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Tuesday, 31 December 2013

वर्ष 2014 न्याय का वर्ष




2014 का कैलेंडर हमारी आज़ादी के साक्षी वर्ष 1947 के समान है| तारीख के साथ दिन,वार और जयंतियां सब एक ही तारीख में एक समान पड़ रहे हैं। एक और खास बात यह है कि दोनों वर्षों का प्रारंभ बुधवार और समाप्ति भी बुधवार से ही हो रही। विशेषज्ञ के मुताबिक यह हैप्पी क्लोन कैलेंडर है। नए साल के कैलेंडर में जरा भी फर्क नहीं है। इस तरह कहा जा सकता है कि आजादी का वर्ष लौट आया है। उल्लेखनीय है कि 1947 को देश आजाद हुआ था। इस लिहाज से इस वर्ष का एक-एक दिन, तिथि व समय काफी अहमियत रखता है। दोनों वर्षो की शुरुआत बुधवार से हुई और समाप्ति का दिन भी बुधवार ही है।
15 अगस्त, 1947 को जिस दिन आजादी मिली, उस दिन भी शुक्रवार था। नए साल में भी यह तारीख शुक्रवार को पड़ रही है। 1947 और 2014 का कैलेंडर एक जैसा होने के बाद भी त्योहारों की तिथि और वार अलग-अलग हैं। 1947 में महाशिवरात्रि 18 फरवरी, होली 6 मार्च, रक्षाबंधन 31 अगस्त, दशहरा 24 अक्टूबर व दिवाली 12 नवंबर को थी, जबकि 2014 में महाशिवरात्रि 27 फरवरी, होली 17 मार्च, रक्षाबंधन 10 अगस्त, दशहरा 4 अक्टूबर व दिवाली 23 अक्टूबर को होगी। मंगलवार की आधी रात बारह बजते ही 70 साल पहले देश के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज 1947 का आईना बना कैलेंडर 2014 में इतिहास दोहराएगा। वर्ष 1947 के कैलेंडर और वर्ष 2014 के कैलेंडर में जरा भी फर्क नहीं है। न तारीख में अंतर, न दिन में। ग्रह व नक्षत्रों की स्थिति भी एक जैसी। उत्सुकता इस बात को लेकर ज्यादा है कि वर्ष 1947 ब्रि‌टिश हुकूमत को देश से बाहर करने में गवाह बना था।
ज्योतिषाचार्य के मुताबिक आने वाला साल राजपाठ में परिवर्तन के योग बना रहा है। आने वाले वर्ष में हमें ऐसे बदलाव देखने को मिलेंगे जो हमारे जीवन को सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक तौर पर ऐसा बदलेंगे जिसकी हमने कामना भी नहीं की होगी| राजनैतिक आकाश में एक नए जननायक का उदय होगा जो समाज और देश को नयी दिशा और दशा देगा| गृह नक्षत्र की चाल बताते है कि ये वर्ष देश और मानव जीवन दोनों के लिए उत्साह लाने वाला साबित होगा| ये वर्ष न्याय वर्ष के तौर पर इतिहास में अपनी पहचान बनाएगा| कई बड़ी हस्तियों का पतन होगा तो कई ऐसे नायक सामने आएंगे जो देश का नाम विश्व में रौशन करेंगे| न सिर्फ देश बल्कि दुनिया के लिए भी ये वर्ष भाड़ी उथल पुथल वाला साबित होगा| हाँ ये उथल पुथल सुखद सन्देश देने वाली होगी| ये वर्ष अपने घटनाक्रमों के चलते अनंत वर्षों तक जाना जायेगा| उनके मुताबिक देश में ऐसे नायक का जन्मा होगा जो भ्रस्ट तंत्र को उखाड़ने के लिए जन मानस को खड़ा करेगा| राजनैतिक शुद्धि, सामाजिक शुद्धि की ओर ये वर्ष कदम उठाने वाला है| फिलहाल 2014 इतिहास के जिन्दा होने जैसा अनुभव लाने वाला है|
बीते 62 बरस की सियासत में कभी यह सवाल नहीं उभरा कि राजनीतिक विचारधारायें बेमानी लगने लगी हैं। संविधान के सामाजिक सरोकार नहीं हैं। सत्ता सरकार और हर घेरे में ताकतवर की अंटी में बंधी पड़ी है। लेकिन पहली बार 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से बनी सत्ता ने महात्मा गांधी की उस लकीर पर ध्यान देने को मजबूर किया जो नेहरु के एतिहासिक भाषण को सुनने की जगह बंद अंधेरे कमरे में बैठकर 15 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी ने ही खींची थी। तो क्या मौजूदा वक्त में समूची राजनीतिक व्यवस्था को सिरे से उलटने का वक्त आ गया है। या फिर देश की आवाम अब प्रतिनिधित्व की जगह सीधे भागेदारी के लिये तैयार है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि एक तरफ दिल्ली में ना तो कोई ऐसा महकमा है और ना ही कोई ऐसी जरुरत जो पहली बार नयी सरकार के दरवाजे पर इस उम्मीद और आस से दस्तक ना दे रही हो, जिसे पूरा करने के लिये सियासी तिकड़म को ताक पर रखना आना चाहिये। पानी, बिजली, खाना, शिक्षा, इलाज,घर और स्थायी रोजगार। ध्यान दें तो बीते 62 बरस की
सियासत के यही आधार रहे । और 1952 में पहले चुनाव से लेकर 2014 के लिये बज रही तुतहरी में भी सियासी गूंज इन्ही मुद्दों की है। तो क्या बीते 62 बरस से देश वहीं का वहीं है। हर किसी को लग सकता है कि देश को बहुत बदला है । काफी तरक्की देश ने की है । लेकिन बारीकी से देश के संसदीय खांचे में सियासी तिकड़म को समझे तो हालात 1952 से भी बदतर नजर आ सकते हैं। फिर 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से होने वाले असर को समझना आसान होगा। देश के पहले आम चुनाव 1952 में कुल वोटर 17 करोड 32 लाख थे। और इनमें से 10 करोड़ 58 लाख वोटरों ने वोट डाले थे। और जिस कांग्रेस को चुना उसे 4 करोड़ 76 लाख लोगों ने वोट डाले गये। वहीं 2009 में कुल 70 करोड़ वोटर थे। इनमें से सिर्फ 29 करोड़ वोटरों ने वोट डाले। और जो कांग्रेस सत्ता में आयी उसे महज 11 करोड़ वोटरों ने वोट दिये। जबकि 1952 के वक्त के चार भारत 2009 में जनसंख्या के लिहाज से भारत है। तो पहला सवाल जिस तादाद में 1952 में पानी, शिक्षा , बिजली, खाना, इलाज , घर या रोजगार को लेकर तरस रहे थे 2013 में उससे कही ज्यादा भारतीय नागरिक उन्हीं न्यूतम मुद्दों को लेकर तरस रहे हैं। तो फिर संसदीय राजनीतिक सत्ता कैसे और किस रुप में आम आदमी के हक में रही।
2014 के लिये यह सोचना कल्पना हो सकता कि 21 मई 2014 को जब देश में नयी सरकार शपथ लें तो वह वाकई आम आदमी के मैनिफेस्टो पर बनी सरकार हो। जहां राजनीतिक विचारधारा मायने ना रखे। जहा वामपंथी या दक्षिणपंथी धारा मायने ना रखे। जहां जातीय राजनीति या धर्म की राजनीति बेमानी साबित हो। और देश के सामने यही सवाल हो पहली बार हर वोटर को जैसे वोट डालने का बराबर अधिकार है वैसे ही न्यूनतम जरुरत से जुड़े आधे दर्जन मुद्दो पर भी बराबर का अधिकार होगा। तो पानी हो या बिजली या फिर इलाज या शिक्षा । और रोजगार या छत । इस दायरे में देश में मौजूदा अर्थव्यवस्था के दायरे में अगर वाकई प्रति व्यक्ति आय 25 से 30 हजार रुपये सालाना हो चुकी है । तो फिर उसी आय के मुताबिक ही सार्वजनिक वितरण नीति काम करेगी। सरकार के आंकड़े कहते है कि देश में प्रति व्यक्ति आय हर महीने के ढाई हजार रुपये पार कर चुके है तो फिर इस दायरे में तो हर परिवार को उतनी सुविधा यू ही मिल जानी चाहिये जो सब्सिडी या राजनीतिक पैकेज के नाम पर सियासी अर्थव्यवस्था करती है। यह सीख 2013 से निकल कर 2014 के लिये इसलिये दस्तक दे रही है क्योंकि दिल्ली चुनाव में जो जीते है वह पहली बार सरकार चलाने के लिये सत्ता तक चुनाव जीत कर नहीं पहुंचे बल्कि समाज में जो वंचित है, उन्हें उनके अधिकारों को पहुंचाने की शपथ लेकर पहुंचे हैं। और पारंपरिक राजनीति के लिये यह सोच इसलिये खतरनाक है क्योंकि यह परिणाम हर अगले चुनाव में कही ज्यादा मजबूत होकर उभर सकते हैं। क्योंकि 2014 के चुनाव के वक्त देश में कुल 75 से 80 करोड़ तक वोटर होंगे। और पारंपरिक राजनीति को सत्ता में आने के लिये 12 से 15 करोड वोटर की ही
जरुरत पड़ेगी। लेकिन यह आंकडे तब जब देश में 35 से 37 करोड़ तक ही वोट पड़ें । लेकिन आम आदमी की भागेदारी ने अगर दिल्ली की तर्ज पर 2014 में समूचे देश में वोट डाले तो वोट डालने वालों का आंकड़ा 45 से 50 करोड़ तक पहुंच सकता है। यानी जो पारंपरिक राजनीति 12 से 15 करोड तक के वोट से सत्ता में पहुंचने का ख्वाब देख रही है, उसके सामानांतर झटके में आम आदमी 8 से 10 करोड़ नये वोटरो के साथ खड़ा होगा और जब पंरपरा टूटती दिखेगी तो 5 करोड़ वोटर से ज्यादा वोटर जो जातीय या धर्म के आसरे नहीं बंधा है या खुद को हर बार छला हुआ महसूस करता है, वह भी खुद को बदल सकता है। तब देश में एक नया सवाल खड़ा होगा क्या वाकई काग्रेस -भाजपा या क्षत्रपो की फौज अपने राजनीतिक तौर तरीको को बदलगी। क्योंकि आम आदमी की अर्थव्यवस्था को जातीय खांचे या वोट बैंक की राजनीति या फिर मुनाफा बनाकर सरकार को ही कमीशन पर रखने वाली निजी कंपनियो या कारपोरेट की अर्थव्यवस्था से अलग होगी । तब क्या विकास का सवाल पीछे छूट जायेगी। या फिर 1991 में विकास के नाम पर जिस कारपोरेट या निजी कंपनियो के साथ सियासी गठजोड ने उड़ान भरी उसपर ब्रेक लग जायेगा । यह सवाल आपातकाल से लेकर मंडल-कंमडल या खुली बाजार अर्थव्यवस्था के दायरे में बदली सत्ता के दौर में मुश्किल हो सकता है। लेकिन 2013 के बाद यह सवाल 2014 में मुश्किल इसलिये नहीं है क्योंकि अरविन्द केजरीवाल ने कोई राजनीतिक विचारधारा खिंच कर खुद पर ही सत्ता को नहीं टिकाया है बल्कि देश के सामने सिर्फ एक राह बनायी है कि कैसे आम आदमी सत्ता पलट कर खुद सत्ताधारी बन सकता है । इसलिये दिल्ली में केजरीवाल फेल होते हैं या पास सवाल यह नहीं है। सवाल सिर्फ इतना है कि 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम ने 2014 के चुनाव को लेकर एक आस एक उम्मीद पैदा की है कि आम आदमी अगर चुनाव को आंदोलन की तर्ज पर लें तो सिर्फ वोट के आसरे वह 62 बरस पुरानी असमानता की लकीर को मिटाने की दिशा में बतौर सरकार पहली पहल कर सकता है।

Monday, 30 December 2013

भारतवासियों को नए वर्ष कि हार्दिक शुभकामनायें - पूर्वांचल विकास मोर्चा


सभी भारतवासियों को आने वाले नए साल कि शुभकामनाओं के साथ मैं उकना ध्यान बीते वर्ष कि कुछ विशेष घटनाओं पर ले जाना चाहता हूँ। २०१३ काफी उथल पुथल भरा साल रहा है।  जहाँ एक तरफ कांग्रेस को ४ राज्यों के विधानसभा चुनावों में करारी शिकश्त मिली और उसका सूपड़ा साफ़ हो गया वही दूसरी ओर आम आदमी पार्टी को दिल्ली में अप्रत्याशित सफलता मिली। यह साल भाजपा के लिए भी काफी अच्छा रहा और उन्हें चुनावों मैं भरी सफलता मिली।  जहाँ कांग्रेस को अपने कुशाशन और भ्रस्टाचार कि वजह से नुकसान उठाना पड़ा वहीँ भाजपा ने मोदी को आगे करके और गुजरात मॉडल को जनता के सामने रख कर जनता का विश्वास जीता।
इस साल के शरुआत मैं ही चीन ने लद्दाख के दौलत बेग ओल्डी हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया लेकिन भारत सरकार नपुंसक कि तरह टालमटोल करती रही , यही नहीं पाकिस्तान ने जब हमारे दो सैनिकों कि हत्या कर दी और एक का तो सर ही काट ले गए तो भी सरकार को शर्म नहीं आयी और आज तक कोई कार्यवाही नहीं हुई है।  यह कांग्रेस कि कमजोर विदेश और रक्षा नीतियों का ही परिणाम है।  महगाईं से पूरे साल जनता तस्त्र रही है और अभी भी कम होने का नाम नहीं ले रही हालत यह कि प्याज के दाम १०० रुपये किलो तक पहुँच गए और आम जनता के लिए तो एक वक्त कि रोटी भी कहानी मुश्किल हो गया है और ऊपर से कांग्रेसी नेता जले पर नमक छिड़कते हुए कहते हैं कि १२ रुपये मैं थाली मिल जाती है उस पर एक और कदम आगे बढ़ते हुए मोंटेक सिंह अहवालिआ तो यहाँ तक कह देते हैं कि दिन २५ रुपये खर्च करने वाला आदमी गरीब नहीं है।
यह सब बाते कोग्रेस का असली चेहरा ही उजागर करती है। क्यों कि जबसे ये सत्ता मैं आये हैं तबसे देश का बंटाधार कर रहे हैं और जब इन्हे मोदी से चुनौती मिली तो सभी के सभी बौखला गए और आये दिन राहुल गांधी से मोदी कि तुलना करने लगे है।  अब जब कि देश के सामने इनकी पोल खुल गयी है और ये साबित हो गया है कि राष्ट्रीय और अनतराष्ट्रीय हर मोर्चे पर विफल हो चुकी सोनिया और टीम का गुजरात को विश्व के मानचित्र पर लेन वाले मोदी से कोई तुलना नहीं तो लोग लोक सभा चुनावों में  मोदी को चुनेंगे ऐसा में आशा है। आने वाला साल सबके लिए मंगलमय हो।   जय हिन्द जय भारत

अजित कुमार पाण्डेय ( अध्यक्ष ) पूर्वांचल विकास मोर्चा

पूर्वांचल विकास मोर्चा की तरफ से आप सभी को नए साल की हार्दिक बधाई

नव वर्ष के आगमन पर हार्दिक बधाई।
नव वर्ष शुभ हो।
नव वर्ष आपके जीवन मे उमग लाये।
नया साल आपको नया अनुभव दे।
नव वर्ष आपके लिये हितकारी हो।
नव वर्ष मे हर कदम पर आपको सफलता मिले।
नव वर्ष मे आप फले, फूले।
नया साल आपके लिये लाभदायक हो।
नया साल आपके लिये नयी खुशिया लाये।
नया साल आपको नया उत्साह प्रदान करे।
नव वर्ष सुख- सम्रध्धि से भरपूर हो।
नव वर्ष मे आपकी सभी मनोकामनाये पूरी हो।
नव वर्ष मे भाग्य सदैव आपका साथ दे।
नव वर्ष मे आपकी दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की हो।
**** अजित कुमार पाण्डेय ( अध्यक्ष ) पूर्वांचल विकास मोर्चा  की तरफ से आप सभी को नए साल की हार्दिक बधाई

Friday, 27 December 2013

केजरीवाल जी को दिल्ली के ७वे मुख्यमंत्री बनने कि हार्दिक बधाई



केजरीवाल कांग्रेस के साथमिल कर सरकार तो बनाने में कामयाब हो गए लेकिन ये सरकार चलती कितनी दिन है ये देखना दिलचस्प होगा। केजरीवाल चुनावों के पहले और बाद भी यही राग अलापरहे थे कि वो न भाजपा न ही कांग्रेस को समर्थन देंगे न ही उनसे समर्थन लेंगे।  लेकिन भाजपा के सरकार बनाने से मन कर देने के बाद उन्होंने कांग्रेस से हाथ मिला लिया और जिस पार्टी के खिलाफ ही उनका पूरा आंदोलन था और जिन मुद्दों पर उन्हें चुनावों मैं सफलता हाथ लगी उन सब बातों को भूल कर उन्होंने कांग्रेस से हाथ मिला लिया जो यही जाहिर करता है कि केजरीवाल भी सत्ता के भूखे हैं और ईमानदारी के ढोंग करते हैं।  हलाकि उन्होंने और उनके पार्टी के अन्य लोगो ने जनता कि आँखों मैं खूब धुल झोकी और अंत तक कांग्रेस से हाथ न मिलाने कि बात करते रहे और कुमार विश्वास ने तो कांग्रेस को दो मुह साप तक कह डाला लेकिन आखिर में उसी दो मुहे साप को गले लगा लिया।  केजरीवाल ने किसी तरह जोड़ तोड़ के सरकार तो बना ली लेकिन अपनी बैटन से वो अभी ही मुकरने लग गए हैं।  पहले तो वो सरकार बनने के दस दिनों के अंदर ही बिजली के दाम घटाने कि और मुफ्त पानी देने कि बात कर रहे थे लेकिन अब वो इन बातो से बचने कि कोशिश कर रहे हैं और ऑडिट का हवाला दे रहे हैं कि कम से कम तीन महीने तो बिजली कम्पनियों का ऑडिट करने मैं लग जायेगा।  क्या उनको यह बात पहले नहीं पता थी या अभी पता लगी , निश्चित है कि उन्होंने सिर्फ चुनाव जीतने के लिए इन सब वादों का उपयोग किया, वैसे भी वो वादों से पलटना काफी अच्छे से जानते हैं।  अन्ना के साथ आंदोलन करते समय भी वो यही राग अलाप रहे थे कि उनका आंदोलन गैर राजनितिक होगा ,लेकिन आंदोलन कि सफलता देख उनकी नीयत बदल गयी और उन्होंने पहले तो अन्ना का आंदोलन हाइजैक किया फिर पार्टी भी बना ली।  अभी सरकार पूरी तरह से बनी भी नहीं है कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के लोगो के बीच वाक्युद्ध शुरू हो गया है , कोई किसी को दोमुहा साप और चोर बता रहा है तो कोई भाषा कि गरिमा सिखा रहा है।  जो भी हो कोग्रेस के समर्थन देने के पुराने ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए और आम आदमी पार्टी के बदलते हुए सुरों को देखते हुए इस सरकार का ज्यादा दिन चल पाना मुश्किल लगता है।

अजित कुमार पाण्डेय ( अध्यक्ष ) पूर्वांचल विकास मोर्चा 

Wednesday, 25 December 2013

युगपुरूष अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर हार्दिक शुभकामना







पूर्वांचल विकास मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजीत कुमार पाण्डेय ने कहा कि अपनी पांच दशक लंबी राजनीतिक पारी में  भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी  ने विपक्ष के सशक्त स्वर से लेकर देश के प्रधानमंत्री के पद तक का गौरवमयी सफर तय किया. वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए के शासनकाल को कई विशेषज्ञ आर्थिक वृद्धि तथा अवसंरचना निर्माण के लिहाज से सफलताओं भरा वर्ष मानते हैं. यदि भाजपा के पास अटलजी जैसा सर्वसमावेशी व्यक्तित्व नहीं होता, तो ऐसा गंठबंधन बनना मुश्किल हो जाता. यदि स्वार्थवश कुछ दल इकट्ठे हो जाते भी, तो उन्हें टूटने में ज्यादा समय नहीं लगता. यह अटलजी के व्यक्तित्व की खूबी ही थी कि शरद यादव, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, फारूक जैसे लोग भी उनकी सरकार में सहर्ष काम करते रहे.इतिहास में व्यक्ति की अहम भूमिका होती है. अमेरिका में जॉर्ज वाशिंगटन, अब्राहम लिंकन, सोवियत संघ में लेनिन. ऐसे सैकड़ों उदाहरण विद्यमान हैं. वाजपेयी को उन राजनेताओं में गिना जाना चाहिए, जिनका व्यक्तित्व उन्हें अलग पहचान देता रहा. राजनीति में विचारधारा एवं मूल्य के अतिरिक्त जो तीसरा सबसे महत्वपूर्ण आयाम होता है, वह है पात्रता. जो व्यक्ति अपने व्यवहार और सामाजिक सरोकारों में पारदर्शिता से जीवन जीता है, वह स्वाभाविक तरीके से जनप्रिय बन जाता है. सिर्फ विचारधारा और मूल्यों की बात करनेवाला व्यक्ति एक दायरे में सिमट कर रह जाता है. अटल बिहारी वाजपेयी आधुनिक भारत की उन शख्सीयतों में से हैं, जिन्होंने राजनीति में रहने की अपनी सार्थकता को अपने विचार और व्यवहार दोनों से स्थापित किया.

वाजपेयी के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि जहां उनके अंदर वैचारिक प्रतिबद्धता कूट-कूट कर भरी रही, वहीं वह अन्य वैचारिक व सामाजिक ताकतों से निरंतर संवाद करते रहे. यह पक्ष वाजपेयी के संबंध में उल्लेखनीय इसलिए हो जाता है कि वे जिस दल व विचार से जुड़े रहे हैं, वह राजनीतिक छुआछूत का शिकार रहा है. आप कल्पना कीजिए 1950 के दशक की, जब जवाहरलाल नेहरू जैसे लोकप्रिय नेता ने बिना प्रमाण और सबूत के संघ को न सिर्फ प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपंथी, बल्कि गांधी का हत्यारा भी घोषित कर दिया था. वाजपेयी इस मुकाम पर इस विचारधारा और दल के श्रेष्ठतम प्रवक्ता बन कर उभरे. उन्होंने अपनी राजनीतिक शैली में तीन मार्गो का अनुशरण किया. पहला, कठिन, दुरूह और विवादित विषयों को भी सहजता, सरलता और उदारता के साथ रखने का प्रयास करते रहे. व्यक्ति जब अपने मन, बुद्धि और हृदय से सामाजिक सरोकारों से जुड़ा होता है, तो भाषा अपने आप सहायक के रूप में काम करती जाती है. इसलिए वाजपेयी को एक कुशल वक्ता से कहीं बड़ा और सफल संवादक मानना चाहिए.

भारत में बीते साढ़े छह दशक में दर्जनभर से ज्यादा प्रधानमंत्री हुए, लेकिन मेरी राय में अब तक सिर्फ चार प्रधानमंत्री ऐसे हुए हैं, जिन्हें देश लंबे वक्त तक याद करेगा. ये हैं-जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, पीवी नरसिंहराव व अटल बिहारी वाजपेयी! इन चारों प्रधानमंत्रियों ने अपनी पूर्ण अवधि तक राज किया और भारत के इतिहास-पटल पर ऐसी गहरी लकीरें खींचीं, जिनका प्रभाव कई दशकों तक बना रहेगा. श्रीमती इंदिरा गांधी से मेरा काफी संपर्क रहा. नरसिंहरावजी के साथ घनिष्ट सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर मिला और अटलजी के साथ छात्र-काल से बना आत्मीय व पारिवारिक संबंध उनके प्रधानमंत्री काल और बाद में भी बना रहा है. आज अटलजी के जन्मदिन पर कुछ ऐसी बातों की चर्चा, जिनके लिए वे याद किये जाएंगे.

सबसे पहली बात, जिसके लिए अटलजी को सदियों तक याद किया जाएगा, वह है पोखरन का परमाणु-विस्फोट! वह भारतीय संप्रभुता का शंखनाद था. दुनिया की परमाणु-शक्तियां 12 मई, 1998 को बहुत बौखलाईं. उन्होंने अनेक अप्रिय बयान और धमकियां भी जारी कीं, लेकिन यही वह दिन था, जबसे भारत की गणना शक्तिशाली राष्ट्रों में होने लगी. अटलजी ने इंदिराजी का अधूरा काम पूरा किया. यह काम राव साहब करें, यह सलाह मैंने उन्हें चुनाव के तीन-चार माह पहले दी थी. उन्होंने तैयारी भी कर ली थी, लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबावों के कारण उन्होंने देर कर दी. वे सोच रहे थे कि दोबारा चुनकर आएंगे, तब करेंगे. अटलजी को जैसे ही मौका मिला, उन्होंने यह चमत्कारी कदम उठा लिया. यह विस्फोट शनिवार शाम को हुआ था. रविवार सुबह उनसे मेरी बात हुई. उसके पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से सुबह ही फोन पर मेरी बात हुई. वे लाहौर के अपने मॉडल टाउन वाले बंगलों में उस रात ही लौटे थे. मैंने अटलजी से कहा कि अगले हफ्ते-डेढ़ हफ्ते में ही पाकिस्तान भी परमाणु बम फोड़ेगा, वरना नवाज शरीफ को गद्दी छोड़ना पड़ेगी. अटलजी को विश्वास नहीं हुआ. फिर भी मैंने उनसे कहा कि आप मियां नवाज को फोन कीजिए और उनसे कहिये कि यह भारत का नहीं, तीसरी दुनिया का बम है. आपका भी है और हमारा भी है. इस पर भी पाकिस्तान विस्फोट कर ही दे, तो हमें एक द्विपक्षीय परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) और विषद परमाणु-परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) के लिए तैयार करना चाहिए. पाकिस्तान ने कुछ दिनों बाद हमसे भी बड़ा विस्फोट कर दिया. भारत ने ‘हम पहल नहीं करेंगे’ यानी आगे होकर हम परमाणु हथियार नहीं चलाएंगे, ऐसी रचनात्मक घोषणा की. बाद में मैंने भारत-पाक द्विपक्षीय परमाणु संधि पर एक लेख लिखा, जिसे प्रधानमंत्री कार्यालय ने प्रधानमंत्री के कहने पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार समिति के सभी सदस्यों को भिजवाया. कहने का तात्पर्य यह कि अटलजी अपने से छोटों की बात पर भी ध्यान देनेवाले नेता थे.

अटलजी का दूसरा उल्लेखनीय काम था करीब दो दर्जन दलों की गठबंधन सरकार को पूरे पांच साल तक चला ले जाना. देश का कोई अन्य नेता ऐसा चमत्कार नहीं कर सका. उनके गठबंधन में फारूक अब्दुल्ला की कश्मीरी पार्टी से लेकर जयललिता और एस रामदास की तमिल पार्टियां भी थीं. उन्होंने भाजपा को सचमुच एक राष्ट्रीय पार्टी बना दिया. यदि भाजपा के पास अटलजी जैसा सर्वसमावेशी व्यक्तित्व नहीं होता, तो ऐसा गठबंधन बनना मुश्किल हो जाता. यदि स्वार्थवश कुछ दल इकट्ठे हो जाते भी, तो उन्हें टूटने में ज्यादा समय नहीं लगता. यह अटलजी के व्यक्तित्व की खूबी ही थी कि शरद यादव, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, फारूक जैसे लोग भी उनकी सरकार में सहर्ष काम करते रहे. उन्होंने जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे राजनीति के बाहर से आये लोगों से भी काम लिया. विभिन्न क्षेत्रीय दलों की तरफ से आनेवाले दबावों को वे गद्दीदार कागज की तरह से सोखते रहते थे. उन्होंने भाजपा जैसी विचारधारा में आबद्ध पार्टी को नरम किया और कश्मीर, राममंदिर तथा समान आचार संहिता जैसे विवाद वाले मुद्दों को हाशिये पर डाल दिया. एक अर्थ में उन्होंने अपनी सरकार को शक्तियों के ऐसे विराट गंठबंधन में परिवर्तित कर दिया, जिनसे मिल कर कभी नेहरू की कांग्रेस बनी थी. परमाणु-बम के मामले में उन्होंने इंदिराजी के काम को आगे बढ़ाया, तो विविध शक्ति-समन्वय के मामले में नेहरूजी के काम को नया आयाम दिया. अटलजी ने अपने चातुर्य से यह महत्वपूर्ण बात रेखांकित की कि यदि भारत को भारत की तरह चलाना है तो अपनी पार्टी और सरकार को सर्वसमावेशी बना कर चलाना होगा. वे शासन के संचालन में अपनी विरोधी कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं के अनुभवों से लाभ उठाने में भी संकोच नहीं करते थे. उनका स्वभाव इतना अच्छा था कि यदि देश में कोई सर्वदलीय सरकार भी बनती तो मुङो लगता है कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी उन्हें दिल से नेता स्वीकार कर लेतीं, चाहे प्रकट तौर पर वे विरोध ही करतीं. इस दृष्टि से अटलजी भावी पीढ़ियों के नेताओं के लिए अनुकरणीय बन गये हैं. इसीलिए मैंने पिछले दिनों एक लेख में लिखा था कि जब तक नरेंद्र मोदी के शरीर में अटलजी की ‘आत्मा’ का प्रवेश नहीं होगा, उनका प्रधानमंत्री बनना और बन कर टिके रहना मुश्किल होगा.

अटलजी के कार्यकाल में कई ऐसे महत्वपूर्ण कार्य शुरू हुए, जो रचनात्मकता और नवीनता के लिए जाने जाएंगे. जैसे सड़कों से पूरे देश को जोड़ना. नदियों को भी एक-दूसरे से जोड़ने की योजना उन्होंने बनायी थी. सरकार की कई बीमारू संस्थाओं को उन्होंने गैर-सरकारी बना दिया. यह थोड़े साहस का काम था. उन्होंने नरसिंहराव सरकार की कई पहलों को अंजाम दिया. अर्थव्यवस्था में भी नयी चमक पैदा हुई. महंगाई पर नियंत्रण हुआ. लोगों की आमदनी बढ़ी. करगिल-युद्ध में भी भारत की जीत हुई. सरकार ने संयम से काम लिया. भारत ने पाकिस्तानियों को अपने क्षेत्र से बाहर खदेड़ा, लेकिन उनके क्षेत्र पर कब्जा नहीं किया. सारी दुनिया में भारत की सराहना और पाकिस्तान की निंदा हुई.

उस जमाने में विदेश नीति के क्षेत्र में भी अटलजी ने कुछ ऐसे कदम उठाये, जिनका प्रभाव हमें भावी दशकों में बराबर देखने को मिलेगा. उन्हें यह श्रेय मिलेगा कि उन्होंने अफगानिस्तान को भू-राजनीतिक आजादी दिलायी. मैं इंदिराजी और अफगान राष्ट्रपति सरदार दाऊद खान से 1973 से आग्रह कर रहा था कि वे पाकिस्तान की घेराबंदी खत्म करें. अफगानिस्तान आने-जाने के लगभग सभी प्रमुख मार्ग पाकिस्तान होकर निकलते हैं. पाकिस्तान जब चाहता है, अफगानिस्तान का हुक्का-पानी बंद कर देता है. इससे भारत और अफगानिस्तान के संबंधों में सबसे बड़ी बाधा उपस्थित हो जाती है. अटलजी ने अफगानिस्तान से ईरान की सीमा तक एक पक्की सड़क बनवा दी. यह जरंज-दिलाराम मार्ग ऐसा विकल्प है, जो ईरान की खाड़ी के जरिये अफगानिस्तान को पूरे दक्षिण एशिया से जोड़ देगा. हामिद करजई की सरकार को अन्य क्षेत्रों में सक्रिय सहयोग देने और अफगानिस्तान को दक्षेस का सदस्य बनवाने में भी अटलजी की भूमिका महत्वपूर्ण रही है.

अटलजी ने चाहे करगिल में पाकिस्तान को सबक सिखाया, लेकिन बाद में उन्होंने जनरल परवेज मुशर्रफ की सरकार से अच्छे संबंध बनाने की भरसक कोशिश की. उन्हीं का कूटनीतिक कौशल था कि पाक सरकार ने 2004 में कहा कि वे भारत के विरुद्ध अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकवादियों को नहीं करने देंगे. संसद पर हमला होने के बाद भारत ने सीमांत पर जो शक्ति-प्रदर्शन किया, उसने पाकिस्तान के होश ढीले कर दिये थे. कश्मीर पर मुशर्रफ का रवैया काफी बदल गया था. दोनों कश्मीरों के बीच आवाजाही शुरू हो गयी थी. वीजा के प्रतिबंध कुछ ढीले पड़े थे. लोगों के संबंध आपस में बढ़ने लगे थे. यदि अटलजी एक बार और प्रधानमंत्री रह जाते तो भारत-पाक संबंध शायद हमेशा के लिए सुधर जाते, क्योंकि उन दिनों कई बार मुङो पाकिस्तान जाने का मौका मिला और वहां मैंने पाया कि अटलजी से ज्यादा लोकप्रिय कोई भी अन्य भारतीय नेता नहीं हुआ. यहां तक कि जमाते-इसलामी के नेता भी अटलजी के बारे में संभलकर बोलते थे.

श्रीलंका, नेपाल, बर्मा आदि के बारे में अटलजी ने कई पहल कीं, लेकिन अमेरिका के साथ भारत के संबंधों को सहज पटरी पर लाने का मुख्य श्रेय उन्हीं को है. वे चीन के साथ भी सहज संबंध बनाने को उत्सुक थे. जब वे विदेश मंत्री थे, मोरारजी देसाई की सरकार में, तब भी उन्होंने विशेष प्रयास किया था. संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि उनकी विदेश नीति में भी उनके व्यक्तित्व की गरिमा और उदारता सदा प्रतिबिंबित होती रही. यह होते हुए भी भारत के राष्ट्रहित की कभी उपेक्षा नहीं हुई.
अटलजी की संवेदना और करुणा का सर्वोत्तम उदाहरण तब देखने को मिला, जब 2002 में गुजरात में नरसंहार हुआ. जिस दिन गोधरा में वह दुर्घटना हुई, अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई भारत आये हुए थे. हैदराबाद हाउस में राजभोज था. दोपहर लगभग साढ़े तीन बजे हमलोग जब बाहर निकले तब पता चला कि गोधरा में कई लोगों को जिंदा जला दिया गया. उसकी जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई. अटलजी से बराबर बातचीत होती रहती थी. कुछ दिन बादे नवभारत टाइम्स में मेरा लेख छपा, जिसमें मैंने लिखा, ‘गुजरात में राजधर्म का उल्लंघन हो रहा है.’ लेख पढ़ते ही अटलजी ने मुङो फोन किया और जैसा कि उनका स्वभाव है, उन्होंने अतिशय प्रशंसा की. उन्होंने ‘राजधर्म’ के उल्लंघन की बात को कई बार दोहराया और वह आज भी एक मुहावरे की तरह दोहराया जाता है. गुजरात के बारे में अटलजी और मेरे बीच काफी विचार-विमर्श हुआ. बाद में स्वयं गुजरात जाकर अटलजी ने शरणार्थियों के शिविर में भाव-विह्वल होकर जैसे आंसू बहाये, वैसे तो कोई कवि-हृदय ही बहा सकता है. यह आम राजनेताओं या प्रधानमंत्रियों के बस की बात नहीं है.

Tuesday, 24 December 2013

युगपुरुष अटल जी को जन्मदिन कि हार्दिक शुभकामनाये - पूर्वांचल विकास मोर्चा



आज पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी के जन्मदिन पर उनको पूर्वांचल विकास मोर्चा कि तरफ से हार्दिक  बधाई।  २५ दिसम्बर १९२५ को एक साधारण परिवार मैं जन्मे अटल जी भारत के १० वे प्रधानमंत्री बने।  इसके अलावा भी वे विभिन्न सरकारों में कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं। अटल जी एक प्रखर वक्ता होने के साथ अपनी ख़ास शैली कि कविताओं के लिए भी जाने जाते हैं।  भारत के प्रधानमन्त्री रहते हुए उन्होंने भारत को विश्व के मानचित्र  पर एक विशेष स्थान दिलाया।  भारत के इस महानसपूत को जन्मदिन पर विशेष बधाई तथा अच्छे स्वास्थ्य कि कामना। अजित कुमार पाण्डेय ( अध्यक्ष ) पूर्वांचल विकास मोर्चा 

Monday, 23 December 2013

हिंदुस्तानी राजनीति के आखिरी करिश्माई राजनेता हैं अटल बिहारी वाजपेयी

अटल बिहारी वाजपेयी यानि एक ऐसा नाम जिसने भारतीय राजनीति को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से इस तरह प्रभावित किया जिसकी मिसाल नहीं मिलती। एक साधारण परिवार में जन्में इस राजनेता ने अपनी भाषण कला, भुवनमोहिनी मुस्कान, लेखन और विचारधारा के प्रति सातत्य का जो परिचय दिया वह आज की राजनीति में दुर्लभ है। सही मायने में वे पं.जवाहरलाल नेहरू के बाद भारत के सबसे करिश्माई नेता और प्रधानमंत्री साबित हुए।

एक बड़े परिवार का उत्तराधिकार पाकर कुर्सियां हासिल करना बहुत सरल है किंतु वाजपेयी की पृष्ठभूमि और उनका संघर्ष देखकर लगता है कि संकल्प और विचारधारा कैसे एक सामान्य परिवार से आए बालक में परिवर्तन का बीजारोपण करती है। शायद इसीलिए राजनैतिक विरासत न होने के बावजूद उनके पीछे एक ऐसा परिवार था जिसका नाम संघ परिवार है।

जहां अटलजी राष्ट्रवाद की ऊर्जा से भरे एक ऐसे महापरिवार के नायक बने, जिसने उनमें इस देश का नायक बनने की क्षमताएं न सिर्फ महसूस की वरन अपने उस सपने को सच किया, जिसमें देश का नेतृत्व करने की भावना थी। अटलजी के रूप में इस परिवार ने देश को एक ऐसा नायक दिया जो वास्तव में हिंदू संस्कृति का प्रणेता और पोषक बना।
.अटलबिहारी बाजपेयी सही मायने में एक ऐसे प्रधानमंत्री थे जो भारत को समझते थे।भारतीयता को समझते थे। राजनीति में उनकी खींची लकीर इतनी लंबी है जिसे पार कर पाना संभव नहीं दिखता। अटलजी सही मायने में एक ऐसी विरासत के उत्तराधिकारी हैं जिसने राष्ट्रवाद को सर्वोपरि माना। देश को सबसे बड़ा माना। देश के बारे में सोचा और अपना सर्वस्व देश के लिए अर्पित किया।


 उनकी समूची राजनीति राष्ट्रवाद के संकल्पों को समर्पित रही। वे भारत के प्रधानमंत्री बनने से पहले विदेश मंत्री भी रहे। उनकी यात्रा सही मायने में एक ऐसे नायक की यात्रा है जिसने विश्वमंच पर भारत और उसकी संस्कृति को स्थापित करने का प्रयास किया।

मूलतः पत्रकार और संवेदनशील कवि रहे अटल जी के मन में पूरी विश्वमानवता के लिए एक संवेदना है। यही भारतीय तत्व है। इसके चलते ही उनके विदेश मंत्री रहते पड़ोसी देशों से रिश्तों को सुधारने के प्रयास हुए तो प्रधानमंत्री रहते भी उन्होंने इसके लिए प्रयास जारी रखे। भले ही कारगिल का धोखा मिला, पर उनका मन इन सबके विपरीत एक प्रांजलता से भरा रहा। बदले की भावना न तो उनके जीवन में है न राजनीति में। इसी के चलते वे अजातशत्रु कहे जाते हैं।

पने समूचे जीवन से अटलजी जो पाठ पढ़ाते हैं उसमें राजनीति कम और राष्ट्रीय चेतना ज्यादा है। सारा जीवन एक तपस्वी की तरह जीते हुए भी वे राजधर्म को निभाते हैं। सत्ता साकेत में रहकर भी वीतराग उनका सौंदर्य है। वे एक लंबी लकीर खींच गए हैं, इसे उनके चाहनेवालों को न सिर्फ बड़ा करना है बल्कि उसे दिल में भी उतारना होगा। उनके सपनों का भारत तभी बनेगा और सामान्य जनों की जिंदगी में उजाला फैलेगा।

 स्वतंत्र भारत के इस आखिरी करिश्माई नेता का व्यक्तित्व और कृतित्व सदियों तक याद किया जाएगा, वे धन्य हैं जिन्होंने अटल जी को देखा, सुना और उनके साथ काम किया है। ये यादें और उनके काम ही प्रेरणा बनें तो भारत को परमवैभव तक पहुंचने से रोका नहीं जा सकता। शायद इसीलिए उनको चाहनेवाले उनकी लंबी आयु की दुआ करते हैं और यह पंक्तियां गाते हुए आगे बढ़ते हैं ‘चल रहे हैं चरण अगणित, ध्येय के पथ पर निरंतर’।

Friday, 13 December 2013

शरद पवार ने पूर्वांचलियों के साथ किया धोखा - अजित पाण्डेय ( अध्यक्ष - पूर्वांचल विकास मोर्चा )



आज में यह ब्लॉग मुख्य रूप से पूर्वांचलवासियों से जुडी समस्याओं और और उनकी अनदेखी के ऊपर लिख रहा हूँ।  आजादी के बाद से ही लगातार इस क्षेत्र कि अनदेखी कांग्रेस द्वारा कि जाती रही है।  परिणाम स्वरुप यह क्षेत्र पिछड़ता चला गया।  जिस प्रकार सरकार ने अन्य क्षेत्रों में विकास किया और  इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास किया और शिक्षा, कृषि, भूमि विकास, स्वास्थय आदि अन्य क्षेत्रों में काम किया जिसके परिणाम स्वरुप यह क्षेत्र तो विकसित हो गए लेकिन लगातार अनदेखी कि वजह से पूर्वांचल कि हालत बद से बदतर हो गयी है। लगातार अनदेखी का आलम ये है कि इस क्षेत्र में विकास का कोई नामोनिशान तक नहीं मिलता तथा रोज़गार, कृषि , शिक्षा जैसे बुनियादी क्षेत्रों कि हालत पतली है।  इसकी  वजह से तमाम युवक रोज़गार कि तलाश में अन्य प्रदेशों में पलायन को मजबूर हैं।
इसकी वजह से कुछ ख़ास शहरों में आबादी भी बढ़ती जा रही है और लोग कीड़े मकोड़ो कि तरह झुग्गियों मैं रहनो को मजबूर हैं।  आखिर इतना बड़ा क्षेत्र  होने के बावजूद और तमाम राष्ट्रीय स्तर के  नेता देने के बावजूद भी पूर्वांचल का विकास क्यों नहीं हो पाया ? इसका एक कारण यहाँ का जातीय समीकरण भी है।  कांग्रेस ने आज़दी के बाद से ही लगातार इस में जातीय आधार पर लोगो को बाटने कि साजिश रची जिसमें उसे बसपा , सपा , जदयू का भी खूब साथ मिला।  इन सभी अपने अपने फायदे के लिए इस क्षेत्र का खूब बटवारा किया और यहाँ के लोगो शोषण किया।  गौर फरमाने वाली बात यह है कि आखिर इस क्षेत्र मुलभुत सुविधावों कि कमी इस लिए कि गयी ताकि पूर्वांचली अन्य लोगो से कटे रहे हैं और विकास कि लहर के कारन उनमे एकजुटता न जाये जिसके परिणाम स्वरुप वे  इन लोगो कि गन्दी चालों को समझ जाएँ और इनका वोट बैंक न ख़त्म हो जाये।  इसका उदहारण हमे अन्य पिछड़े क्षेत्रों के अध्ययन से मिल सकता है , जैसे कि पूर्वोत्तर राज्य और जम्मू और कश्मीर। इन सभी जगहों पर कांग्रेस ने स्थानीय दलों के साथ मिल कर जातीय विभाजन किया और धार्मिक उन्नमाद को बढ़ावा दिया।  अभी हाल ही मैं शरद पवार द्वारा पूर्वांचल के लोगो और किसानो के साथ किया गया भेदभाव भी इसी कि कड़ी है। पूर्वांचल के विकास के लिए जरुरी है कि इन्हे एकजुट किया जाये और एक शशक्त आवाज दी जाये और यह काम सिर्फ भारतीय जनता पार्टी के द्वारा ही सम्भव है क्योंकि मुख्य राष्ट्रीय पार्टी होने और अगले लोक सभा चुनावों मैं पक्की जीत जीत मिलने के कारण  पूर्वांचलियों को एकजुट होना होगा उर भारतीय जनता पार्टी को जितना होगा, ताकि इस क्षेत्र का विकास सम्भव होसके।

अजित कुमार पाण्डेय
अध्यक्ष , पूर्वांचल विकास मोर्चा 

Monday, 9 December 2013



यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी जी को जन्मदिवस कि हार्दिक शुभकामनाये। में उनके स्वास्थ्य और लम्बी आयु कि कामना करता हूँ।    ( अध्यक्ष ) पूर्वांचल विकास मोर्चा 

Sunday, 8 December 2013

भाजपा का वनवास ख़त्म दिल्ली मैं बनेगी सरकार




आखिरकार भाजपा का १५ वर्षों का वनवास ख़त्म हुआ और अब वह दिल्ली मैं भी सरकार बनाने जा रही है।  चारो राज्यों मैं सफलता से बीजेपी काफी उत्साहित है और लोकसभा चुनाओ में भी पूर्ण बहुमत बनाने का दावा कर रही है।  दिल्ली और राजस्थान मैं कोग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया है और उसे भारी नुक्सान उठाना पड़ा है , खास तौर पर दिल्ली में तो वह मुख्या विपक्षी दल भी नहीं बन पायी है।  उससे ये हक़ भी आम आदमी पार्टी ने छीन लिया है जिससे कोंग्रेसियों में भारी निराशा छायी हुई है।  अपनी करारी हार से झुँझलाई शीला दीक्षित ने तो वोटरों को कि बेवकूफ बता दिया। वो यह भूल गयीं कि इन्ही वोटरो ने उन्हें १५ वर्षों तक सरकार में बनाये रखा था।  लेकिन अपनी कमजोर नीतियों के कारन उन्हें मुह कि कहानी पड़ी. 

रमन सिंह की छत्तीसगढ़ में हॅट्रिक



छत्तीसगढ़ के विधानसभा के चुनावों में रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा का लगातार तीसरी बार सरकार बनाना इस बात का संकेत है कि भाजपा को लोकसभा के चुनावों मैं भरी बहुमत मिलेगा।  इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि जनता ने कांग्रेस को पूरी तरह नकार दिया है।  चारो विधान सभा चुनावों में मिले बहुमत के लिए भाजपा बधाई के पात्र हैं।  

पूर्वांचलियों की अनदेखी दिल्ली में बीजेपी को पड़ी भारी ---- अध्यक्ष पूर्वांचल विकास मोर्चा

दिल्ली विधान सभा चुनावो में अब तक आये नतीजो से साफ़ हो गया है कि किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा जिससे किसी भी पार्टी कि सर्कार बनते आसार नहीं नज़र आ रहे।  हलाकि बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप मैं उभर कर आयी है लेकिन उसके पास भी पूर्ण बहुमत नहीं है  जिसका   मुख्य कारण भारतीय जनता पार्टी द्वारा दिल्ली में पूर्वांचलियों कि अनदेखी रही।  पूर्वी दिल्ली में जहा सबसे ज्यादा करीब ४०% पूर्वांचल वासी रहते है वहाँ बीजेपी कुछ खास नहीं कर पायी और गांधीनगर और लक्ष्मी नगर जैसी सीटे उनके हाथ से निकल गयी।  ज्यादातर सीटों पर बीजेपी को हार मिली।  बीजेपी दिल्ली के क्षेत्रीय समीकरण को समझने में नाकाम रही, जिसका फायदा आम आदमी पार्टी ने भरपूर उठाया।  हलाकि फिर भी बीजेपी सबसे ज्यादा सीटे जीतने में कामयाब रही फिर भी सरकार बनाने के लिए उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ेगी।  दिल्ली मोदी का जादू चल गया और भारतीय जनता पार्टी सबसे ज्यादा सीटे जीतने मैं कामयाब हुई।  लेकिन फिर भी सरकार बनाने के लिए उन्हें और सीटो कि जरुरत है।  हालात चाहे जो भी हो लेकिन पूर्वांचलियों कि अनदेखी बीजेपी को बहुत भारी पड़ी है , जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पद सकता है।

शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे ने मरी बाजी






राजस्थान और मध्य प्रदेश के विधान सभा चुनावो मैं भारतीय जनता पार्टी की भारी जीत तय है. जैसा  कि चुनावी पोल के शुरआती नतीजे बता रहे थे।  कांग्रेस की भरी हार ने यह बता दिया है कि जनता ने कांग्रेस को पूरी तरह नकार दिया है और इसकी मुख्या वहज भ्रष्टाचार ही रहा।  दिल्ली के चुनावो मैं भी शीला सरकार कि जबर्दस्त हार ने साफ़ कर दिया है।  अब जब कि सभी विधान सभा के चनावों के नतीजे लगभग आ चुके हैं  तो इस बात का भी अंदाजा साफ़ तौर से लगाया जा सकता है कि लोक सभा के चुनावो मैं भी जनता भारतीय जनता पार्टी की भारी जीत तय है।  देश कि जनता कांग्रेस के कुशाशन और भ्रष्टाचार से तंग आ गयी है और जिस तरह से सरकार ने राष्ट्रीय मुद्दो कि अनदेखी कि उससे देश मैं एक कांग्रेस के खिलाफ एक लहर आयी और मोदी के सुशाशन को चुना। पिछले कुछ सालों मैं जिस तरह सरकार महगाई और भ्रस्टाचार को बढ़ावा दिया और देश कि आंतरिक और बाह्य सुरक्षा के साथ अनदेखी कि उसका खामियाजा उन्हें लोक सभा के चुनावो मैं भी भुगतना होगा।
राजस्थान मैं गहलोत सरकार राज्य का विकास करने मैं पूरी तरह विफल रही और वसुंधरा राजे ने जिस तरह से एक सछम विपछ कि भूमिका निभायी और स्थानीय मुद्दे उठाये उससे जनता का उनमें विश्वास जगा और उसका परिणाम उन्हें चुनावो मैं भरी के रूप मैं मिला।
मध्य प्रदेश में भी शिवराज सिंह जी भी हैट्रिक लगाने वाले हैं और उनके नेतृत्व में जिस तरह पार्टी ने राज्य का चौतरफा विकास किया उससे साफ़ है जनता अब कांग्रेस और राहुल गांधी के खोखले वादो मैं आने वाली नहीं है।
इन चुनावो ने ये भी साफ़ कर दिया कि जिस तरह से  राहुल गांधी और और नरेंद्र मोदी कि कि तुलना कि जा रही थी उसका अब कोई मतलब नहीं है।  मोदी कि लहर का ही परिणाम है कि कांग्रेस का सूपड़ा  ही साफ़ हो गया है।  अब आने वाले लोक सभा के चुनावो में भी भारतीय जनता पार्टी यही जीत हासिल करती है तो निश्चित रूप से इसका श्रेय मोदी को ही जायेगा।  

Friday, 6 December 2013

मनमोहन और सोनिया को पूर्वांचलियों को धोखा देना पड़ा भारी ----- "अध्यक्ष "पूर्वांचल विकास मोर्चा




चारो राज्यों के शुरुआती रुझानों मे  भारतीय जनता पार्टी कि पक्की होती जीत को देख कर मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के पसीने छूट गए है।  आलम ये हैं कि कांग्रेस का कोई बड़ा नेता टेलीविज़न पर आने से कतरा  रहा है।  ज्ञातव्य हो कि यही कांग्रेस के बड़े बड़े नेता कल तक न्यूज़ चैनलों पर अपनी जीत के फटे ढोल पीट रहे थे।  लेकिन मतादन के बाद के बदले हालत के बाद जैसे उनकी जुबान ही सील गयी हो। अब जब कि भारतीय जनता पार्टी कि चारो राज्यों में सरकार  बनना तय है तो महमोहन जी को और सोनिया जी को नैतिक आधार पर हार  स्वीकार कर लेनी चाहिए।

डा. हर्षवर्धन के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनाने का मन बना चुकी




दिल्ली में हुए विधान सभा चुनाव में भाजपा रिकार्ड मतों से जीतकर सरकार बनाएगी। दिल्ली विधान सभा चुनाव में कांग्रेस की लोक विरोधी लहर देखने को मिली है। चुनाव के सर्वे भी भाजपा के पक्ष में हुए हैं। दिल्ली की जनता कांग्रेस के कुशासन से दुखी होकर डा. हर्षवर्धन के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनाने का मन बना चुकी है।
इधर चुनाव खत्म हुए, उधर विभिन्न ओपीनियन पोल्स ने भाजपा को दिल्ली में पूर्ण बहुमत प्राप्त करते हुए दिखाया। ओपीनियन पोल्स से उत्साहित होकर भाजपा कार्यकर्ताओं ने सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर एक-दूसरे को बधाई देने शुरू भी कर दी।
उत्साहित हो कर भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार हर्षवर्धन ने भी फेसबुक और ट्विटर से भाजपा कार्यकर्ताओं का धन्यवाद किया। चुनाव के नतीजे आने में अभी दो दिन का समय है, लेकिन ओपीनियन पोल पर भरोसा कर भाजपा ने अपनी जीत पक्की समझ ली है। कार्यकर्ताओं ने जश्न मनाना शुरू कर दिया है। ट्विटर पर भाजपा की जीत टॉप ट्रैंडिग टापिक्स में रही। जिस पर दिन भर लोगों ने ट्विट्स कर एक-दूसरे को जीत की बधाई दी। फेसबुक पर हर्षवर्धन के आफिशयल पेज पर उन्होंने आम जनता और भाजपा कार्याकर्ताओं को धन्यवाद दिया। वोटिंग के बाद से ही भाजपा कार्यकर्ताओं में जबर्दस्त उत्साह देखने को मिल रहा है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस कार्यालय और कार्यकर्ताओं में मायूसी छाई है।
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के बाद तमाम चैनलों में दिखाए गए एक्जिट पोल के मुताबिक,  दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा को बढ़त मिलने का अनुमान जताया गया है। साथ ही दिल्ली में पहली बार चुनाव में उतरी 'आप' पार्टी का भी प्रदर्शन काफी अच्छा बताया जा रहा है। इन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के बीच 4-0 की बाजी भाजपा के पक्ष में बताई जा रही है। दिल्ली में बुधवार को हुए विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने रिकॉर्ड तोड़ 67 फीसदी मतदान किया। दिल्ली में इससे पहले कभी इतनी बड़ी संख्या में वोट नहीं डाले गए। इससे पहले सबसे ज्यादा वोटिंग का रिकॉर्ड 1993 का था और उस वक्त दिल्ली में 61 फीसदी वोट पड़े थे। दिल्ली में मतदान के दौरान वोटरों में ऐसा उत्साह देखने को मिला कि शाम 5 बजे के बाद भी करीब पौन दो लाख लोगों ने वोट डाला।

राज्यवार स्थिति इस प्रकार है -
राजस्थान : एक्जिट पोल बता रहा है कि राजस्थान में वोटरों ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के लिए अपने मत का इस्तेमाल किया है। किसी दल को सत्ता में आने के लिए 100 से ज्यादा सीटों की दरकार होगी और ऐसे में भाजपा को 138 और कांग्रेस के हाथ में मात्र 44 सीटें जाने की संभावना जताई जा रही है।
मध्य प्रदेश : यहां पर माना जा रहा है कि भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तीसरी बार सत्ता में आ रहे हैं। यहां पर सरकार बनाने के लिए 115 सीटों पर जीत जरूरी है और एक्जिट पोल के  मुताबिक भाजपा को 144 सीटें और कांग्रेस के हाथ 77 सीटें लग रही हैं।
दिल्ली : दिल्ली की गद्दी पर काबिज होने के लिए किसी दल को 35 सीटें चाहिए और यहां पर भाजपा को 34 सीटें मिलती दिखाई जा रही हैं। वहीं, कांग्रेस को 20 और आम आदमी पार्टी को 13 सीटें हासिल होने की संभावना जताई गई है।
छत्तीसगढ़ : इस राज्य में भी रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा को फिर सत्ता मिल सकती है। सत्ता में काबिज होने के लिए 45 सीटों की जरूरत होगी और एक्जिट पोल के मुताबिक, भाजपा को 50 और कांग्रेस को 37 सीटें मिल सकती हैं।

Wednesday, 27 November 2013

Mahabal Mishra, only concerned about his family.




"Mahabali Mishra has never tried to do something for the development of the people of Purvanchal nor he raised his voice to add Bhojpuri language in 8th schedule of the constitution." says Mr.Ajit Kumar Pandey, National President Purvanchal Vikas Morcha. Mr. says  that the way Mahaabal Mishra has played with the sentiments of the people of Purvanchal, today or tomorrow he will get his punishment. Mahaabal has only shown off the welfare of the people of Purvanchal, In reality he only and only benefited his family.
The way he fetched assembly ticket to his son,only proves his dynasty.
Ajit kumar pandey says that now people of the region understand the intentions of Mahabal Mishra. Mr. pandey has asked to the people of purvanchal to cast thier vote wisely.People should not come under the influence of Mahabal Mishra who only thinks in interest of his own family and they have nothing to do with public.

पूर्वांचलियों के रहमोंकरम पर इनकी दूकान चलती है, ले‌किन...


ये है पश्चिमी दिल्ली से कांग्रेस सासंद महाबल मिश्रा। पूर्वांचलियों के रहमोंकरम पर इनकी राजनीति की दूकान चलती है। इसका पूरा परिवार पूर्वांचलियों के वजह से ही वजूद में है लेकिन ये सबसे ज्यादा नफरत भी पूर्वांचलियों से ही करते है।

पूर्वांचल के लोगों के भावनाओं के साथ खिलवाड़ करके ये नेताजी अब राजनीति में अपने बेटे की दुकान चमकाने में लगे है। साम-दाम-दंड-भेद में पारंगत नेताजी ने अपना पूरा वीटो लगाकर अपने बेटे विनय मिश्रा को पालम विधानसभा से टिकट दिलवा तो दिया है लेकिन मामला गड़बड़ हो रहा है।

पूर्वांचल विकास मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजीत कुमार पांडेय ने इस बार पूर्वांचलियों से अपील की है कि वे इसबार महाबल मिश्रा जैसे लोगों के बहकावे में नहीं आएं, जो केवल और केवल अपने परिवार के हित के लिए राजनीति करता है।

महाबल पर लगा गंभीर आरोप
अभी कुछ माह पहले की बात है दिल्ली की फास्ट ट्रैक कोर्ट में इमकी पेशी होनी थी। इनके साथ-साथ इनकी पत्नी, बेटी और भाई की भी पेशी थी। इस सांसद महोदय पर पर एक नाबालिग से दुष्कर्म के आरोपी को घर में पनाह देने का आरोप लगा।

नाबालिग से दुष्कर्म का यह मामला यह साल 2006 का है। महाबल मिश्रा और उनके परिवार पर यह भी आरोप है कि उन्होंने पीड़ित लडकी को दुष्कर्म के आरोपी के साथ शादी करने का दबाव भी बनाया था। दुष्कर्म का आरोपी महाबल मिश्रा का करीबी था।

इतना ही नहीं पीड़ित लड़की ने यह भी आरोप लगाया था कि उसे तीन चार दिनों तक महाबल मिश्रा और उसके भाई के घर पर बंद करके रखा गया था।
.भू-माफिया भी है महाबल मिश्रा
भाजपा दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष विजेन्द्र गुप्ता, विधायक प्रो. जगदीश मुखी और द्वारका के विधायक प्रद्युम्न राजपूत ने नसीरपुर गांव की जमीन पर कब्जा करने तथा उपराज्यपाल दिल्ली को धोखा देकर गुमराह करके सौ करोड़ रुपए का जमीन घोटाला करने के आरोप कांग्रेसी सांसद महाबल मिश्रा, उनके भाई हीरा मिश्रा पर लगाया।

भाजपा दिल्ली के तत्कालिन प्रदेश अध्यक्ष विजेन्द्र गुप्ता ने बताया था कि यदि निष्पक्ष जांच हुई तो सांसद महाबल मिश्रा, उनके पुत्र, छोटे भाई हीरा मिश्रा, हीरा मिश्रा के सुपुत्र की कम्पनी डायमेंड द्वारा दिल्ली भर में हजारों करोंड रूपए के अन्य जमीन घोटाले करने के मामले भी उजागर होंगे।

सांसद महाबल मिश्रा का भू-माफिया रूप भी दिल्ली की जनता को देखने को मिलेगा। जमीन घोटाला करने वाले महाबल मिश्रा तथा उनके परिजनों द्वारा दिल्ली में किए गए करोंडों रूपए के भूमि घोटाले से दिल्ली के किसान नाराज हैं।

नसीरपुर गांव की जमीन पर वर्तमान सांसद महाबल मिश्रा, उनके भाई हीरा मिश्रा तथा इनके लंडकों की निगाह वर्ष 2002 से ही थी। इन लोगों ने जमीन के मालिक किसानों पर दबाव डालकर जमीन औने-पौने दामों पर बेचने को कहा। यह जमीन रिटायर कर्नल करण सिंह सोलंकी तथा 9 अन्य व्यक्तियों की थी। जमीन बेचने के लिए श्री महाबल मिश्रा तथा उनके लोगों ने सोलंकी परिवार पर इतना दबाव डाला कि उन्होंने औने-पौने दामों पर बेचने का करार मजबूरी में सांसद के भाई हीरा मिश्रा से कर लिया। 2006 में नसीरपुर गांव की कुल 15 बीघे जमीन का अधिग्रहण डीडीए ने कर लिया। उस समय महाबल मिश्रा विधायक थे तथा डीडीए के सदस्य थे। अपने पद और प्रभाव का दुरुपयोग कर उन्होंने अधिग्रहीत में से एक एकंड जमीन को अधिग्रहण से मुक्त करने का आवेदन डीडीए में किया।  



यहां बताना जरूरी है कि इसके लिए श्री महाबल मिश्रा ने बहाना यह बनाया कि अधिग्रहीत 15 बीघा जमीन में से एक एकंड जमीन गरीब किसान की है। यदि जमीन अधिग्रहीत होती है तो परिवार भूखों मर जाएगा। महाबल मिश्रा ने इस बहाने के साथ कई बार दिल्ली के उपराज्यपाल से भी मुलाकात की। जनवरी 2011 में उपराज्यपाल को धोखा देकर गुमराह करके श्री मिश्रा ने 100 करोंड रूपए से अधिक मूल्य की एक एकंड जमीन अधिग्रहण से मुक्त करा ली ताकि उस पर गगनचुंबी इमारतें खंडी करके अरबों रूपया कमाया जाए। यह जमीन 150 फुट चौड़ी रोड पर स्थित है। जमीन के चारों ओर बहुमंजिली इमारतें खंडी हैं इसलिए आज की तारीख में इसकी कीमत अरबों रूपया हो गई है।

Monday, 25 November 2013

केवल अपने परिवार की सोचते हैं महाबल



खाते हैं पूर्वांचल का, गाते हैं कांग्रेस का। लेकिन लाभ और केवल लाभ करते हैं अपने परिवार का। ऐसे ही हैं पश्चिमी दिल्ली के सांसद महाबल मिश्रा। पूर्वांचल विकास मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजीत कुमार पांडेय कहते हैं कि जिस प्रकार से महाबल मिश्रा ने पूर्वांचल के लोगों के भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है, उसकी सजा आज नहीं तो कल उन्हें जरूर मिलेगी। अब तक महाबल ने पूर्वांचल के लोगों की भलाई की केवल सोंसेबाजी की है। वास्तिवकता में वह केवल और केवल अपने परिवार का हित चाहते हैं। जिस प्रकार से उन्होंने पूरा वीटो लगाकर अपने बेटे विनय मिश्रा को पालम विधानसभा से टिकट दिलवाया है, वह उनके परिवारवाद को ही पुष्ट करता  है।
श्री अजीत कुमार पांडेय का कहना है कि क्षेत्र की जनता अब महाबल के तमाम हथकंडों को अब पूरी तरह से समझ चुकी है। विधानसभा चुनाव में जहां पूरबिये उनके बेटे विनय को पालम सीट पर मजा चखाएंगे, वहीं लोकसभा चुनाव में महाबल के मंसूबों पर पानी फेरेंगे। श्री पांडेय ने दिल्ली के पूरबियों से आह्वान किया है कि वह अपने मताधिकार का प्रयोग सोच-समझकर करें। महाबल मिश्रा जैसे लोगों के बहकावे में नहीं आएं, जो केवल और केवल अपने परिवार के हित के लिए पूरी राजनीति करते हैं। उन्हें क्षेत्र की जनता से कोई सरोकार नहीं है।

Saturday, 2 November 2013

सोनिया-मनमोहन ने निकाला लोगों का दिवाला



केंद्रीय खाद्य मंत्री की ओर से प्याज की बढ़ी कीमतें कम करने में असमर्थता जाहिर करने वाले दिए बयान को हास्यपद करार देते पूर्वांचल विकास मोर्चा के अध्यक्ष अजीत कुमार पांडेय ने कहा कि केंद्रीय खाद्य मंत्री को अपने पद से तुरंत इस्तीफा दे देना चाहिए, क्योंकि आम लोगों की रोटी में से प्याज को गायब किए जाने के कारण उनको अपने पद पर बने रहने का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने कहा कि विभागीय मंत्री तो नाम के हैं, सारा किया-धराया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का है।
अजीत कुमार पांडेय कहते हैं कि केंद्र की कांग्रेस सरकार के शासन में महंगाई सभी सीमाएं पार कर गई है। देश के आम लोगों के हालात तो इस कदर बन गए हैं कि आम आदमी दो वक्त की रोजी-रोटी से असमर्थ हो गया है। केंद्र सरकार ने प्याज की कीमतों पर नकेल कसने के लिए अभी तक कोई ठोस कदम ही नहीं उठाया, जिस कारण प्याज की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हो रही है। देश के लोग इस महंगाई के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार कांग्रेस पार्टी को ठहरा रहे हैं। वे देश में से कांग्रेस पार्टी का मुकम्मल सफाया करने के लिए पूरी तरह से उतावले हैं। दीवाली के दिनों में प्याज आम लोगों से छीनकर केंद्र सरकार ने बहुत बड़ा धक्का किया है, जिसका जवाब देश के लोग सरकार से शासन छीनकर देंगे।
पूर्वांचल विकास मोर्चा के अध्यक्ष केंद्र की कांग्रेस सरकार की गलत नीतियों के कारण देश में बेरोजगारी, भुखमरी, गरीबी, भ्रष्टाचार, अनपढ़ता व महंगाई का बोलबाला है। प्याज की कीमतें आसमान को छू रही हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस सरकार अब कुछ ही पलों की मेहमान है। आज की तारीख में देश में आम जनता दो चीजों को लेकर बहुत परेशान है-एक महंगाई से और दूसरे करप्शन से। करप्शन पर तो लोग जागरूक दिख रहे हैं, आवाज उठा रहे हैं। पर महंगाई को लेकर जनता अपना दुखड़ा किसके सामने रोए? स्थिति यह है कि रोजाना कमाने-खाने वाले लोगों के पास अगले दिन खाने को कुछ नहीं होता। उधर सरकार और उसके मंत्री कोई आश्वासन देने के बजाय कहते हैं कि महंगाई पर उनका कोई वश नहीं है। वह तो तेज विकास की देन है। यानी उसे तो लोगों को झेलना ही पड़ेगा। पर क्या सच में इस महंगाई में सरकार का कोई योगदान नहीं है? असल में यह महंगाई सरकारी नीतियों की ही वजह से पैदा हुई है। इसके पीछे मैं जिन दो मुख्य वजहों को जिम्मेदार मानता हूं, उनमें सीधे-सीधे इस सरकार का ही हाथ है। पहली वजह यह है कि पिछले कुछ वर्षों में सरकारी घाटा बेतहाशा बढ़ा है और दूसरी यह कि अच्छा उत्पादन होने के बावजूद खाद्यान्न की कीमतों पर नियंत्रण नहीं रखा गया है।

Wednesday, 23 October 2013

हर्षवर्धन के लीडरशिप में भाजपा बड़ी जीत हासिल करेगी

पूर्वाचंल विकास मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजीत पांडेय ने दिल्ली में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव के लिए पूर्व स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन को भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए जाने पर बधाई दी है।


अजीत पांडेय ने कहा कि हर्षवर्धन ने पोलियो उन्मूलन अभियान चलाकर दिल्ली को पोलियो मुक्त बनाया था, मुझे पूर्ण विश्वास है कि अब वह दिल्ली की भ्रष्ट कांग्रेस सरकार से लोगों को मुक्ती दिलाएंगे।

उन्होंने कहा है कि मैं पूरी तरह आस्वस्त हूं कि हर्षवर्धन और विजय गोयल के नेतृत्व में आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा काफी अच्छा करेगी।

गौरतलब है कि भाजपा ने विधानसभा चुनाव के लिए दिल्ली में अपने मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के तौर पूर्व स्वास्थ्य मंत्री डॉ हर्षवर्धन के नाम पर मुहर लगा दी।

वर्ष 1993 में दिल्ली में बनी बीजेपी की पहली सरकार में स्वास्थ्य मंत्री बनाए गए हर्षवर्धन के साथ काम कर चुके उनके सहयोगी और विपक्षी भी उनकी प्रशासनिक सूझबूझ के कायल हैं।

दिल्ली में पिछले 15 साल से सत्ता से बाहर बैठी बीजेपी को उम्मीद है कि चार बार विधायक रहे और दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री रह चुके हर्षवर्धन की साफ-सुथरी छवि से वह 4 दिसंबर को होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को कड़ी टक्कर दे सकेगी।

Friday, 4 October 2013

गर्त में चला गया गरीबों का मसीहा, लेकिन साख पर कोई ज़्यादा असर नहीं



सामाजिक न्याय के महानायक जिन्होंने पहली बार देश की राजनीति में दलितों और पिछड़ों को पूरी मजबूती के साथ स्थापित किया, आखिरकार सामंती ताकतों की साजिश का शिकार हो गये।

चारा घोटाले मामले में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रमुख लालू प्रसाद यादव को सुनाई गई सज़ा से उनके व्यक्तिगत करियर पर कोई ख़ास नहीं पड़ने वाला है. अदालत ने उन्हें पांच साल की सज़ा सुनाई गई. अब वो चुनाव नहीं लड़ पाएंगे भले ही आगे अपील होगी और मामला चलता रहेगा. उनकी पार्टी तो चलती ही रहेगी. पार्टियां बंद नहीं होती हैं जहां तक उनकी साख का सवाल है उसमें भी ख़ास फ़र्क नहीं पड़ेगा.


..कुछ लोगो का सवाल ये है कि लालू प्रसाद यादव के जेल जाने से राजद कमजोर हुआ या फ़िर उसका अस्तित्व समाप्त हो गया तो इसका सबसे अधिक फ़ायदा भाजपा को होगा। भाजपा को फ़ायदा होने का मतलब यह कि बिहार के अधिकांश यादव किसी भी परिस्थिति में नीतीश कुमार को उनके छद्म कुर्मीवाद के कारण वोट नहीं करेंगे।

यादव मतदाताओं के लिए भाजपा एक महत्वपूर्ण विकल्प के रुप में साबित हो सकता है। इसकी दो वजहें संभव हैं। पहली वजह यह कि भाजपा द्वारा बड़े पैमाने पर यह प्रचारित किया जा रहा है कि एक शुद्र नेता को पीएम पद का उम्मीदवार बनाया गया है, जिनका विरोध मूल रुप से नीतीश कुमार के समर्थक कर रहे हिअ। इसके अलावा धर्म फ़ैक्टर का लाभ लेने की कोशिश की जा रही है।

बहरहाल, समाजिक न्याय के महानायक को जेल भेजने की सामंती और ब्राह्म्णवादी ताकतों की साजिश सफ़ल होती दिख रही है। लेकिन इसका यह मतलब बिल्कुल भी नहीं है कि सामाजिक न्याय का आंदोलन अब कुंद पड़ गया है। जो बीज लालू प्रसाद यादव ने बोया था, वह अब विशाल वृक्ष बन चुका है। आने वाले समय में सामाजिक न्याय का आंदोलन नये रुप में नजर आयेगा।

लालू यादव हार कर भी विपक्ष में होकर भी 18 से 20 फ़ीसदी वोट अपने पास रखते हैं. ये जो इमेज या छवि की बात है यह सब शहरी मध्य वर्ग के लिए मायने रखती है लेकिन शहरी मध्य वर्ग उनका वोटर नहीं है.




Friday, 13 September 2013

मोदी की ताजपोशी तय


वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के विरोध के बावजूद भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना तय कर लिया है। खबरों के मुताबिक इसी के चलते मोदी अहमदाबाद से दिल्ली आ रहे हैं। वह वहां से तीन बजे फ्लाइट से निकलेंगे। मुहूरत निकल गया है। पटाखे, लड़ियां और फुलझड़ियां मंगाई जा चुकी हैं। मीडिया की निर्भया कांड में सजा सुनाये जाने की व्यसस्ता के बीच मोदी नाम के ऐलान की तैयारी प्राथमिक तौर पर पूरी की जा चुकी है। शाम को पांच बजे भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक बुलाई गई है। संसदीय बोर्ड की बैठक में लालकृष्ण आडवाणी आयें आ न आयें। उनका विरोध जारी रहे या बंद हो जाए। अब कुछ रूकनेवाला नहीं है। शाम पांच बजे संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद छह सवा छह बजे के आस पास मीडिया की भारी भरकम मोजूदगी में पीएम इन वेटिंग का कैंडिडेट बदल जाएगा। आडवाणी की बजाय मोदी अब भाजपा के नये पीएम इन वेटिंग घोषित कर दिये जाएंगे।
हालांकि इसके बावजूद भी आडवाणी से मेल मुलाकात का दौर जारी है। कल भी नितिन गडकरी ने उनसे मुलाकात की थी आज भी मुलाकात कर रहे हैं। भाजपा के भीतर कोशिश है कि मोदी के नाम पर आडवाणी की सहमति ले ली जाए। लेकिन आडवाणी खुद क्या राजनीतिक चाल सोचकर बैठे हैं यह तो संसदीय बोर्ड की बैठक में आने या न आने पर निर्भर करेगा। वैसे राजनाथ सिंह के फरमान के बाद भी भाजपा संसदीय बोर्ड के एक वरिष्ठ सदस्य डॉ मुरली मनमोहर जोशी अनुपस्थित रह सकते हैं। खबर है कि वे सागर की तरफ रवाना हो गये हैं।
लेकिन तैयारियों में कोई कमी नहीं है। शाम को भाजपा कार्यालय पर खुद मोदी की मौजूदगी भी रह सकती है। और केवल केन्द्रीय कार्यालय में ही नहीं बल्कि राज्यों के कार्यालयों में भी शाम को जलसे करने का एलर्ट भेजा गया है और सभी वरिष्ठ पदाधिकारियों को भाजपा कार्यालयों में मौजूद रहने का निर्देश भी दिया गया है। जो इस बात का संकेत है कि शाम को भाजपा अपना भविष्य घोषित कर देगी।

Thursday, 5 September 2013

पेट्रोल की फ़िज़ूलख़र्ची पर कौन लगाएगा लगाम



केंद्र सरकार भले ही पेट्रोल की खपत रोकने के लिए नए-नए सुझावों पर विचार कर रही है, लेकिन तेल की सरकारी फ़िज़ूलख़र्ची पर लगाम नहीं लगा पा रही है. सरकार के पास अधिकारियों के पेट्रोल ख़र्च में कटौती का कोई आइडिया नहीं है. दिल्ली में रहने वाले मंत्रियों, सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों का साल भर के पेट्रोल, डीजल बिल करीब 3 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया है. मंत्रियों, सरकारी अधिकारियों के तेल खपत के आंकड़े सरकार अलग से जारी नहीं करते. इनको ऑफ़िस खर्च में शामिल माना जाता है.

टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक 2011-12 में केंद्र सरकार के मंत्रियों और अधिकारियों का ऑफ़िस खर्च करीब 5 हजार 2 सौ करोड़ रुपये रहा, जिनमें स्टेशनरी से लेकर ऑफ़िस का चाय-पानी तक शामिल है, लेकिन इनमें ज्यादातर हिस्सा पेट्रोल-डीजल का है. दिल्ली में केंद्र सरकार के मंत्रियों के अलावा सचिव स्तर के 70 अधिकारियों, 131 एडिशनल सेक्रेटरी, 525 ज्वाइंट सेक्रेटरी और एक हजार दो सौ डायरेक्टर्स को सरकारी कारें मिली हुई हैं. अगर इनको करीब 200 लीटर पेट्रोल हर महीने मिलता है तो सिर्फ दिल्ली में केंद्र सरकार और उनके मातहत हर महीने 2 लाख 65 हजार लीटर पेट्रोल फूंक रहे हैं.

प्रधानमंत्री बनने के सपने नहीं देखता



 भाजपा इस समय जहां नरेंद्र मोदी को पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने को लेकर दुविधा में पड़ी हुई है, वहीं गुजरात के मुख्यमंत्री ने आज कहा कि वह इस शीर्ष पद के सपने नहीं देख रहे हैं और 2017 तक राज्य की सेवा के लिए मिले जनादेश का सम्मान करेंगे. मोदी ने कहा , मैंने इस तरह के सपने कभी नहीं देखें (प्रधानमंत्री बनने के), ना ही मैं इस तरह का सपना देखना जा रहा हूं. गुजरात की जनता ने मुझे 2017 तक अपनी सेवा करने का जनादेश दिया है और मुझे यह पूरी ताकत के साथ करना है.

उनकी टिप्पणी खासा मायने रखती है क्योंकि उन्हें औपचारिक तौर पर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने में हो रही देरी को लेकर इसे उनकी नाखुशी के प्रदर्शन के तौर पर देखा जा सकता है. भाजपा के चुनाव प्रचार समिति के प्रमुख मोदी ने छात्रों के साथ मुलाकात के दौरान कहा, जो कुछ बनने का सपना देखते हैं वे अंत में खुद को तबाह कर लेते हैं. किसी को कुछ बनने का सपना नहीं देखना चाहिए, बल्कि कुछ करने का सपना देखना चाहिए.गुजरात के मुख्यमंत्री और बीजेपी चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष नरेंद्र मोदी ने कहा है कि वह प्रधानमंत्री बनने के सपने नहीं देखते.अहमदाबाद के एक कार्यक्रम में जब एक छात्र ने मोदी से सवाल किया तो उन्होंने कहा, "जो सपना देखता है बर्बाद हो जाता है." मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी में प्रधानमंत्री पद के प्रबल उम्मीदवार माने जाने वाले मोदी ने कहा कि गुजरात के लोगों ने उन्हें साल 2017 तक का काम दे रखा है.

मोदी के इस बयान के अलग-अलग मायने निकाले जा रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मोदी ने ऐसा कह कर पार्टी के भीतर यह पैगाम देने की कोशिश की है कि वे पीएम का उम्मीदवार बनने के लिए ललायित नहीं हैं. यानि वह खुद अपनी पीएम पद की दावेदारी पेश नहीं कर रहे हैं, बल्कि पार्टी के भीतर से उनकी दावेदारी पेश की जाए. दूसरी ओर कांग्रेस ने मोदी के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि उन्होंने पहले ही हार मान ली है. कांग्रेस के सांसद जगदंबिका पाल ने एबीपी न्यूज़ कहा कि मोदी जानते हैं कि वह कुछ नहीं कर पाएंगे इसलिए वह पहले ही हार मान गए हैं.

मैं परफेक्ट हिंदूः पर्रिकर



 गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा है कि गोवा के कैथोलिक सांस्कृतिक रूप से हिंदू हैं और सांस्कृतिक अर्थों में भारत एक हिंदू राष्ट्र है। पर्रिकर ने 'न्यूयार्क टाइम्स' के इंडिया ब्लॉग को दिए एक साक्षात्कार में यह बात कही, जो बुधवार को प्रकाशित हुआ।
पर्रिकर ने कहा कि सांस्कृतिक अर्थों में भारत एक हिंदू राष्ट्र है। गोवा में रहने वाले कैथोलिक भी सांस्कृतिक रूप से हिंदू हैं क्योंकि धार्मिक पक्ष के अलावा उनकी अन्य प्रथाएं ब्राजील के कैथोलिकों से मेल नहीं खातीं। गोवा के कैथोलिकों की सोच व प्रथाएं हिंदुओं से मेल खाती हैं।
गोवा की 15 लाख लोगों की आबादी का 30 प्रतिशत हिस्सा कैथोलिक आबादी है। 57 वर्षीय पर्रिकर ने कहा कि वह एक संपूर्ण हिंदू हैं लेकिन यह उनका निजी विश्वास है और इसका उनकी सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। मैं हिंदू राष्ट्रवादी नहीं हूं, जैसा कि कुछ टीवी मीडिया में समझा जाता है। न ही मैं ऐसा व्यक्ति हूं जो तलवार निकालकर मुसलमानों को कत्ल कर सकता है। पर्रिकर ने कहा कि मेरे मुताबिक इस प्रकार का व्यवहार हिंदू व्यवहार नहीं है। हिंदू किसी पर हमला नहीं करते, वे केवल आत्मरक्षा करते हैं। हमारा इतिहास यही है।

Tuesday, 3 September 2013

सरकारी खजाने का बढ़ता घाटा खतरनाक

बीते कई दिनों से रुपये की बेदम होती चाल पर अर्थव्यवस्था को पलीता लग रहा है, जिसका खामियाजा निश्चित तौर पर आने वाले दिनों में देश के आम लोगों को भुगतना होगा। हालत ये है कि आज रुपया दुनिया की सबसे कमजोर मुद्रा में से एक हो गई है। ऐसे में सरकारी खजाने का बढ़ता घाटा खतरनाक स्‍तर तक जा सकता है।


.कमजोर होती अर्थव्‍यवस्‍था को लेकर न तो सरकार को कुछ सूझ रहा है और न ही रुपये में ऐतिहासिक गिरावट को थामने के कोई कारगर उपाय नजर आ रहे हैं। न जानें यह रुपया कहां जाकर ठहरेगा। जानकारों के अनुसार, आजादी के बाद से रुपये में इतनी तेज गिरावट कभी नहीं देखी गई। आजादी को बीते 67 साल हो गए और रुपया भी पूरी तरह `आजाद` होकर कुलांचे मारने लगा। एक समय तो ऐसा भी आया जब रुपया आजादी के सालों की गिनती को भी बेमानी कर गया।

सरकार की ओर से बीते दिनों आए बयानों से यह कयास लगाया जाने लगा कि देश 1991 की तरह आर्थिक बदहाली के दौर में पहुंच चुका है। तभी तो एक बार फिर सोना गिरवी रखने की बात की जा रही है। देश में एक तरह से `आर्थिक इमरजेंसी` के हालात पैदा होते दिखने लगे हैं। रुपये का क्या स्तर होगा, इस पर सरकार कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है। ऐसी दयनीय स्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था में दीर्घकालिक क्षमता नजर नहीं आ रही है।

रुपये की मजबूती को लेकर सरकार के प्रयास क्‍या हाल है, इसकी बानगी रिजर्व बैंक के गवर्नर एक वक्‍तव्‍य से लग जाती है। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने मौजूदा आर्थिक हालात के लिए सीधे सरकार की ढुलमुल वित्तीय नीतियों को जिम्मेदार ठहराया। उन्‍होंने सीधे तौर पर कहा कि रुपये के अवमूल्यन के पीछे घरेलू संरचनात्मक कारक ही मूल वजह है। यानी रुपये की मौजूदा हाल के लिए यह सरकार ही जिम्‍मेवार है।

वहीं, सरकार इसे पूरी तरह झुठलाने पर आमदा है और घरेलू तथा विदेशी कारकों को इसके लिए जिम्‍मेवार ठहरा रही है। आर्थिक नरमी एवं उच्च मुद्रास्फीति के लिए सरकार के ढीले राजकोषीय रुख को भी जिम्मेदार ठहराया गया। विदित है कि देश का राजकोषीय घाटा बीते कई सालों से बढ़ता ही जा रहा है, मगर सरकार को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ा।

सरकार की कुछ `चुनावी` योजनाओं ने भी अर्थव्‍यवस्‍था को नुकसान पहुंचाने में कसर नहीं छोड़ी है। बीते दिनों खाद्य सुरक्षा बिल संसद में पारित किया गया। इस बिल के अमल में आने के बाद देश के ऊपर लाखों करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। जाहिर है कि एक तरफ राजकोषीय घाटा सुरसा की मुंह की तरह बढ़ रहा है और ऊपर से ऐसी योजनाओं के क्रियान्‍वयन से वित्‍तीय खजाने पर भारी बोझ पड़ेगा। ऐसे में अर्थव्‍यवस्‍था की हालत और बिगड़ेगी। खाद्य सुरक्षा विधेयक ने भी वित्‍तीय बाजार को चिंता में डाल दिया।

बाजार में यह भरोसा नहीं है कि सरकार अपने राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण लगा सकेगी। बाजार को आशंका है कि इससे सरकारी खजाने पर जबरदस्त असर पड़ेगा क्योंकि खाद्य सुरक्षा के लिए भारी सब्सिडी की जरूरत पड़ेगी। कुछ आर्थिक जानकार यह कहने को मजबूर हैं कि इस तरह की योजनाओं ने रुपये को रसातल में जाने को मजबूर किया है। आज देश की आर्थिक हालत ऐसी नहीं है कि फिर से किसी नई योजना के मद में आने वाले खर्च का बड़ा बोझ आसानी से सहा जा सके। साथ ही, सरकार ने आने वाले दिनों में लाखों करोड़ रुपये सब्सिडी देने का भी लक्ष्‍य तय कर रखा है।


रुपये में लगातार गिरावट के पीछे कई कारण हो सकते हैं। कारण चाहे जो भी हों, मगर विशेषज्ञों का मानना है कि इसमें और गिरावट हो सकती है। जिक्र योग्‍य है कि जनवरी में रुपया प्रति डॉलर 55 के स्तर पर था और आज यह 18 फीसदी लुढ़कर 65-66 के स्‍तर पर पहुंच गया है। एक समय तो रुपया 69 का आंकड़ा छूने के करीब था। महज एक सप्ताह में ही रुपये में करीब पांच फीसदी गिरावट दर्ज की गई।

जोकि कई सालों के बाद ऐसा देखने को मिला। वैसे दुनिया की कई उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में मुद्रा कई वर्षों के निचले स्तर तक कमजोर हो गया, लेकिन रुपये में सर्वाधिक कमजोरी रही। यह तीन महीने में 15 फीसदी अवमूल्यन का शिकार हुआ है। खाद्य सुरक्षा बिल, डॉलर की भारी मांग, सोने के दाम में तेजी और कच्चे तेल की कीमतों में उछाल भी रुपये की कीमत के लिए जिम्मेदार हो सकता है।


इसमें कोई संशय नहीं है कि खराब घरेलू और वैश्विक हालात ने रुपये पर ऐसा पलीता लगाया है कि यह डॉलर के मुकाबले बेदम हो रहा है। भारतीय मुद्रा की इज्जत बचाने के लिए रिजर्व बैंक पिछले कई महीनों से बाजार में डॉलर झोंक रहा है, पर बात बनती नहीं दिख रही है। जिसकी खींझ आरबीआई गवर्नर के बयान से साफ मिल जाती है। प्रत्‍यक्ष रूप से उन्‍होंने सरकार की योजनाओं और क्रियाकलापों को कठघरे में खड़ा कर दिया।


हो सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचनागत खामियां भी रुपये के अवमूल्यन का एक बड़ा कारण हो। खैर जो भी हो, इसके पीछे ठोस आर्थिक कारण तो है ही। आज भारतीय अर्थव्यवस्था में संरचनागत समस्याओं के कारण निवेश और विकास बाधित हो रहा है। इसे ठीक करने के प्रयास से बाजार तथा रुपये की गिरावट थम सकती है। मौजूदा समय में चालू खाता घाटा पिछले पांच सालों में 10 गुणा बढ़ गया है। चालू खाता घाटा से आशय यह है कि निर्यात से देश को जितनी राशि मिल रही है, उससे कहीं अधिक राशि आयात के कारण बाहर जा रही है।

पांच साल पहले यह घाटा आठ अरब डॉलर था, जो आज 90 अरब डॉलर हो गया है। इस घाटे से विदेशी पूंजी भंडार पर दबाव बढ़ गया। जिक्र योग्‍य है कि विदेशी पूंजी भंडार का उपयोग रिजर्व बैंक रुपये में स्थिरता बनाए रखने में करता है।

आज देश का विकास दर कम है, चालू खाता घाटा अधिक है। ऐसे में जब तक भारतीय अर्थव्यवस्था में स्थिरता नहीं आती और जब तक वैश्विक बाजार में अनुकूल माहौल नहीं होगा, रुपये में गिरावट का दौर जारी रहेगा। ऐसे में रोजमर्रा की जरूरतों की सभी चीजें महंगा हो जाएंगी। लोगों का जीवन स्‍तर बेहतर होने के बजाय कमतर होगा। उनकी बचत कम होगी। आखिरकार पूरी अर्थव्‍यवस्‍था को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा।

रुपये में जरूरत से ज्यादा गिरावट क्‍या अस्थायी साबित होगी? यह हम ही नहीं, सभी देशवासी कामना करेंगे कि रुपये की गिरती चाल पर तत्‍काल ब्रेक लगे ताकि देश की आर्थिक स्थिति सुधरने के साथ साथ आम जनजीवन भी राहत पा सके।



Thursday, 29 August 2013

खाद्य या यूपीए-सुरक्षा बिल!



जब संसद के मॉनसून सत्र के पहले सरकार अध्यादेश लायी तो वृंदा करात ने कहा था, हम उसके समर्थक हैं, पर आपत्तियां भी हैं. हम चाहते हैं कि इस पर संसद में बहस हो. खाद्य सुरक्षा सबके लिए एक समान हो. मुलायम सिंह ने कहा था, यह किसान विरोधी है. नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी कि मुख्यमंत्रियों से बात कीजिए. पर लगता है उन्होंने अपनी ही पार्टी के नेताओं से बात नहीं की. भाजपा के नेता इन दिनों अलग-अलग सुर में हैं. बिल पर संसद में जो बहस हुई, उसमें ज्यादातर दलों ने इसे ‘चुनाव सुरक्षा विधेयक’ मान कर ही अपने विचार रखे.
बिल पास होने के अगले दिन रुपया डॉलर के मुकाबले 66 की सीमा पार कर गया. मंगलवार को राज्यसभा में वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि रुपये की कीमत केवल बाहरी कारणों से नहीं गिरी. अंदरूनी कारण भी हैं. 2008 की मंदी के वक्त हमने गलतियां कीं और राजस्व घाटे पर ध्यान नहीं दिया. चालू खाते के असंतुलन को नहीं रोका.

बहरहाल खाद्य सुरक्षा पर कोई भी पार्टी खुद को जन-विरोधी साबित नहीं करेगी. पर इसे लेकर अर्थशास्त्रीय दृष्टियां दो प्रकार की हैं. एक कहती है कि अंतत: इसकी कीमत गरीब जनता चुकायेगी. भ्रष्टाचार की एक और लहर का भी खतरा है. किसानों के समर्थन मूल्य में कटौती होगी. तंगहाल सरकार कम कीमत पर अनाज खरीदेगी. खुले बाजार में अनाज कम जायेगा, तो उसकी कीमत बढ़ेगी. किसान के इनपुट महंगे होंगे और आउटपुट सस्ता. पैसे की कमी से आर्थिक संवृद्धि के उपाय कम होंगे, आधारभूत ढांचे का विकास नहीं होगा. ग्रोथ रुकने से रोजगार घटेंगे. शहरी विकास प्रभावित होगा. यह नजरिया कहता है कि गरीबों को भोजन नहीं, पुष्टाहार की जरूरत है. उसके लिए अलग किस्म के हस्तक्षेप की जरूरत है. कांग्रेस मानती है कि यह कार्यक्रम ‘गेम चेंजर’ है. यानी चुनाव जिताने का मंत्र. विपक्ष मानता है कि दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के पहले इसकी घोषणा करके सरकार प्रचारात्मक लाभ लेना चाहती है. वृंदा करात कहती हैं कि सरकार चार साल से सोयी थी. जयललिता, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, रमन सिंह और शिवराज सिंह इसे केंद्र-राज्य संबंधों के लिए अहितकर भी मानते हैं. इसमें राज्य सरकारों को न केवल लाभार्थियों की पहचान करनी है, इसके खर्च में हिस्सा भी बंटाना है. जयललिता कहती हैं कि सामाजिक सुरक्षा का मसला राज्य सरकारों के अधीन रहना चाहिए. दरअसल यूपी, बिहार तथा कुछ अन्य पिछड़े इलाकों को छोड़ दें, तो राज्य सरकारें अपने साधनों के आधार पर खाद्य सुरक्षा की योजनाएं चला भी रहीं है. अकाली दल कहता है कि इससे बेहतर हमारी ‘आटा-दाल’ स्कीम है, जो हम 2007 से चला रहे हैं. छत्तीसगढ़ 90 फीसदी नागरिकों को सस्ता अनाज देता है. मध्य प्रदेश में भी यह स्कीम है. तमिलनाडु, केरल, आंध्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा में भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली काम कर रही हैं. राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने सभी नागरिकों को कवर करनेवाली योजना बनायी थी, पर सरकार ने लागू करने की हिम्मत नहीं दिखायी. अब जब यह कानून पास हो गया है, तो इसके उपबंधों की व्यावहारिकता की परीक्षा होगी. देखना यह है कि इस कानून में लोगों की शिकायतों की सुनवाई की व्यवस्था किस तरह काम करेगी?

सांसदों के रात्रिभोज में मोदी शामिल हुए



भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह द्वारा पार्टी सांसदों के लिए गुरुवार को आयोजित रात्रि भोज में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी स्टार अतिथि थे। भोज के दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री और पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी एक ही टेबल पर बैठे थे और दोनों को एक-दूसरे से गर्मजोशी से बात करते देखा गया। पार्टी सांसदों के लिए भाजपा अध्यक्ष द्वारा दिए जाने वाले वार्षिक रात्रि भोज में मोदी एकमात्र विशेष आमंत्रित अतिथि थे।

जहां मोदी जल्दी पहुंच गए और अतिथियों से बातचीत करते देखे गए, वहीं आडवाणी लोकसभा में भूमि अधिग्रहण विधेयक पर मतदान में हिस्सा लेने के बाद रात 10 बजे के बाद पहुंचे। सूत्रों ने बताया कि वह मोदी के साथ एक ही टेबल पर बैठे थे। बल्कि भाजपा की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष मोदी के बिल्कुल बगल में बैठे थे और दोनों एक-दूसरे से बातचीत कर रहे थे। टेबल पर राजनाथ के साथ लोकसभा और राज्यसभा में क्रमश: विपक्ष के नेता सुषमा स्वराज और अरुण जेटली भी बैठे थे। आडवाणी ने मोदी को भाजपा को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाए जाने पर पार्टी के प्रमुख पदों से इस्तीफा दे दिया था। बाद में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के हस्तक्षेप करने के बाद आडवाणी ने इस्तीफा वापस लिया था। रात्रिभोज में तकरीबन 200 भाजपा सांसदों ने हिस्सा लिया।

Sunday, 25 August 2013

मंदी और मंदिर



प्रेम शुक्ल

१९९१ में मनमोहन ने रुपया गिराया था, अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए। उस गिरावट में भारत का अर्थतंत्र ऐसा फंसा कि कांग्रेस के हार की ‘हैट्रिक’ हुई थी। पर तब जिन लोगों ने भाजपा को वोट दिया था वह वोट रुपए को मजबूत करने की बजाय राममंदिर के भव्य निर्माण की जनाकांक्षा समेटे हुए था। रुपए के गिरने के साल भर बाद बाबरी गिरी थी। बाबरी के गिरने से हिंदू उत्साहित हुआ था। आज रुपया इतना गिरा है कि आम आदमी उसे उसे उठानेवाले को तलाश रहा है। अब आम रामभक्त अयोध्या में ८४ कोसी परिक्रमा के बाद भी भव्य राममंदिर के निर्माण के प्रति आश्वस्त नहीं। मंदिर निर्माण के लिए जिन आंखों ने २१ साल इंतजार कर लिया वे आंखें कुछ साल और इंतजार की रोशनी रखती हैं, पर क्या शक्तिशाली रुपए का निर्माण होगा? क्या नरेंद्र मोदी रुपए को डॉलर की मजबूती दे पाएंगे? यदि हां, तो समझो राममंदिर के भव्य निर्माण में भले विलंब हो ‘रामराज’ दूर नहीं होगा। क्या ‘रामराज’ लाने की योजना राजनाथ सिंह बनवा पाएंगे? यदि हां, तो फिर कण-कण में रामलला स्वयं विराजमान हो जाएंगे।
मनमोहनी मुक्तमंडी
क्या हिंदुस्तान को मुक्तमंडी बनाने के शिल्पकार डॉ. मनमोहन सिंह आर्थिक तारणहार की मसीहाई से गिरकर देश को बर्बाद करने वाले खलनायक बनने की कगार पर हैं? बीते ५ वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने घोटालों और अराजकता का इतना बड़ा बोझ अपने सिर पर लाद लिया है कि उनकी मुक्तमंडी के सारे समर्थक भी अब उनसे कन्नी काटने लगे हैं। जो सोनिया गांधी ५ साल पहले दुनिया के सबसे टिकाऊ राजनैतिक खानदान को सत्ता के साहिल पर उतारने के लिए मनमोहन सिंह को सबसे कामयाब पतवार मानती थीं, वह भी अब उनसे किनारा काटने की उचित युक्ति की तलाश में हैं। बीते ३ साल उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार की बांझ विरासत और राहुल गांधी के अनिश्चत भविष्य की कशमकश में ही बिताए हैं।
सशक्त विपक्ष की नामौजूदगी
आज किसी भी कांग्रेसी का नार्कोटेस्ट करा लिया जाए तो उसके मुंह से यही सच बाहर आएगा कि आज कांग्रेस मनमोहन सिंह की बर्बादी और बेहयाई की विरासत राहुल गांधी के अनिश्चय और अनिच्छा के दोपाट में पिसने को मजबूर है। उसे इससे उबारे कौन? सोनिया गांधी से कांग्रेसी अपेक्षा पाल रहे थे कि हो न हो ऐन मौके पर वह प्रियंका गांधी को चुनाव की फंसी बाजी में तुरुप के एक्के की तरह उतार सकती हैं। पर इस तुरुप के एक्के का दांव भी दामाद रॉबर्ट वड्रा पर लगे भूखंड घोटाले के चलते संदिग्ध है। घपले-घोटाले और अर्थव्यवस्था के निकले दिवाले के बीच भी अगर कांग्रेस किसी कारण आशा की रोशनी देख पाती है तो उसका एकमेव कारण है सशक्त विपक्ष की नामौजूदगी। बीते साल  भर की कवायद के बाद भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में ‘फर्स्ट अमंग इक्वल्स’ यानी समान अवसर में प्रथम वाली श्रेणी तक तो ला पाई है, पर आज भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के लौहपुरुष लालकृष्ण आडवाणी के माथे पर चढ़ती त्यौरियों से नरेंद्र मोदी का सेंसेक्स डांवाडोल हो जाता है।
फिर आम आदमी के मन में सवाल भी खड़ा होता है कि क्या सचमुच नरेंद्र मोदी कांग्रेसी डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा सौंपी गई बर्बाद अर्थव्यवस्था से देश को उबार पाएंगे? उनकी अर्थनीति क्या होगी जिससे रुपया फिर से मजबूत हो जाए? बेरोजगारी घटे, महंगाई नियंत्रित हो, वृद्धि दर में इजाफा हो। कृषि क्षेत्र का कल्याण हो, उद्योगधंधे फिर से चलने लगें। निवेशकों का विश्वास बढ़े। चालू खाते का घाटा सचमुच घटे। हम आए दिन सोशल मीडिया पर ‘नमो-नमो’  का जाप सुनकर खुश जरूर होते हैं, पर अभी तक हमें वह तिलिस्मी चिराग नजर नहीं आया है जिससे चरमराई अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने की आशा जाग सके। अब तक मोदीवाद जिस अर्थतंत्र का पैरोकार नजर आ रहा है वह तो मनमोहनी मुक्तमंडी से अलग नजर नहीं आता। भले मेरी बातें कसैली लगें पर अब तक जो दिखाई  दे रहा है उसमें साफ नजर आता है कि मनमोहनी पूंजीवाद सट्टावाद का शिकार होकर ऐसे दौर में पहुंच चुका है जिस पर अब विश्वस्तरीय अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह का कोई नियंत्रण शेष नहीं। पूंजीवाद के मुनाफावादी मल्टीनेशनल मुनाफाखोरों ने दशक-दो दशक पहले जो दुर्दशा मैक्सिको, ब्रिटेन, मलयेशिया, हांगकांग इंडोनेशिया आदि की की थी लगभग वही दुर्दशा आज ‘राइजिंग इंडिया’ की कर दी है।
ढहता रुपया
रुपया सरपट ढहता जा रहा है। मोदी के पास क्या कोई विकल्प है जिससे हिंदुस्तान को बचाया जा सके? यदि सचमुच मोदी और उनकी  अंतर्राष्ट्रीय ब्रांडिंग कंपनी ‘एपको’ यह विकल्प अगले छह महीनों में देश को समझा सके तो इस देश का मध्यवर्ग भाजपा को १८२ के अब तक के अधिकतम लोकसभा सीटों के आगे पहुंचा सकता है। क्या मोदी के रणनीतिकार इस दांव को आजमाएंगे? या फिर १९९० वाले भाजपा के पुराने फॉर्मूले पर ही सीटों के इजाफे का दारोमदार छोड़ा जाएगा? १९९० में भाजपा का विस्तार रामजन्मभूमि के मुद्दे पर हुआ था। आज जब मैं यह लिख रहा हूं तब एक बार फिर मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश सिंह यादव की सरकार ने अयोध्या के जनपद फैजाबाद को सील कर रखा है। विश्व हिंदू परिषद के संत-महंत चातुर्मास में अयोध्या की ८४ कोस परिक्रमा पर अड़े हुए हैं। सोशल मीडिया में एक बार फिर मुलायम सिंह यादव को मुल्ला कहा जा रहा है। मोहम्मद आजम खां को धिक्कारा जा रहा है। कांग्रेस प्रवक्ता इसे सपा-भाजपा की नूरा कुश्ती करार दे रहे हैं।
हिंदूवादियों की शक-सुबहा
क्या सचमुच रामलला विश्वास कर पाएंगे कि विहिप वाले सचमुच उनका भव्य मंदिर बनाने के लिए कृतसंकल्प हैं? आम हिंदूवादियों के मन में भी भव्य राममंदिर के निर्माण के प्रति विहिप के संकल्प को लेकर शक-सुबहा होना लाजिमी है। १९९२ में बाबरी विध्वंस के १० साल बाद २००२ में अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में आखिरी बार परमहंस रामचंद्र दास के नेतृत्व में राममंदिर आंदोलन हुआ था। अब तो शायद राम भक्तों को यह भी याद दिलाना पड़ेगा कि उसी आंदोलन से लौटती साबरमती एक्सप्रेस के कोच में गोधरा में आग लगाई गई थी। जिसकी प्रतिक्रिया में गुजरात में दंगे हुए थे। जिन दंगों के दाग धोने की अपेक्षा बीते ११ वर्षों में तमाम भाजपा नेताओं ने भी पाली है।
आम हिंदू के मन में सवाल
आम हिंदू के मन में सवाल है कि विहिप को ८४ कोस की परिक्रमा के लिए १९९२-२०१३ तक २१ वर्षों का समय क्यों लगा? १९९८ से २००२ तक यानी पूरे ४ वर्षों तक उत्तर प्रदेश और केन्द्र में भाजपा का शासन था। अशोक सिंघल या प्रवीण तोगड़िया के मन में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के रामभक्त होने में रंचमात्र संदेह होने का कोई कारण नहीं। फिर उस अवधि में ८४ कोसी परिक्रमा कर रामलला का भव्य मंदिर बनाने का अभियान क्यों नहीं हुआ? हम यह सवाल पूछ रहे हैं सो स्वाभाविक है कि हमारे हिंदुत्व पर भी कुछ लोग संदेह करें पर इस संदेह से ज्यादा जरूरी है उन सवालों का जवाब जो हिंदू समाज जानना चाहता होगा। जब परमहंस रामचंद्र दास दिवंगत हुए तो उनकी चिता पर स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि अयोध्या में रामलला के भव्य मंदिर का निर्माण होकर रहेगा। ११ वर्ष बीत गए स्वर्ग में परमहंस इंतजार कर रहे होंगे कब भाजपावाले अटल बिहारी वाजपेयी के शुभ संकल्प को पूरा करेंगे? इस ८४ कोस की परिक्रमा का फैसला प्रयाग के जिस धर्म संसद में हुआ वहां मौजूद संतों ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को कुंभ स्नान का निमंत्रण दिया था। हम लोग आज भी खुल्लमखुल्ला सद्भावना यात्रा में सिर पर गोल टोपी न लगाने के नरेंद्र मोदी के फैसले के समर्थन में भिड़ जाया करते हैं। पर आज दिन तक यह रहस्य नहीं समझ पाए कि आखिर कुंभ नहाने के निमंत्रण पर नरेंद्र मोदी ने गौर क्यों नहीं किया? माना कि उनको पाप प्रक्षालन की कोई जरूरत नहीं और वे बेहद पुण्यवान हैं, पर इस सच्चाई से भी कोई इंकार नहीं कर सकता कि अगर नमो वुंâभ में डुबकी लगा आते तो आज ८४ कोस की परिक्रमा पर निकले संत समाज के मन में राममंदिर निर्माण को लेकर बेहतर दृढ़ विश्वास होता। कुंभ बीता।
राम मंदिर का क्या?
भाजपा की नई राष्ट्रीय कार्यकारिणी बनी। नरेंद्र मोदी के परमप्रिय सिपहसालार अमित शाह को राष्ट्रीय महासचिव की नियुक्ति के साथ-साथ उत्तर प्रदेश का सांगठनिक दायित्व मिला। अमित शाह पहली बार उत्तर प्रदेश के दौरे पर गए तो प्रदेशाध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी के साथ उनका अयोध्या दौरा हुआ। अमित शाह और लक्ष्मीकांत वाजपेयी दोनों ने मीडिया के समक्ष कहा कि भाजपा राममंदिर का भव्य निर्माण कराना चाहती है। ये खबर अभी जवान भी नहीं हुई थी कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह का जो बयान आया उसका संदेश यही था कि राम मंदिर मुद्दा भाजपा के एजेंडे में नहीं। राजनाथ सिंह कुंभ स्नान कर आए थे और उत्तर प्रदेश की राजनीति की उनकी समझ को लेकर शक करने का कोई मतलब नहीं। तो क्या मान लिया जाए कि राममंदिर मुद्दे में अब भाजपा को जिताने का दम नहीं या फिर भाजपा राममंदिर मुद्दे को राजनीति से बहुत ऊंचा मानती है। यदि राममंदिर मुद्दा सचमुच बहुत ऊंचा है तो भव्य राममंदिर के निर्माण की कार्ययोजना क्या?
८४ कोसी परिक्रमा
इस बयान के कुछ दिन बाद रामजन्मभूमि न्यास समिति के अध्यक्ष  महंत नृत्य गोपालदास के सम्मान में अयोध्या में उत्सव आयोजित था। उस कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी को निमंत्रित किए जाने की बात फिर सुर्खियों में आई। पूर्वनिर्धारित कार्यक्रमों के चलते नरेंद्र मोदी फिर अयोध्या नहीं गए। सो, विहिप की नीतियों का कट्टर समर्थन करने की पूरी इच्छा होने के चलते यह सवाल तो बनता है कि नरेंद्र मोदी यानी हमारे भावी कट्टर हिंदू प्रधानमंत्री क्या अयोध्या में भव्य मंदिर निर्माण के पक्ष में हैं? क्या विहिप की परिक्रमा को उनका नैतिक समर्थन प्राप्त है? या फिर बीते दशक भर में जिस तरह उनके और गुजरात विहिप के बीच में मतांतर रहा है वह कायम है। यदि मोदी यह मानते हों कि रामजन्मभूमि आंदोलन से भाजपा को दूरी बनाए रखनी चाहिए तो फिर उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी क्या केन्द्रीय नेतृत्व को विश्वास में लिए बिना ही विहिप की ८४ कोसी परिक्रमा को रोज समर्थन देनेवाला बयान जारी कर रहे हैं। भाजपा में अगर कोई केन्द्रीय नेतृत्व की नीतियों से हट कर बयान देता है तो उसके प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन यह दारोगानुमा बयान देने में जरा भी देर नहीं करते कि ‘पार्टी अध्यक्ष उक्त नेता के बयान पर उचित कार्यवाही करेंगे।’ अब तक मेरी नजर लक्ष्मीकांत वाजपेयी के इस ‘सांपद्रायिक’ वक्तव्य पर शाहनवाज हुसैन के किसी बयान पर नहीं गई है।
उद्धव ठाकरे का जवाब
हमने बात शुरू की थी मनमोहन की मुक्तमंडी के महामंदी में फांस से। जब शिवसेना के पक्षप्रमुख उद्धव ठाकरे दिल्ली दौरे पर गए थे तब उनसे एक पत्रकार ने सवाल पूछा कि अयोध्या में राममंदिर के भव्य निर्माण पर शिवसेना की क्या भूमिका है? शिवसेना पक्ष प्रमुख का जवाब था- ‘राममंदिर तो बनना चाहिए, पर उससे कहीं ज्यादा जरूरी है आम आदमी के रोजी-रोटी का सवाल।’ मुक्तमंडी के विफल होने से, रुपए के धराशाई होने से आम आदमी की रोटी का सवाल जटिल हो रहा है। बाबरी के गिरने से हिंदुस्तान को उतना नुकसान नहीं हुआ था जितना रुपए के गिरने से होने जा रहा है।

भोजन या वोटों का जुगाड़ है फूड बिल?



दिल्ली में कुछ दिन पहले सोनिया गांधी ने खाद्य सुरक्षा योजना का उद्घाटन किया था। इसके तहत गरीबों को सस्ता अनाज मिलेगा। लेकिन सवाल ये है कि क्या दिल्ली के गरीबों को इसका लाभ मिल पाएगा? इस महत्वकांक्षी योजना को लेकर आखिर वो क्या सोचते हैं जिनके लिए ये पूरी कवायद की जा रही है। क्या सचमुच खाद् सुरक्षा योजना गरीबों को फायदा पहुंचाने की गंभीर कोशिश है या फिर महज वोट बटोरने का जरिया?
आईबीएन7 इस सवाल का जवाब ढूंढने जा पहुंचा गरीबों की बस्ती में। राजधानी दिल्ली में यमुना किनारे बनी झुग्गियों में लगभग 5 हजार लोग रहते हैं। ये या तो मजदूर हैं या फिर सब्जी, फल-फूल बेचकर गुजर बसर करने वाले। दिनभर की कड़ी मेहनत के बाद डेढ़ से 2 सौ रुपए ही कमा पाते हैं। 15 -20 सालों से ये परिवार इन्हीं झुग्गियों में रहते हैं और ये वो लोग हैं जिनके लिए सरकार खाद्य सुरक्षा कानून बनाने की कवायद में जुटी है। दिल्ली की शीला सरकार तो जल्द-जल्द से ये योजना लागू करना चाहती है। इस योजना के तहत सरकार इन लोगों को हर महीने प्रति व्यक्ति 5 किलो राशन देने की बात कर रही है। सवाल ये कि क्या इससे इनका गुजारा हो पाएगा?
गरीब बस्तियों में रहनेवाली शीला से एक सवाल पूछा गया तो उसने कहा कि चार किलो गेंहूं और एक किलो चावल में नहीं खा सकते हैं। गौरतलब है कि झुग्गियों में रहनेवाले लोग सिर्फ गरीब नहीं हैं। बल्कि ये वोटर भी हैं और ये वो लोग हैं जो ईमानदारी से पोलिंग बूथ पहुंचते हैं। इसे इत्तेफाक कहिए या राजनीति, मगर इस साल के अंत तक दिल्ली में चुनाव भी हैं तो क्या 2 रुपए किलो गेंहूं और 3 रुपए किलो चावल का वायदा गरीब की भूख मिटाने का हिस्सा है या फिर महज ये वोट के जुगाड़ का किस्सा है? खैर ये तो वक्त ही बताएगा मगर हमने ये सवाल झुग्गी के बाशिंदों से पूछा कि ये अनाज उनके पेट तक पहुंचेगा?
झुग्गी में रहनेवाली शकुंतला ने बताया कि जब जरूरत होती है तो आते हैं। ये सब चुनाव को लेकर हो रहा है वोट चाहिए तो आ रहे हैं। अब इस जवाब के बाद ये तय करना बड़ा मुश्किल होता है कि किसकी भूख हावी हो रही है? बहरहाल, उम्मीद तो अच्छे की ही करनी चाहिए।

Thursday, 22 August 2013

होगा आदिवासियों का भला ?




सच्चर कमेटी की तर्ज पर आदिवासियों के उत्थान के लिए भी एक कमेटी का गठन कर दिया है। लेकिन, यह एक ईमानदार पहल कदमी के बजाय छलावा ज्यादा लगती है। एक ऐसा छलावा, जो शुरुआत में झूठी उम्मीदें पैदा करता है। देश मेंअनुसूचित जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान व विकास के लिए केन्द्र सरकार ने एक उच्चस्तरीय समिति के गठन का फैसला किया है। आदिवासी समुदायों के विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियों को केन्द्र में रखते हुए प्रस्तावित उच्च स्तरीय समिति मुख्यत: इस वर्ग की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व स्वास्थ्य आदि की स्थितियों का गहन अध्ययन कर एक रिपोर्ट तैयार करेगी। इसके आधार पर आदिवासी समुदाय के सम्पूर्ण भावी विकास की रूपरेखा तैयार की जा सकेगी।
उच्चस्तरीय समिति अनुसूचित जनजातियों के लिए नीतियों के निर्धारण का सुझाव देगी। यह उच्च स्तरीय समिति आदिवासी मामलों के मंत्रालय के अधीन रहेगी। प्रोफेसर वर्जीनियस खाखा की अध्यक्षता में इस समिति के अन्य सदस्य हैं, डॉ. उषा रामनाथन्, डॉ. जोसेफ बारा, डॉ. के.के. मिश्रा, डॉ. अभय बंग, व सुश्री सुशीला बसंत। आदिवासी मंत्रालय के सचिव इस समिति के सदस्य सचिव होंगे, जबकि सूत्रों की मानें तो राष्ट्रीय सलाहाकार परिषद की पूर्व सदस्य व सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय इस समिति की प्रमुख कर्ता-धर्ता होंगी। आदिवासी समुदायों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व स्वास्थ्यगत स्थितियों का विहंगम अध्ययन कर उच्च स्तरीय समिति नौ महीनों के भीतर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी। केंद्र व राज्य सरकार के विभिन्न विभागों से आदिवासियों की दशा पर आधिकारिक आंकड़े जुटाने के साथ ही यह समिति विशेष रूप से राज्य, क्षेत्र व जिला स्तरों पर उनकी दशा-दिशा जानने-समझने के लिए प्रकाशित लेखों, शोधपत्रों, आंकड़ों, साहित्य आदि का गहन अध्ययन करेगी।
कोई हैरत की बात नहीं यदि आदिवासियों की स्थिति सुधारने के लिए बनाई गई कमेटी की रिपोर्ट भी इसी अंजाम को प्राप्त हो। आखिर ऐसा क्या है, जो आदिवासियों की हालत के बारे में छिपा हो। उनकी समस्याएं जगजाहिर हैं और उनके समाधान तलाशने के लिए नया शोध नहीं करना होगा। वैसे भी कमेटी उपलब्ध जानकारियों तथा आंकड़ों के पर ही निष्कर्ष निकालेगी और सिफारिश करेगी। उसे कुछ भी नया नहीं करना है। वह ये काम तीन महीने में भी कर सकती थी, जिसके लिए उसे नौ महीने दिए गए हैं।

वास्तव में सरकार अगर समचमुच में ईमानदार होती, तो इस कवायद में वह उन लोगों को शामिल करती जो जल, जंगल और जमीन से जुड़े मसलों पर वर्षों से काम कर रहे हैं। वे जमीनी हकीकत से उसे रूबरू करवा देते। सरकारी कार्यक्रमों और नीतियों में कहां क्या खोट हैं, उनसे बेहतर कौन बता सकता है। लेकिन वह ऐसा नहीं करेगी, क्योंकि ये उसके लिए खतरनाक हो सकता है। उनके जरिए वह भयानक तस्वीर सामने आ सकती है, जिससे वह मुंह चुराती रही है। दरअसल, कांग्रेस इस बात से घबराई हुई है कि उसकी छवि आदिवासी विरोधी बनती जा रही है। देश भर में यह धारणा मजबूत हो रही है कि उसे आदिवासियों की कोई चिंता नहीं है और वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं कॉरपोरेट जगत के हितों के लिए काम कर रही है। यह उसकी वर्तमान एवं भावी राजनीति के लिए बहुत ही नुकसानदेह है। पहले ही वह आदिवासियों में अपना जनाधार गंवाती जा रही है और भाजपा का प्रभाव उनमें बढ़ता जा रहा है। ऐसे में अगर उसने समय रहते कुछ न किया तो वह सिमटती चली जाएगी। इसी चिंता के चलते कमेटी का तिलिस्म रचा जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि वह उन नीतियों को बदलने के बारे में नहीं सोचती, जिनसे उसके जनाधार का क्षरण हो रहा है।  उच्च स्तरीय समिति अपने कार्य को तय समय-सीमा के भीतर सम्पन्न कर सके, इसके लिए सरकार के विभिन्न मंत्रालय व एजेंसियां अपना सम्पूर्ण सहयोग देंगी। आदिवासियों व उनसे संबंधित मुद्दों पर भूरिया समिति, मुंगेकर समिति व राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग द्वारा प्रदत्त जो भी रिपोर्ट सरकार के पास हैं, वे इस उच्च स्तरीय समिति को उपलब्ध कराई जाएंगी। आदिवासी मामलों से संबंधित मौजूदा आंकड़े भी इस समिति को दिए जाएंगे।
जनजातिय मामलों के मंत्रालय ने सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण पर गठित स्थायी समिति की जनजातियों के लिए चलाई जा रही शैक्षिणिक उत्थान योजनाओं से संबंधित रिपोर्ट में राज्य सरकारों की दायित्वहीनता एवं केन्द्र सरकार निष्क्रियता साफ झलक रही है। समिति ने अपने प्रतिवेदन में कहा है कि जनजातियों के शैक्षणिक उत्थान के लिए चलाई जा रही एकलव्य मॉडर्न रिहायशी स्कूलों की स्थापना की परियोजना के अंतर्गत मंत्रालय ने विभिन्न राज्यों के लिए 100 स्कूल मंजूर किये थे, उनमे से केवल 79 स्कूल ही कार्यरत है । शेष 21 स्कूल शुरु ही नही हुए यहां तक कि उनमें से चार स्कूल जनजाति बहुल आसाम एवं मेद्यालय से दूसरे राज्यों मे स्थान्तरित कर दिये गये। कमेटी ने पाया की राज्य सरकारों की गैर जिम्मेदारी एवं उदासीनता के कारण यह स्कूल स्थापना का कार्य समय से नही हो सका और अब कहा है कि मंत्रालय अनिर्मित सभी स्कूलो को 2 वर्ष के भीतर शुरु करने के लिए राज्य सरकारों को आवश्यक निर्देश जारी करें। समिति ने कहा है कि 2004.05 से 2007.08 में मंत्रालय द्वारा उत्तर -मैट्रिक छात्रवृत्ति के लिए अरुणाचल प्रदेश, बिहार, दमन दीव के लिए जो वित्तीय मदद नही दी गई उसे तुरंत जारी किया जाये। कमिटी मंत्रालय के इस जवाब से असंतुष्ट थी कि संबंधित राज्य द्वारा वित्तीय मांगो के प्रस्ताव नही भेजे थे। कमेटी के सामने सरकार ने अपने जवाब में कहा था, मंत्रालय ने 2007-08 के दोहराने संबंधित राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों को कई बार लिखित स्मृति पत्र भी भेज चुकि है लेकिन राज्य सरकारों ने आवश्यक कार्यवाही नही कि, इसे कमेटी ने खारिज कर दिया तथा कहा कि मंत्रालय को आदिवासी छात्रों के लिए राज्य सरकारों पर आवश्यक दवाब बनाये ताकि उच्च शिक्षा में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो सके। एवं इन कारणों का भी पता लगाये जिनके कारण राज्य सरकारे समय-समय पर प्रतिवेदन क्यों नही दे पाती है। शत प्रतिशत केन्द्र सरकार द्वारा संचालित उत्तर मैट्रिक छात्रवृति योजना के ठीक क्रियान्वयन नही होने के पीछे सरकार का तर्क है की वित्तीय रुप से पिछड़े अनुश्चिित जनजाति के छात्र छात्रवृति के लिए आवेदन नही करते है इसे कमेटी ने सिरे से खारिज कर दिया तथ टालने के रवैये की कड़ी आलोचना की है। स्थयी समिति ने अपनी अगली सिफारिश के संदर्भ में मंत्रालय से आये जवाब मे कि असम, झारखंड, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड़ से इस छात्रवृति पर खर्च एवं उपयोग प्रमाण पत्र नही मिलने के कारण इनकी वित्त पूर्ति पर रोक लगा दी गई थी लेकिन कमेटी ने इससे नाराजगी जताते हुए कहा कि इसके खच्र का सुनिश्चित करते हुए यह ध्यान दिया जाये कि निर्धारित योजना का पैसा उसी योजना पर खर्च किया जाये किसी अन्य योजना मे यह डाइवर्ट नही किया जाएं। 2004-05, 2005-06 और 2006-07 में अप ग्रेजुएशन आफ मेरिट आफ एसटी स्टूडेंट स्कीम के अंतर्गत लाभार्थियों की संख्या कई राज्यों में नही के बराबर है एवं 2007-08 में उत्तर प्रदेश में तो इस योजना के अंतर्गत किसी को भी लाभ नही दिया गया यह दशा मंत्रालय की अनदेखी एवं राज्य सरकारों की जनजातियों के शैक्षणिक विकास के प्रति उदासीनता को उजागर करती है।