विजय विद्रोही
बीजेपी नेता और महाराष्ट्र के बीड से सांसद गोपीनाथ मुंडे का बड़बोलापन उन पर भारी पड़ सकता है. मुंडे का कहना है कि उन्होंने अपने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान आठ करोड़ रुपये खर्च किये थे. चुनाव आयोग ने यह सीमा चालीस लाख तय की है.
आयोग ने मुंडे से उनका पक्ष जानने का फैसला किया है और आरोप सही पाए जाने पर मुंडे की लोकसभा से सदस्यता तो जाएगी ही साथ ही अगले तीन सालों तक उनके चुनाव लड़ने पर रोक भी लगाई जा सकती है. लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या वास्तव मे चालीस लाख रुपये में लोक सभा का चुनाव लड़ा जा सकता है.चालीस लाख में चुनाव लड़ना असंभव है-एक लोकसभा सीट में लगभग छह से आठ विधान सभा क्षेत्र आते हैं. अगर विधानसभा के लिए चुनाव आयोग ने 25 लाख की सीमा तय की है तो ऐसे में लोकसभा के लिए डेढ से दो करोड़ रुपये रखे जाने चाहिए. एक लोकसभा क्षेत्र में आमतौर पर दस से पंद्रह लाख वोटर होते हैं.
क्या आज की तारीख में मंहगाई के इस दौर में चालीस लाख रुपये में दस बारह लाख वोटरों तक पहुंचा जा सकता है. वो दिन गये जब कार्यकर्ता अपनी जेब से पैसा लगाया करते थे. अब पेट्रोल से लेकर चाय नाश्ते तक के पैसे देने पड़ते हैं. इलाके में जगह जगह कार्यालय खोलने पड़ते हैं. वहां दरी, कनात, कुर्सियों की जरुरत पड़ती है, कार्यकर्ता बैठाने पड़ते हैं. रोज का चाय नाश्ते का खर्चा ही हजारों में पहुंचता है.
बैनर पोस्टर छपवाना, अखबारों और टीवी पर विज्ञापन, इन सब कामों में पैसा खर्च होता है. कम से कम पंद्रह बीस दिन तो जम कर प्रचार करना पड़ता है. कम से कम एक दर्जन टोलियां बनानी पड़ती है जो दिन रात चुनाव प्रचार में जुटी रहें.इन सब पर भी डीजल, खाने पीने आदि के तमाम खर्चे होते हैं. यह वो खर्चे हैं जो साफ नजर आते हैं. कभी कभी किसी निर्दलीय को विरोधी के वोट काटने के लिए खड़ा करना पड़ता है उसका खर्च उठाना पड़ता है. कभी निर्दलीय को बैठाने के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है. बाकी तो आप जानते ही हैं कि शाम की दवा की भी व्यवस्था करनी पड़ती है. कार्यकर्ता भी शाम की दवा मांगता है और वोटर भी. यह सच है कि पार्टी भी पैसा देती है लेकिन चालीस लाख रुपयों में चुनाव शायद लड़ा नहीं जा सकता. सवाल उठता है कि अगर चालीस लाख में चुनाव नहीं लड़ा जा सकता तो फिर राजनीतिक दल चुनाव आयोग से सीमा बढ़ाने की सिफारिश क्यों नहीं करते.
चुनाव आयोग सख्त हुआ है. वो हर जगह पोस्टर बैनर लगाने की इजाजत नहीं देता. कारवां में चलने वाली गाड़ियों की संख्या भी सीमित की गई हैं. अगर आपने काम किया है, विकास करवाया है, अपने सांसद कोष की पाई पाई जनता के लिए खर्च की है तो फिर आप को क्यों जन सम्पर्क पर पैसा पानी की तरह बहाना चाहिए. अगर आप बड़े राष्ट्रीय दल से हैं तो तय है कि आप की पार्टी को लोग जानते हैं, चुनाव चिन्ह पहचानते हैं और राष्ट्रीय नेताओं के दौरे भी होते रहने से जनता के बीच आप चर्चा में सदा रहते हैं. ऐसे में क्यों पैसा ज्यादा खर्च होना चाहिए. जगह जगह चुनाव कार्यालय खोलने के बजाय उनकी संख्या सीमित कर सकते हैं. कार्यालय कार्यकर्ता के घर पर भी खोला जा सकता है अगर आपने अपने कार्यकर्ता को पूरे पांच साल ख्याल रखा है तो. अगर आपने वास्तव में विकास करवाया है तो आपको न तो निर्दलीय खरीदने की जरुरत है और न ही उनको बैठाने या लड़ाने की. अगर आपने अपने क्षेत्र में काम करवाए हैं तो आपको न शराब बंटवाने की जरुरत है और न ही कोई अन्य लालच देने की.
यह लगभग तय है कि चालीस लाख में चुनाव लड़ा नहीं जा सकता. कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि इस से ज्यादा पैसा तो कालेज के चुनावों में खर्च हो जाता है. जब से पंचायतों को सरकारी पैसा मिलने लगा है तब से सरपंच के चुनाव में ही एक एक करोड़ रुपए खर्च होने की खबरें आती रहती है. चुनाव आयोग पेड न्यूज से परेशान है. यह सब चालीस लाख की सीमा बांधने से ही हो रहा है. पैसा ज्यादा खर्च होता है नेता इधर उधर से पैसा लेते हैं और सत्ता में आने के बाद पैसा वापस करने में भ्रष्टाचार होता है. मददगारों को ठेके दिए जाते हैं, कुछ अन्य काम उन्हें दिया जाता है. चुनाव खर्च का पैसा जुटाने में गड़बड़ी की जाती हैं. चुनाव सुधार पर जोर नहीं दिया जाता. गोपीनाथ मुंडे ने अनजाने में जो सच सामने रखा है उसपर आगे बहस की तगड़ी गुंजायश हैं.
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