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Saturday, 1 June 2013

कठपुतली के प्रधानमंत्री बनने की कवायद

देश में सूचना अधिकार कानून का आंदोलन शुरू करनेवाली अरुणा रॉय का पहले सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद से इस्तीफा और फिर इस्तीफे के अगले दिन सीधे सीधे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर आरोप कि वे सोनिया गांधी की भी नहीं सुनते, निरा राजनीतिक बयानबाजी भर नहीं हो सकती। अरुणा रॉय खुद उस तरह की राजनीतिक शख्सियत नहीं है कि वे लाभ हानि के आधार पर ऐसी बात कहें जिससे कोई गंभीर विवाद पैदा होता हो। लेकिन उनके आरोप का असर प्रधानमंत्री तक पहुंचा और उन्होंने भी सफाई दी है कि उनका सोनिया गांधी से कोई विवाद नहीं है। कौन सच बोल रहा है? अरुणा रॉय या फिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह? 

अरुणा रॉय का कहना है कि प्रधानममंत्री मनमोहन सिंह नेशनल एडवाइजरी काउंसिल (एनएसी) की सलाह भी नहीं मान रहे है। उन्होंने कई महत्वपूर्ण सिफारिशों को दरकिनार कर दिया है। जो लोग जानते हैं वे जानते होंगे कि एनएसी सरकार के सामानांतर एक सरकार है जो सोनिया गांधी के नियंत्रण में है। ताजा मामला मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी बढ़ोतरी का है। सरकार ने एनएसी की सिफारिशों को नहीं माना। एनएसी ने न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने के लिए सिफारिश की थी। लेकिन सरकार ने उनकी नहीं सुनी। मनरेगा की न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने को लेकर सोनिया गांधी ने भी मनमोहन को पत्र लिखा था। मनमोहन सिंह ने नहीं माना। यह संकेत है कि रिमोट से कठपुतली निकलने की कवायद में है और कांग्रेस के अंदर सत्ता का संघर्ष जारी है। कमजोर होते कांग्रेस के लिए यह  सत्ता संघर्ष काफी मुश्किल ला सकता है।
कुछ दिन पहले ही यूपीए-2 के चार साल पूरे हुए थे। एक जोरदार जश्न का आयोजन दिल्ली में किया गया। मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार की रिपोर्ट कार्ड पेश की। भ्रष्टाचार और घोटालों से लबालब सरकार उपलब्धियां बताने में पीछे नहीं रही। लेकिन जश्न के वक्त ही पता चला कि सरकार में सबकुछ ठीकठाक नहीं। सत्ता के दो केंद्रों के बीच जोरदार जंग चल रही है। नहीं तो जश्न के वक्त ही सोनिया गांधी को सफाई देने की जरूरत नहीं थी। सोनिया गांधी ने सफाई दी की मनमोहन सिंह से उनका कोई मतभेद नहीं है। वो पूरी तरह से मनमोहन सिंह के साथ खड़ी है। इसी सफाई ने संकेत दिया कि यूपीए -2 के दो केंद्रों के बीच गंभीर संकट है। सोनिया और मनमोहन के बीच मतभेद बढ़े हुए है। बात जब बाहर आयी तो सफाई दी जा रही है।

सोनिया और मनमोहन के बीच मतभेद के संकेत तो काफी समय से मिल रहे है। इसका मुख्य कारण मनमोहन सिंह की बढी लालसा है। वो तीसरी बार भी पीएम बनने की जुगत में लग गए है। उनके इस जुगत और इच्छा की भनक सोनिया के कुछ समर्थकों को पहले ही लग गई थी। तभी दिग्विजय सिंह ने सत्ता के दो केंद्रों पर सवाल उठाया था। लेकिन बीते दिनों मतभेद काफी गहरे हो गए है। दो मंत्रियों के इस्तीफे के वक्त मतभेद खुलकर सामने आए। मनमोहन सिंह के खास दो मंत्री अश्विनी कुमार और पवन बंसल के इस्तीफे के लेकर जोरदार ड्रामा हुआ। संकेत दिए गए कि सोनिया भ्रष्टाचार के प्रति कठोर है। वे दोनों मंत्रियों का इस्तीफा चाहती है। लेकिन मनमोहन दोनों मंत्रियों को रखना चाहते है। ये सारा कुछ एक योजना के तहत संगठन में सोनिया के लोगों ने प्रचारित किया। ताकि मनमोहन सिंह की तीसरी बार पीएम बनने की इच्छा पर जोरदार चोट की जाए।
इधर पवन बंसल भी प्रधानमंत्री के आश्वासन से काफी आश्वस्त थे। वो इतने आश्वस्त थे कि सोनिया के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल का फोन तक नहीं उठा रहे थे। बताया जाता है कि मनमोहन ने पवन बंसल को कहा था कि उन्हें इस्तीफा देने की जरूरत नहीं है। इस्तीफा लेने का अधिकार पीएम को है सोनिया गांधी को नहीं। अहमद पटेल ने कई बार फोन किया। लेकिन बंसल ने फोन नहीं लिया। हालांकि अश्विनी कुमार से इतनी नाराजगी सोनिया की नहीं थी। लेकिन मनमोहन सिंह की लॉबी में शामिल होना उन्हें महंगा पड़ा। लेकिन कोलगेट घोटाले में सुप्रीम कोर्ट के सख्त रवैये के बहाने सोनिया ने मनमोहन सिंह की इच्छा पर चोट करने की योजना बनायी। उन्होंने अश्विनी कुमार की भी बलि ले ली।
सोनिया की परेशानी इस समय मनमोहन का बड़ा गुट है। ये गुट पंजाब लॉबी है। इस लॉबी को बहुत चालाकी से मनमोहन सिंह ने खड़ा किया। काफी तरीके से मनमोहन सिंह ने अंबिका सोनी को अपने पक्ष में किया। अश्विनी कुमार और पवन बंसल के बढ़े कद के पीछे भी मनमोहन ही थे। सोनिया ने काफी मुश्किल से अंबिका सोनी की छुट्टी मंत्रिमंडल से करवायी। लेकिन मनमोहन सिंह के गुट के दूसरे नेताओं पर भी उनकी नजर थी। पवन बंसल लगातार मजबूत हो रहे थे। पहले उनके पास वित्त मंत्रालय था। बाद में संसदीय कार्य मंत्रालय में उन्हें जगह मिली थी। इसके बाद रेल मंत्रालय उन्हें मिला। पर कांग्रेस को इस बात की नाराजगी थी पार्टी फँड में उन्होंने कुछ नहीं दिया था। उपर से मनमोहन सिंह गुट के महत्वपूर्ण सिपाही बन बैठे थे।
सोनिया गांधी किसी भी तरह प्रधानमंत्री पद पर राहुल की ताजपोशी चाहती है। लेकिन मनमोहन की ताजी इच्छा ने उन्हें परेशान कर दिया। उपर से जमीनी संकेत अच्छे नहीं है। पार्टी की हार के संकेत 2014 में मिलने लगे है। उधर दामाद राबर्ट वढ़ेरा के कारण उनकी परेशानी अलग बढ़ी है। इस बीच मनमोहन सिंह इस पूरी स्थिति का फायदा उठाने में लगे है।मनमोहन सिंह अपनी तीसरी पारी की इच्छा रखते हुए कुछ अहम सुधार चाहते है। इसमें सीबीआई की स्वायतता संबंधी सुधार है। लेकिन सोनिया उनके इस पहल से नाराज है। सोनिया के दबाव में ही सीबीआई की स्वायतता को लेकर बनाए गए ग्रुप ऑफ मिनिस्टर में प्रमुख के तौर पर पी चिंदबरम को रखा गया है। ताकि सीबीआई की स्वायतता के मसले को टाला जा सके। सीबीआई की स्वायतता भविष्य में सोनिया की मुश्किलें बढ़ाएगी। इस सच्चाई को सोनिया गांधी समझती है।
मनमोहन की इच्छा शक्ति को समर्थन राष्ट्रपति भवन से भी मिल रहा है। कांग्रेस से बाहर होने के बाद भी प्रणव मुखर्जी का खास लोग कांग्रेस में सक्रिय है। प्रणव मुखर्जी इस बात को नहीं भूले है कि सोनिया गांधी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने से रोका। और तो और कई बार नीचा दिखाने के लिए उनके मंत्रालय में बार-बार बदलाव किया गया पहले रक्षा मंत्रालय उन्हें दिया गया। जब वे रक्षा मंत्रालय में जम गए तो विदेश मंत्रालय में भेज दिया गया। वहां फिर जब वो जमने लगे तो वित्त मंत्रालय में भेज दिया गया। सोनिया के इशारे पर पी चिंदबरम ने प्रणव मुखर्जी को परेशान करने की पूरी रचना रची। उनके कार्यालय में टेपिंग के उपकरण लगा दिए गए थे। प्रणव मुखर्जी को इस बात की जानकारी है कि सोनिया ने राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार उन्हें मजबूरी में बनाया। सोनिया की वास्तविक पसंद उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी थे। लेकिन अंतिम समय में यूपीए गठबंधन में शामिल कुछ लोग दल और एनडीए की योजना में सोनिया फंस गई। सोनिया को मजबूरी में प्रणव मुखर्जी को उम्मीदवार बनाना पड़ा। सोनिया को इस समय प्रणव मुखर्जी का भय भी सता रहा है।
सोनिया गांधी की चिंता अपने सिपाहियों को लेकर भी है। सोनिया को लड़ने के लिए योग्य सिपाही अब नहीं मिल रहे है। सोनिया के सिपाही उन्हें मजबूत करने के बजाए विवादित ब्यान देकर सोनिया को फंसाते है इससे सोनिया गांधी की स्थिति कमजोर होती है। उधर मनमोहन सिंह चुप रहते हुए अपना सारा काम करते है। दिग्विजय सिंह लगातार विवादित ब्यान देकर यह  साबित करना चाहते है कि दस जनपथ के सबसे बड़े हितैषी वही है। लेकिन सोनिया के कुछ खास नजदीकी लोग दिग्गी राजा पर भरोसा नहीं करने की सलाह सोनिया गांधी को देते है। दिग्विजय सिंह विरोधी गुट साफ तौर पर कहता है कि कांग्रेस को राज परिवारों ने धोखा दिया। इस तरह की बातें करने में जनार्दन दिवेदी और अहमद पटेल जैसे लोग शामिल है। उधर जनार्दन दिवेदी पर भरोसा नहीं करने की सलाह भी कांग्रेस की एक लाबी देती है। उनका कहना है कि द्विवेदी समाजवादी है और कांग्रेस को अंदर बैठकर नुकसान करते है। उन्होंने कई समाजवादियों को कांग्रेस के अंदर फिट किया है। उन्हें अच्छी जगहों पर बिठा अपना गुट बना रहे है। इसमें मोहन प्रकाश जैसे लोग शामिल है। समाजवादी पृष्ठभूमि के ये नेता दिल से कभी नेहरू गांधी परिवार के साथ नहीं हो सकते है।

उधर, कांग्रेस की एक लॉबी इस बात का प्रचार करने से बाज नहीं आती कि देशी रियासतों के प्रति इंदिरा गांधी के स्टैंड के कारण आजतक देश के अधिकतर राजघराने नेहरू गांधी परिवार से नाराज है। इन राजघरानों के प्रतिनिधि रहते तो कांग्रेस में है लेकिन वे मौका मिलते ही कांग्रेस को चोट पहुंचाने से बाज नहीं आते है। इसका प्रमुउख उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह थे। उन्होंने मौके पर कांग्रेस को इस तरह से रगड़ा कि कांग्रेस आजतक अपने पैर पर खड़ा होने योग्य नहीं रही। बैशाखी पर ही कांग्रेस 1991 से चल रही है। स्वर्गीय अर्जुन सिंह भी कई बार मंत्रिमंडल में बैठे-बैठे अपना खेल करते रहे। उनकी कई कार्रवाइयों से यूपीए-1 की सरकार की मुश्किलें बढी थी। दिग्विजय सिंह भी इसी परंपरा के है। जो अपने ब्यानों और कार्रवाई से सोनिया गांधी को लगातार फंसाते रहे है।

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