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Monday, 10 June 2013

लाल कृष्ण आडवाणी की व्यथा

आज एलके आडवाणी कोप भवन में है। जिस नरेंद्र मोदी को गुजरात दंगों के बाद बचाया था वही मोदी ने आडवाणी का रास्ता रोक दिया है। आडवाणी आज नमो के नारे को व्यक्ति पूजा बता रहे है। लेकिन आडवाणी की व्यथा देखिए। आज संघ परिवार उनके साथ नहीं है।

अगर कांग्रेस में पीएम बनने के लिए सोनिया गांधी का आशीर्वाद चाहिए तो भाजपा में संघ परिवार का। संघ परिवार आडवाणी को त्याग चुका है। उनके कई समर्थक उनके दामन को छोड़ चुके है। इसके कई कारण है। कई निजी कारण से अगर आडवाणी का साथ छोड़ चुके है तो कई सत्ता के साथ रहने के लिए आडवाणी का साथ छोड़ चुके है। जो बचे है उनका आधार खत्म है। सिर्फ अनंत कुमार और सुष्मा स्वराज के सहयोग से आडवाणी अब पार्टी के अंदरूनी संघर्ष में विजयी होंगे यह दूर की कौड़ी की बात है।

एलके आडवाणी की अपनी समस्या है। वो इस बात को भूल गए कि अगर कोई नेता इस देश में जाति से मजबूत नहीं है तो किसी बड़े हस्ती की छत्रछाया उसे चाहिए। जैसे सोनिया गांधी की छत्रछाय़ा मनमोहन सिंह को मिली। मनमोहन सिंह भाग्यशाली थे। उन्हें यह छत्रछाया मिली और पीएम बन गए। आडवाणी इस बात को भूल गए कि अटल बिहारी वाजपेयी में तमाम गुणों के साथ एक गुण और था। यह गुण उन्हें उतर भारत से लेकर मध्य भारत और पूर्व भारत तक मजबूत करता था।

ये गुण उन्हें जन्मजात मिला था। वो ब्राहमण परिवार में पैदा हुए थे। इस जाति की मजबूती आडवाणी जी अभी तक महसूस नहीं कर पा रहे है। अगर इस जाति की अहमियत को वे अभी भी समझना चाहते है तो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के ब्राहमण सम्मेलनों को गौर से देखे। लेकिन एलके आडवाणी के साथ  ब्राहमण तो क्या होंगे उनके अपने ही नहीं है। आज अडानी से लेकर अंबानी तक नरेंद्र मोदी के साथ हो गए है। ये दोनों कारपोरेट अपने बिरादर भाई आडवाणी को छोड़ नरेंद्र मोदी के गुणगाण में लगे है। आडवाणी की योग्यता को उनके स्वजातीय कारपोरेट भी स्वीकार करने को राजी नहीं है।

आडवाणी भाजपा संस्कृति में पले बढ़े जरूर है। लेकिन वे वो नेता है जो सत्ता प्राप्त करने के लिए हर तरह के खेल करते है। अगर उन्होंने सत्ता प्राप्त करने के लिए रथयात्रा का नेतृत्व किया तो भारत विभाजन के जिम्मेदार मोह्ममद अली जिन्ना को सेक्यूलर भी बता दिया। यानि की सत्ता प्राप्त करने के लिए आडवाणी ने हर खेल को खेला। इसके बावजूद उन्हें पीएम की कुर्सी नहीं मिली। 2009 में एक बार पार्टी ने उन्हें दाव पर लगाया लेकिन पार्टी पहले से भी ज्यादा नुकसान में रही। सीटें कम हो गई। यानि की जनता के बीच उनकी लोकप्रियता वो नहीं थी जो  अटल बिहारी वाजपेयी की थी।

अटल बिहारी वाजपेयी सर्वमान्य थे। पार्टी और पार्टी से बाहर हर जगह उनकी बातों का वजन था। हालांकि यह भी सच्चाई है कि अटल बिहारी वाजपेयी की पांच साल तक चली सरकार के कार्यकाल में एलके आडवाणी ने वाजपेयी को डिस्टर्ब करने के लिए हर खेल को खेला। सरकार कई जगह फंसती नजर आयी। उसके लिए देश का विपक्षी दल कांग्रेस जिम्मेवार नहीं था। उसके लिए पार्टी के अंदर सक्रिय आडवाणी गुट ही जिम्मेदार था जो किसी भी कीमत पर अटल बिहारी वाजपेयी को अपदस्थ कर सत्ता को हथियाने के खेल में लगा था।

अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार अगर रक्षा सौदा घोटाले और पेट्रोल पंप घोटाले में फंसी थी तो उसके लिए जिम्मेवार कांग्रेस कतई नहीं थी। इसे तो पार्टी के अंदर ही सक्रिय एक ग्रुप ने अंजाम दिया था। उनका ख्याल था कि इस खेल के बाद अटल बिहारी वाजपेयी इस्तीफा देंगे और पीएम पद पर एलके आडवाणी की ताजपोशी हो जाएगी।

लेकिन आज नरेंद्र मोदी भाजपा में सक्रिय सारे गुटों पर भारी पड़ रहे है। उसके पीछे कई कारण है। अगर देश के कई कारपोरेट उनके साथ है तो भाजपा के नीचले स्तर के कार्यकर्ता भी उनके साथ है। मोदी की लोकप्रियता क्या है, इसे बिहार के महराजगंज लोकसभा उपचुनाव के परिणाम में देखा जा सकता है।

बड़े पैमाने पर ऊंची जातियों के लोगों ने नितिश कुमार के खिलाफ खड़े राजद उम्मीदवार को वोट सिर्फ इसलिए दिया कि नितिश कुमार नरेंद्र मोदी का लगातार विरोध कर रहे थे। आज बिहार में तस्वीर साफ हो गई। अगर भाजपा से गठबंधन टूटा तो नितिश कुमार तीसरे नंबर पर जाएंगे। अगर नितिश कुमार को अतिपिछड़ा और महादलित कार्ड पर भरोसा है तो नरेंद्र मोदी को ऊंची जातियों समेत प्रदेश के वैश्य समुदाय का भारी समर्थन बिहार में मिलेगा।

एलके आडवाणी धारा के विपरित तैर रहे है। समय की चाल को वो नहीं समझ रहे है। 2009 में पार्टी की कमान उनके पास थी। लेकिन वो हार गए। जबकि नरेंद्र मोदी लगातार जीत रहे है। उपचुनाव के परिणाम 5 जून को आए। नरेंद्र मोदी की सफलता की दर काफी है।

भाजपा ने तो सिर्फ दो लोकसभा सीटें जीती लेकिन नरेंद्र मोदी के खाते में तीन लोकसभा सीटें आयी है। आडवाणी कैंप में जो लोग है उनका जनाधार नहीं है। सुष्मा स्वराज और अनंत कुमार के बल पर आडवाणी लंबी लड़ाई नहीं लड़ सकते है। यदुरप्पा को लेकर ज्यादा हायतौब्बा एलके आडवाणी कैंप ने ही मचाया था। इसका परिणाम कर्नाटक में सामने आ गया। 

भाजपा हाशिए पर आ गई। सच्चाई तो यह भी है कि आडवाणी कैंप ने ही मोदी को रोकने के लिए नितिश जैसे हथियार का प्रयोग किया। लेकिन आज नितिश भी औंधे मुंह गिरते नजर आ रहे है। यानि की नमो-निया नामक वायरस इतना खतरनाक हो चुका है कि जिसके अंदर घुसेगा वो गिरेगा। अब फैसला तो एलके आडवाणी ने ही लेना है।

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