शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव और मिड डे मील योजना के निदेशक ने भी की है. रसोइये को यह बात मालूम नहीं थी कि उसने कड़ाही में जो तेल डाला है, उसमें क्या मिला हुआ है. पीएमसीएच में मौत से जूझ रही रसोइये मंजू देवी ने कहा कि जब उसने तेल कड़ाही में डाली, तो अजीब प्रकार का गंध आया. कड़ाही से धुआं भी निकला, पर उसने बिना कारण जाने उस तेल में ही सब्जी बना दी. इस भोजन को खाने से वह खुद और उसके दो बच्चे भी बीमार हैं, जो पीएमसीएच में भरती हैं.


मंजू के पास तेल कहां से आया?

प्रधानाध्यापिका मीना देवी ने रसोइया मंजू देवी को यह तेल दिया था. मीना देवी ने तेल को स्कूल के पास वाले बाजार से ही खरीदा था. पांच लीटरवाले कंटेनर से तेल निकाल कर मंजू देवी को दी गयी थी.


आर्गेनोफॉस्फोरसक्या है?

ग्रामीण इलाकों में खेतों में फसल को बचाने के लिए इसे कीटनाशक के रूप में प्रयोग किया जाता है. आम तौर पर ग्रामीण इलाकों में किराना या मेडिकल स्टोर में भी मिल जाता है. इसकी बिक्री पर कोई रोक नहीं है.


बच्चों के खाने में जहर कैसे पहुंचा?

अब तक इसका खुलासा नहीं हो पाया है कि भोजन में यह जहर कैसे पहुंचा. जानबूझ कर किसी ने इसे भोजन में मिलाया या अनजाने में ऐसा हुआ. शिक्षा मंत्री ने कहा कि जिस तेल से भोजन बना, वह प्रधानाध्यापिका के पति की दुकान से आया होगा. पर, पड़ताल में इसकी पुष्टि नहीं हो पायी है.

क्या प्रधानाध्यापक के पति की दुकान में यह रसायन बिकता था?


प्रधानाध्यापिका के पति अजरुन राय खेतीबारी करते हैं. वह गंडामन गांव के ही मूल निवासी हैं. उनकी अपनी कोई दुकान नहीं है. उनके पट्टीदार ध्रुव राय का प्रभावित स्कूल के पास मार्केटिंग कांप्लेक्स है, जिसमें उनकी दवा की दुकान है.

क्या बच्चों ने स्वाद में गड़बड़ी की शिकायत की थी?


जब बच्चों ने स्कूल में भोजन चखा, तो उन्हें स्वाद में गड़बड़ी लगी. उनके हल्ला करने पर रसोइया मंजू देवी ने खुद खाना चखा. इससे वह भी बीमार पड़ी. जब बच्चों की हालत खराब होने लगी, तो प्रधानाध्यापिका  स्कूल छोड़ भाग

खड़ी हुई.


फिर भी खाने को क्यों नहीं फेंका?

भोजन में जहरीला पदार्थ मिले होने के शक पर बचे खाने को फेंक दिया गया. इससे प्रतीत होता है कि खाने में जहर मिला था.


फेंके गये खाने का क्या हुआ?

फेंके गये खाने को एक कौआ और एक गाय ने खाया, जो मर गये.

क्या स्कूल में कोई प्राथमिक उपचार किट था?

स्कूल में प्राथमिक इलाज का कोई किट नहीं था, जिससे बच्चों का वहीं इलाज शुरू किया जाता.       


क्या बच्चों को इलाज मिल पाया?


बच्चों ने दिन के 12 बजे खाना खाया था. इसके तत्काल बाद उन्हें परेशानी होने लगी.

प्रधानाध्यापिका ने जब देखा कि बच्चे गिर रहे हैं, तो वह चिल्लाते हुए बाहर आयीं और गांव के लोगों से बच्चों को अस्पताल पहुंचाने  की मदद मांगीं. लोग बच्चे अस्पताल भी  ले जाये गये. पर, वहां कोई व्यवस्था नहीं थी. मशरक प्रखंड अस्पताल ने बच्चों को छपरा जिला अस्पताल रेफर कर दिया. यहां इलाज किया गया, लेकिन स्थिति बिगड़ती गयी. डॉक्टरों ने बच्चों को पीएमसीएच रेफर कर दिया. पीएमसीएच पहुंचते-पहुंचते रात के 11 बज गये. यहां विशेषज्ञ डॉक्टरों ने इलाज शुरू किया.

क्या प्रधानाध्यापिका पर कोई कार्रवाई हो पायी?
जब बच्चे गिरने लगे, उस समय प्रधानाध्यापिका मूर्छित हो रहे बच्चों को अस्पताल पहुंचाने की प्रयास करती रही. लेकिन, जब बच्चों के मरने की खबर आने लगी, तो वह गायब हो गयीं. सरकार ने प्रधानाध्यापिका के खिलाफ विभागीय कारवाई करने की घोषणा की है.

वह अब कहां है?
सरकारी रेकॉर्ड में प्रधानाध्यापिका घटना के बाद से गायब हैं. मशरक थाने में उन पर प्राथमिकी दर्ज करायी गयी है. प्रखंड शिक्षा अधिकारी ने शुक्रवार को उन्हें निलंबित कर दिया है. गांव में उनके परिवार के कोई भी सदस्य नहीं है.


विद्यालय में कितने शिक्षक थे
गंडामन विद्यालय में दो ही शिक्षिकाएं पदस्थापित थीं. एक कुमारी कल्पना और दूसरी प्रधानाध्यापिका मीना देवी. मीना देवी गंडामन की ही निवासी थीं, जबकि कल्पना पड़ोसी गांव पकड़ी की रहनेवाली हैं. जानकारी के अनुसार, घटना के दिन कल्पना स्कूल में नहीं थी. उन्होंने सुबह ही स्कूल में खबर भिजवायी थी कि वह आज नहीं आ पायेंगी.


बच्चों को दफनाने से पहले माता-पिता से राय ली गयी थी?

बच्चों के माता-पिता की राय से ही उन्हें दफनाया गया. कुछ बच्चों को निकट के मैदान में दफनाया गया. कुछ को स्कूल परिसर में दफनाया गया.


पुलिस जांच में क्या छानबीन हो रही है पुलिस जांच में घटना की पृष्ठभूमि, इसके क ारण और संलिप्तता की जांच की जा रही है. सरकार के निर्देश पर फोरेंसिक जांच भी करायी जा रही है. शनिवार को इसकी रिपोर्ट आने की संभावना है. सारण के डीआइजी और  आयुक्त की जांच रिपोर्ट सरकार को मिल गयी है. इसमें प्रधानाध्यापिका की आपराधिक लापरवाही व भोजन के बनने के बाद नहीं चखने का दोषी माना गया है.


सरकार ने अब तक क्या किया?
घटना के बाद सरकार ने तत्काल जांच के आदेश दिये. मृत बच्चों के परिजनों को दो-दो लाख का मुआवजा दिया गया. सीएम स्तर पर समीक्षा बैठक हुई, जिसमें जिला अस्पतालों को तीन सौ बेड उपलब्ध कराने और 24 घंटे डॉक्टर, दवा और टेलीफोन सुविधा उपलब्ध कराने के निर्णय लिये गये. 67 हजार रसोइये बहाल करने व सभी भवनहीन विद्यालयों को बंद करने और उसे दूसरे भवन में स्थानांतरित करने के आदेश दिये गये.

स्कूल में कितने बच्चे पढ़ते थे?

गंडामन में नवसृजित प्राथमिक विद्यालय में 120 बच्चों का नामांकन था. घटना के दिन करीब 50 बच्चों ने खाना खाया था.

प्रशासनिक चूक या राजनीतिक षड्यंत्र था?
पहली नजर में इसे प्रशासनिक चूक माना जा रहा है. पहले स्तर पर भोजन के लिए सामग्री खरीद  में और दूसरा बीमार बच्चों को जल्द अस्पताल पहुंचाये जाने में देर हुई. भोजन बनने के बाद अगर उसे चखा जाता, तो बच्चे बीमार नहीं पड़ते. इसके बाद भी बच्चों को जल्द अस्पताल पहुंचाया जाता, तो उनकी जान बच सकती थी.

राजनीतिक षड्यंत्र की बात कैसे आयी?
शिक्षा मंत्री ने कहा कि इसमें राजनीतिक षड्यंत्र है, इस आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा रहा. लेकिन, प्रधानाध्यापिका के पति का किसी भी राजनीतिक दल से संपर्क सामने नहीं आया है. महाराजगंज लोकसभा चुनाव के दौरान उनके गोतिया लोगों का झुकाव राजद की ओर रहा था.


भाजपा का क्या कहना है?
भाजपा ने घटना को सरकार की विफलता से जोड़ा है. पार्टी का तर्क है कि यदि  मिड डे मील योजना के लिए नियुक्त किये गये कर्मचारी-शिक्षक सतर्क रहते, तो ऐसी भयावह घटना नहीं होती और मासूम बच्चों को अपनी जान नहीं गंवानी पड़ती.  घटना की जांच रिपोर्ट जल्द-से-जल्द लोगों के सामने आनी चाहिए. जांच की अवधि भी लंबी न हो. 15 दिनों में जांच रिपोर्ट आनी चाहिए. घटना के लिए जिम्मेवार लोगों पर कठोरतम कार्रवाई हो.


चार दिन बाद स्कूल की क्या स्थिति है.
स्कूल अभी बंद है. स्कूल का अपना भवन नहीं है, इसलिए सामुदायिक भवन में ही स्कूल चलाया जा  रहा था. गांव का कोई भी
व्यक्ति अपने बच्चे को स्कूल नहीं भेज रहा. प्रधानाध्यापिका के नहीं रहने से स्कूल बंद है.

एचआरडी की रिपोर्ट मंगलवार तक संभव
नयी दिल्ली: बिहार में मिड डे मील हादसे पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय मंगलवार तक रिपोर्ट सौंप सकता है. उस हादसे में 23 बच्चों की जान गयी थी. मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव अमरजीत सिंह ने मानव संसाधन विकास मंत्री एम एम पल्लम राजू को रिपोर्ट सौंपने से पहले मसौदा नोट तैयार करना शुरू कर दिया है. सिंह को हादसे के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए बिहार भेजा गया था. ऐसा बताया जाता है कि इस दौरान उन्होंने पीड़ित परिवारों के सदस्यों से मुलाकात की थी. सूत्रों ने बताया कि सिंह सारण में हुई घटना और बिहार के ही मधुबनी में हुई उसी तरह की घटना को मिला कर रिपोर्ट तैयार करेंगे. मधुबनी में मिड-डे मील योजना के तहत खाना खाकर एक सरकारी मध्य विद्यालय के तकरीबन 50 बच्चे बीमार पड़ गये थे. वह समिति मिड-डे मील कार्यक्रम के कार्यान्वयन की समीक्षा करेगी और इस बात की निगरानी करेगी कि अच्छी गुणवत्ता वाला खाना परोसा जाए और स्वास्थ्यकर मानदंडों को सुनिश्चित किया जाये. मंत्रालय समाज समूहों की सहमति लेने हेतु उनसे संपर्क कर रहा है. राजू ने दावा किया था कि मंत्रालय ने योजना को लागू करने में कमियों के बारे में बिहार के 12 जिलों को सतर्क किया था. इस आरोप का नीतीश कुमार ने खंडन किया था.


प्राचार्या की आपराधिक लापरवाही
पटना/छपरा: मशरक कांड में गंडामन प्राथमिक विद्यालय की प्रधानाध्यापिका मीना देवी के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किये जाने के बावजूद उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सका है. शुक्रवार को उसके घर पर छापेमारी की गयी, लेकिन वह नहीं मिली. अब कुर्की-जब्ती की तैयारी की जा रही है. उधर, डीआइजी विनोद कुमार व प्रमंडलीय आयुक्त शशि शेखर शर्मा ने मामले पर जांच रिपोर्ट शुक्रवार को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सौंप दी, जिसमें प्रधानाध्यापिका की भूमिका को आपराधिक लापरवाही करार दिया गया है. जांच रिपोर्ट आने के बाद बीआरपी को बरखास्त कर दिया गया. प्रधानाध्यापिका को पहले ही निलंबित किया जा चुका है.


जांच रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रधानाध्यापिका ने विभागीय आदेश का खुला उल्लंघन किया. खाना बनाने के दौरान उन्होंने न सही तरीके से उसकी निगरानी की और न ही बच्चों को भोजन परोसने से पहले उसे चखा. स्कूल में बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है. साफ -सफाई का कोई ख्याल नहीं रखा गया. जांच रिपोर्ट आने के बाद शिक्षा विभाग ने प्रखंड स्तर पर मिड डे मील की निगरानी की

जिम्मेवारी संभालनेवाले प्रखंड संसाधन कर्मी (बीआरपी) सत्येंद्र सिंह को बरखास्त कर दिया. स्कूल की दूसरी शिक्षिका, जो घटना के दिन अनुपस्थित थीं, उससे स्पष्टीकरण मांगा गया है. यह पंचायत शिक्षिका है, जिसका नियोजन पंचायत इकाई करती है. विभाग ने ग्राम पंचायती राज से उस शिक्षिका के अनुपस्थित रहने पर जवाब मांगा है.

उधर, एसडीओ मनीष शर्मा और एसडीपीओ कुंदन कुमार के नेतृत्व में पुलिस ने गंडामन में प्रधानाध्यापिका के घर पर छापेमारी की. लेकिन, कोई नहीं मिला. घटना के बाद से घर में ताला बंद कर प्रधानाध्यापिका समेत उनके परिजन फरार हैं. पुलिस ने छत के रास्ते घर के आंगन में प्रवेश कर अंदर से दरवाजा खोल कर तलाशी ली. लेकिन, पुलिस को कुछ भी हाथ नहीं लगा. घर के बरामदे में रखी सरकारी स्कूलों की किताबों और कागजात की जांच की गयी. एसडीओ ने बताया कि प्रधानाध्यापिका ने जल्द समर्पण नहीं किया, तो उसकी संपत्ति की कुर्की की जायेगी. इसके लिए कोर्ट में आवेदन दाखिल करने की कार्रवाई की जा रही है. सर्च वारंट नहीं रहने के कारण पुलिस उसके घर का ताला नहीं तोड़ सकी. इधर, प्रधानाध्यापिका की गिरफ्तारी नहीं होने के कारण ग्रामीणों में असंतोष व्याप्त है. शुक्रवार को गांव के लोगों ने शासन-प्रशासन के खिलाफ अपने गुस्से का इजहार भी किया.

फोरेंसिंक साइंस लेबोरेटरी (एफएसएल) की जांच रिपोर्ट शनिवार तक आने की संभावना है. हालांकि, राज्य सरकार का मानना है कि खाना बनाने में उपयोग किये गये तेल में ही जहर था. यह भी आशंका है कि तेल के डिब्बे में पहले से ही जहर हो. शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव अमरजीत सिन्हा ने कहा कि जिस दुकान से तेल लेकर खाना बनाया गया, उसकी भी जांच होगी.  यदि तेल है, तो वह किस कंपनी का है. तेल का रंग काला, कड़ाही में डालने के बाद उससे धुआं निकलना और स्कूल की प्रधानाध्यापिका द्वारा इस स्थिति में भी खाना बनाने की बात करना संदिग्ध लगता है. दोषी चाहे कितना भी बड़ा आदमी क्यों न होगा, उसे बख्शा नहीं जायेगा.



केंद्र सरकार का दावा खारिज
प्रधान सचिव ने केंद्र सरकार के उस दावे को खारिज किया, जिसमें मिड डे मील को लेकर अलर्ट जारी करने की बात कही गयी थी. उन्होंने कहा, एक गैर सरकारी संगठन ने अप्रैल, 2013 में रिपोर्ट जारी की गयी थी. देश के 144 जिलों (जिनमें बिहार के 12 जिले शामिल थे) में मिड डे मील को लेकर सर्वेक्षण किया गया. सभी राज्यों को भेजी गयी रिपोर्ट में बिहार भी शामिल है. उस रिपोर्ट में अलर्ट बरतने जैसी बात नहीं की गयी है. पत्र में मिड डे मील के कवरेज को और बढ़ाने की बात कही गयी थी. 2012 में किये गये सर्वे के समय राज्य के 19263 स्कूलों में मिड डे मील का संचालन नहीं हो रहा था. अब इसकी संख्या मात्र नौ सौ रह गयी है. 2010 में 57.2 प्रतिशत, 2011 में 54.6 प्रतिशत, तो 2012 में 75 प्रतिशत से अधिक स्कूलों में मिड डे मील का सफल संचालन हो रहा है.

भवनविहीन स्कूल सात दिनों में शिफ्ट होंगे
पटना: बिहार के 8,600 भवनविहीन विद्यालयों को कहीं और शिफ्ट करने की घोषणा पर शिक्षा विभाग ने अमल शुरू कर दिया. शुक्रवार को विभाग ने राज्य के सभी डीएम, डीइओ व जिला कार्यक्रम पदाधिकारियों को पत्र भेज कर इस दिशा में कार्रवाई करने का निर्देश दिया है. ऐसे विद्यालय जहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव है, उन्हें निकटतम स्कूलों में शिफ्ट कर दिया जायेगा.


शिफ्ट करने के बाद 29 जुलाई तक इसकी रिपोर्ट मुख्यालय को दे देनी है. उन भवनहीन स्कूलों को शिफ्ट नहीं किया जायेगा, जो वैकल्पिक भवन में होने के बावजूद सभी आधारभूत संरचनाओं के मामले में ठीक हैं.

शिक्षा मंत्री व प्रधान सचिव पर एफआइआर की मांग : बिहार पंचायत नगर प्रारंभिक शिक्षक संघ के संयोजक राकेश कुमार ने कहा कि मशरक में विषाक्त भोजन खाने से 23 बच्चों की मौत का कारण कुव्यवस्था है. कहा, 130 बच्चों की क्षमतावाला गंडमान प्राथमिक विद्यालय मात्र दो नियोजित शिक्षकों के बल पर चल रहा है. सरकार विद्यालय और शिक्षा के नाम पर राजनीति कर रही है. 23 बच्चों की मौत भी इसी राजनीति का नतीजा है. शिक्षा मंत्री व प्रधान सचिव के खिलाफ एफआइआर दर्ज होना चाहिए.

छपरा मामले से उपजे कड़वे सवाल?

सारण के मशरक में 23 बच्चों की मौत एक उदाहरण है कि जमीनी स्थिति कितनी भयानक है. यह मामला केवल आधारभूत ढांचे के अभाव का नहीं है. ये बच्चे भी ऑर्गेनोफॉस्फेट कीटनाशक से मरे हैं. हम कीटनाशक का जितना प्रयोग करते जा रहे हैं, उतना ही खतरा बढ़ता जा रहा है. धीरे-धीरे हर जगह लोग मर रहे हैं. हां, कभी कीटनाशक से बड़ी तादाद में मृत्यु होती हैं , जैसा कि भोपाल में हुआ था, तो कभी छपरा जैसे मामले देखने को मिलते हैं. मैंने देखा है कि भारत में किसान जिस बरतन में कीटनाशक घोलते हैं, उसी से पानी पी लेते हैं. भारत में कीटनाशक को जहर नहीं, दवा कहा जाता है. कीटनाशक दवा.



योजना या प्रोपेगेंडा : लोगों को कीटनाशकों के बारे में गुमराह कर दिया गया है. उन्हें लगता है कि यह  कोई बहुत अच्छी चीज है. इतने बड़े देश में इतनी बड़ी (मिड डे मील) परियोजना एक ही तरीके से सुरिक्षत रूप से चल सकती है कि यह लोकतांत्रिक तरीके से नियंत्रित हो और इसका विकेंद्रीकरण किया जाये, ताकि ये सबकी नजर में हो. सबको पता होना चाहिए कि बच्चों के लिए क्या खाना बन रहा है. लोगों को बताया जाये कि उनके लिए क्या नुकसानदेह है. बड़ी-बड़ी योजनाएं इसलिए नहीं बनायी जा रही हैं कि लोगों तक अच्छा स्वास्थ्य, सुरिक्षत और पौष्टिक खाना पहुंच सके. योजनाएं इसलिए बनायी जा रही हैं, क्योंकि इसके पीछे बड़े राजनीतिक और आर्थिक एजेंडा हैं.

खाद्य सुरक्षा अधिनियम भी इसी एजेंडा का एक हिस्सा है. गरीब को दो रु पये में वह चीज मिल जायेगी, जिसके लिए उसे बाजार में 20 रु पये देने होंगे.


नयी स्कीम को प्रोपेगेंडा के रूप में लाया जा रहा है. भोजन से जुड़े मामले में यह जीवन-मरण का सवाल होता है.


-विकेंद्रीकरण जरूरी

विकेंद्रीकृत व्यवस्था बनानी होगी. सरकार खाद्य क्षेत्र को केंद्रीकृत कर रही है.


सरकार खाद्य सुरक्षा तभी सुनिश्चित कर सकती है, जब किसानों का सशक्तीकरण किया जाये.

ब्राजील में बेलाहारजांटे एक जगह है. उन्होंने वहां कुपोषण दूर कर दिया है. उन्होंने किसानों को शहर में जगह दी, जहां वह सीधे अपना जैविक उत्पाद बेच सकें. किसानों ने सीधे अपना उत्पाद बेचा, इसलिए लोगों को कीटनाशकमुक्त खाना सस्ते में मिला और किसानों को भी मुनाफा हुआ.

सरकार केवल खाद्य सुरक्षा का केंद्रीकरण ही नहीं कर रही है, बल्कि इसे खाद्य क्षेत्र की पांच बड़ी ताकतों के हाथ में सौंप रही है. जब भोजन से पैसे का गंठजोड़ होगा, तो बच्चे मरेंगे.


-अन्न उपजाओ

खाद्य सुरक्षा के लिए जरूरी है कि खाद्यान्न उगाया जाये. जब लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने कहा था कि अन्न और उगाओ. उनके जमाने में मंत्रियों के बंगलों में अन्न उपजाया जा रहा था. हमें हर स्कूल में अन्न उपजाना चाहिए. यदि माफिया और बिल्डर को जमीन दे सकते हैं, तो हर गांव में हर महिला समूह को सामुदायिक खेती के लिए दो-तीन एकड़ जमीन क्यों नहीं दे सकते. हर गांव में खाद्य सुरक्षा के गोदाम होने चाहिए.


हमें किसानों को उनके उत्पादों की सही कीमत देनी होगी. ऐसा नहीं हुआ, तो हमें बाहर से खराब खाद्य पदार्थ मंगाना होगा. ऐसी कंपनियों को भोजन में कीटनाशक होने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. खेती खत्म होती जाएगी. हम गंदा अनाज आयात करेंगे.

इस त्रासदी की वजह कीटनाशक है. इससे बचने के लिए हमें जैविक खाद्य की तरफ मुड़ना होगा. यह हमारे लिए विलासिता की वस्तु नहीं है. यह हमारे जीवन की जरूरत है.

Friday, 19 July 2013

सीक्रेट मिशन में लगे हैं गडकरी



भाजपा ने पूर्व अध्‍यक्ष‍ नितिन गडकरी को 'सीक्रेट मिशन' पर लगाया है। इस मिशन के तहत देश की जरूरतें, जनता का मूड भांपना और उसके आधार  पर विजन डॉक्‍युमेंट तैयार करने का काम सौंपा गया है। इसके लिए गडकरी देश के उन बड़े लोगों से मिल रहे हैं जो नीति निर्माण से संबंधित विषयों के विशेषज्ञ हैं। गुरुवार को लगभग दो घंटे तक संसदीय बोर्ड में चुनाव अभियान 2014 के लिए विस्तार से चर्चा हुई। चर्चा के दौरान यह तय किया गया कि चुनाव प्रचार, चुनाव घोषणा पत्र, दृष्टि पत्र, इलेक्शन वाररूम, प्रचार सामग्री, लोकसभा क्षेत्र में रैली, आने-जाने की व्यवस्था, सोशल मीडिया सहित लगभग एक दर्जन समितियां चुनाव अभियान का हिस्सा होंगी। संसद के दोनों सदनों के नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज और अरुण जेटली, पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू, मुरली मनोहर जोशी और नीतिन गडकरी इन सभी समितियों की निगरानी करेंगे। किस समिति की निगरानी कौन वरिष्ठ नेता करेगा, यह शुक्रवार दोपहर तक तय होगा। सुषमा स्‍वराज के रोल पर खास तौर से सस्‍पेंस है।

सूत्रों का कहना है कि महासचिव स्तर के ऊपर के नेता जिन समितियों की निगरानी करेंगे, उससे संबंधित रिपोर्ट पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह से चर्चा करने के बाद नरेंद्र मोदी के समक्ष लाया जाएगा। सुषमा स्वराज और अरुण जेटली का चुनाव अभियान से संबंधित सुझाव को निश्चित रूप से अंतिम रिपोर्ट में शामिल किया जाएगा। सूत्रों का कहना है कि स्वयं मोदी ने अपनी तरफ से पहल करते हुए वरिष्ठ नेताओं के सुझाव को चुनाव अभियान के लिए जरूरी माना है। मोदी ने अपनी भावी योजना को लेकर वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी से भी सलाह-मशविरा किया है।

जहरीला परोसा गया मिड-डे मील!

     बिहार के सारण जिले में एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में मिड-डे मील विषाक्तता के बारे में प्रदेश के शिक्षा मंत्री पीके शाही ने बुधवार को एक प्रेस कॉन्‍फ्रेंस कर कहा कि प्रारंभिक जांच के दौरान यह स्पष्ट है कि मिड-डे मील में जहर मिला हुआ था। शाही ने इसे विपक्षी दलों की साजिश बताते हुए दावा किया कि प्रारंभिक जांच के दौरान यह स्पष्ट है कि मिड-डे मील में जहर मिला हुआ था और यह फूड पाइजनिंग का मामला नहीं है।

राजद का नाम लिए बिना शाही ने कहा कि ग्रामीणों ने बताया कि एक दल विशेष के सक्रिय कार्यकर्ता अर्जुन राय के किराना दुकान से स्कूल में सामग्री की आपूर्ति की जाती है। अर्जुन राय धरमसाती गंडामन गांव में स्थित उक्त नवसृजित विद्यालय की प्रभारी हेड मिस्ट्रेस मीना देवी के पति हैं। इसके साथ ही उन्होंने बताया कि इस मामले में मीना देवी सहित अन्य के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करायी गयी है, जो अपने पति सहित परिवार के अन्य सदस्यों के साथ इस घटना के बाद से फरार हैं।

शाही ने बताया कि मीना देवी वर्ष 2011 में धरमसाती गंडामन गांव में स्थित उक्त नवसृजित विद्यालय में प्रतिनियुक्ति के पूर्व बहुआरा मध्य विद्यालय में पदस्थापित थीं और उनकी प्रतिनियुक्ति मशरख प्रखंड के तत्कालीन शिक्षा पदाधिकारी प्रबोध कुमार ने की थी। ऐसी अपुष्ट सूचना है कि उनकी प्रतिनियुक्ति किसी राजनीतिक दबाव के अंतर्गत की गयी थी।

उन्होंने बताया है कि अर्जुन राय की धरमासती बाजार में किराना की दुकान है और वहां से मीना देवी स्कूल के लिए सामानों की खरीद किया करती थीं। अर्जुन राय मशरख में दल विशेष के प्रभावशाली माने जाने वाले धुव्र राय के चचेरे भाई हैं और वे एक बडे राजनेता के करीबी हैं।

छपरा में मिड-डे मील से 22 की मौत
बिहार के सारण जिले में मध्यान भोजन मामले में दो और बच्चों के दम तोड देने से मृतक संख्या आज बढ़कर 22 हो गई। इस बीच राज्य सरकार ने संदेह जताया कि भोजन जहरीला था। सभी बच्चे छपरा के मसरख प्राइमरी स्कूल में पढ़ते थे। मंगलवार को मिड डे मील की खिचड़ी इनके लिए मौत का निवाला बन गई।

मधुबनी में मिड-डे मील खाने से 50 बच्‍चे बीमार
एक अन्य घटना में मधुबनी जिले में एक सरकारी प्राइमरी विद्यालय में मिड-डे मील योजना के तहत दिया गया भोजन खाने के बाद 50 छात्र बीमार पड़ गए।  मधुबनी से करीब 22 किलोमीटर दूर नवतोलिया माध्यमिक विद्यालय के छात्रों को भोजन परोसा गया था। छात्रों ने आरोप लगाया है कि भोजन में मरी हुई छिपकली मिली। बिहार के शिक्षा मंत्री पी के शाही ने पटना में संवाददाताओं से कहा, 'सब्जी पकाने में इस्तेमाल तेल से दुर्गंध आ रही थी। चिकित्सकों को भोजन और उल्टी में जैविक फॉसफोरस मिला है। इसका मतलब है कि बच्चों को जहरीला भोजन दिया गया।' शाही ने इसमें साजिश की संभावना से इनकार नहीं किया और कहा कि जांच से यह पता चल पाएगा कि बच्चों को जहरीला दुर्घटनावश दिया गया या ऐसा जानबूझकर किया गया।

केंद्र ने बिहार सरकार से मांगी रिपोर्ट
बिहार में मिड-डे मील खाने से 22 बच्चों की मृत्यु के मामले में केंद्र सरकार ने राज्य सरकार से रिपोर्ट मांगी है और बच्चों की मौत के पीछे विषाक्त भोजन के सेवन की आशंका जताई है। मानव संसाधन विकास मंत्री एम एम पल्लम राजू ने यहां संवाददाताओं से कहा, 'यह बहुत दुखद घटना है और हमें बच्चों की मौत को लेकर गहरा दुख है।' अधिकारियों के मुताबिक मंत्रालय ने बिहार सरकार से एक रिपोर्ट मांगी है, वहीं स्कूली शिक्षा सचिव राजर्षि भट्टाचार्य ने बुधवार सुबह बिहार के मुख्य सचिव से बातचीत की।

पासवान ने नीतीश से मांगा इस्तीफा
मिड-डे मील खाने से 22 स्कूली बच्चों की मौत के लिए बिहार सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए लोजपा नेता राम विलास पासवान ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इस्तीफे की मांग करते हुए कहा कि घटना की जांच उच्च न्यायालय के किसी वर्तमान न्यायाधीश द्वारा करानी चाहिए। पासवान ने पीडि़तों के परिजनों को दिये जाने वाला मुआवजा बढ़ाने की मांग करते हुए कहा कि कम से कम 20 लाख रुपये दिये जाने चाहिए। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की परामर्श समिति के सदस्य पासवान ने आरोप लगाया कि योजना के क्रियान्वयन में अनियमितताएं और भ्रष्टाचार है।