2014 का कैलेंडर हमारी आज़ादी के साक्षी वर्ष 1947 के समान है| तारीख के साथ दिन,वार और जयंतियां सब एक ही तारीख में एक समान पड़ रहे हैं। एक और खास बात यह है कि दोनों वर्षों का प्रारंभ बुधवार और समाप्ति भी बुधवार से ही हो रही। विशेषज्ञ के मुताबिक यह हैप्पी क्लोन कैलेंडर है। नए साल के कैलेंडर में जरा भी फर्क नहीं है। इस तरह कहा जा सकता है कि आजादी का वर्ष लौट आया है। उल्लेखनीय है कि 1947 को देश आजाद हुआ था। इस लिहाज से इस वर्ष का एक-एक दिन, तिथि व समय काफी अहमियत रखता है। दोनों वर्षो की शुरुआत बुधवार से हुई और समाप्ति का दिन भी बुधवार ही है।
15 अगस्त, 1947 को जिस दिन आजादी मिली, उस दिन भी शुक्रवार था। नए साल में भी यह तारीख शुक्रवार को पड़ रही है। 1947 और 2014 का कैलेंडर एक जैसा होने के बाद भी त्योहारों की तिथि और वार अलग-अलग हैं। 1947 में महाशिवरात्रि 18 फरवरी, होली 6 मार्च, रक्षाबंधन 31 अगस्त, दशहरा 24 अक्टूबर व दिवाली 12 नवंबर को थी, जबकि 2014 में महाशिवरात्रि 27 फरवरी, होली 17 मार्च, रक्षाबंधन 10 अगस्त, दशहरा 4 अक्टूबर व दिवाली 23 अक्टूबर को होगी। मंगलवार की आधी रात बारह बजते ही 70 साल पहले देश के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज 1947 का आईना बना कैलेंडर 2014 में इतिहास दोहराएगा। वर्ष 1947 के कैलेंडर और वर्ष 2014 के कैलेंडर में जरा भी फर्क नहीं है। न तारीख में अंतर, न दिन में। ग्रह व नक्षत्रों की स्थिति भी एक जैसी। उत्सुकता इस बात को लेकर ज्यादा है कि वर्ष 1947 ब्रिटिश हुकूमत को देश से बाहर करने में गवाह बना था।
ज्योतिषाचार्य के मुताबिक आने वाला साल राजपाठ में परिवर्तन के योग बना रहा है। आने वाले वर्ष में हमें ऐसे बदलाव देखने को मिलेंगे जो हमारे जीवन को सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक तौर पर ऐसा बदलेंगे जिसकी हमने कामना भी नहीं की होगी| राजनैतिक आकाश में एक नए जननायक का उदय होगा जो समाज और देश को नयी दिशा और दशा देगा| गृह नक्षत्र की चाल बताते है कि ये वर्ष देश और मानव जीवन दोनों के लिए उत्साह लाने वाला साबित होगा| ये वर्ष न्याय वर्ष के तौर पर इतिहास में अपनी पहचान बनाएगा| कई बड़ी हस्तियों का पतन होगा तो कई ऐसे नायक सामने आएंगे जो देश का नाम विश्व में रौशन करेंगे| न सिर्फ देश बल्कि दुनिया के लिए भी ये वर्ष भाड़ी उथल पुथल वाला साबित होगा| हाँ ये उथल पुथल सुखद सन्देश देने वाली होगी| ये वर्ष अपने घटनाक्रमों के चलते अनंत वर्षों तक जाना जायेगा| उनके मुताबिक देश में ऐसे नायक का जन्मा होगा जो भ्रस्ट तंत्र को उखाड़ने के लिए जन मानस को खड़ा करेगा| राजनैतिक शुद्धि, सामाजिक शुद्धि की ओर ये वर्ष कदम उठाने वाला है| फिलहाल 2014 इतिहास के जिन्दा होने जैसा अनुभव लाने वाला है|
बीते 62 बरस की सियासत में कभी यह सवाल नहीं उभरा कि राजनीतिक विचारधारायें बेमानी लगने लगी हैं। संविधान के सामाजिक सरोकार नहीं हैं। सत्ता सरकार और हर घेरे में ताकतवर की अंटी में बंधी पड़ी है। लेकिन पहली बार 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से बनी सत्ता ने महात्मा गांधी की उस लकीर पर ध्यान देने को मजबूर किया जो नेहरु के एतिहासिक भाषण को सुनने की जगह बंद अंधेरे कमरे में बैठकर 15 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी ने ही खींची थी। तो क्या मौजूदा वक्त में समूची राजनीतिक व्यवस्था को सिरे से उलटने का वक्त आ गया है। या फिर देश की आवाम अब प्रतिनिधित्व की जगह सीधे भागेदारी के लिये तैयार है। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि एक तरफ दिल्ली में ना तो कोई ऐसा महकमा है और ना ही कोई ऐसी जरुरत जो पहली बार नयी सरकार के दरवाजे पर इस उम्मीद और आस से दस्तक ना दे रही हो, जिसे पूरा करने के लिये सियासी तिकड़म को ताक पर रखना आना चाहिये। पानी, बिजली, खाना, शिक्षा, इलाज,घर और स्थायी रोजगार। ध्यान दें तो बीते 62 बरस की
सियासत के यही आधार रहे । और 1952 में पहले चुनाव से लेकर 2014 के लिये बज रही तुतहरी में भी सियासी गूंज इन्ही मुद्दों की है। तो क्या बीते 62 बरस से देश वहीं का वहीं है। हर किसी को लग सकता है कि देश को बहुत बदला है । काफी तरक्की देश ने की है । लेकिन बारीकी से देश के संसदीय खांचे में सियासी तिकड़म को समझे तो हालात 1952 से भी बदतर नजर आ सकते हैं। फिर 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम से होने वाले असर को समझना आसान होगा। देश के पहले आम चुनाव 1952 में कुल वोटर 17 करोड 32 लाख थे। और इनमें से 10 करोड़ 58 लाख वोटरों ने वोट डाले थे। और जिस कांग्रेस को चुना उसे 4 करोड़ 76 लाख लोगों ने वोट डाले गये। वहीं 2009 में कुल 70 करोड़ वोटर थे। इनमें से सिर्फ 29 करोड़ वोटरों ने वोट डाले। और जो कांग्रेस सत्ता में आयी उसे महज 11 करोड़ वोटरों ने वोट दिये। जबकि 1952 के वक्त के चार भारत 2009 में जनसंख्या के लिहाज से भारत है। तो पहला सवाल जिस तादाद में 1952 में पानी, शिक्षा , बिजली, खाना, इलाज , घर या रोजगार को लेकर तरस रहे थे 2013 में उससे कही ज्यादा भारतीय नागरिक उन्हीं न्यूतम मुद्दों को लेकर तरस रहे हैं। तो फिर संसदीय राजनीतिक सत्ता कैसे और किस रुप में आम आदमी के हक में रही।
2014 के लिये यह सोचना कल्पना हो सकता कि 21 मई 2014 को जब देश में नयी सरकार शपथ लें तो वह वाकई आम आदमी के मैनिफेस्टो पर बनी सरकार हो। जहां राजनीतिक विचारधारा मायने ना रखे। जहा वामपंथी या दक्षिणपंथी धारा मायने ना रखे। जहां जातीय राजनीति या धर्म की राजनीति बेमानी साबित हो। और देश के सामने यही सवाल हो पहली बार हर वोटर को जैसे वोट डालने का बराबर अधिकार है वैसे ही न्यूनतम जरुरत से जुड़े आधे दर्जन मुद्दो पर भी बराबर का अधिकार होगा। तो पानी हो या बिजली या फिर इलाज या शिक्षा । और रोजगार या छत । इस दायरे में देश में मौजूदा अर्थव्यवस्था के दायरे में अगर वाकई प्रति व्यक्ति आय 25 से 30 हजार रुपये सालाना हो चुकी है । तो फिर उसी आय के मुताबिक ही सार्वजनिक वितरण नीति काम करेगी। सरकार के आंकड़े कहते है कि देश में प्रति व्यक्ति आय हर महीने के ढाई हजार रुपये पार कर चुके है तो फिर इस दायरे में तो हर परिवार को उतनी सुविधा यू ही मिल जानी चाहिये जो सब्सिडी या राजनीतिक पैकेज के नाम पर सियासी अर्थव्यवस्था करती है। यह सीख 2013 से निकल कर 2014 के लिये इसलिये दस्तक दे रही है क्योंकि दिल्ली चुनाव में जो जीते है वह पहली बार सरकार चलाने के लिये सत्ता तक चुनाव जीत कर नहीं पहुंचे बल्कि समाज में जो वंचित है, उन्हें उनके अधिकारों को पहुंचाने की शपथ लेकर पहुंचे हैं। और पारंपरिक राजनीति के लिये यह सोच इसलिये खतरनाक है क्योंकि यह परिणाम हर अगले चुनाव में कही ज्यादा मजबूत होकर उभर सकते हैं। क्योंकि 2014 के चुनाव के वक्त देश में कुल 75 से 80 करोड़ तक वोटर होंगे। और पारंपरिक राजनीति को सत्ता में आने के लिये 12 से 15 करोड वोटर की ही
जरुरत पड़ेगी। लेकिन यह आंकडे तब जब देश में 35 से 37 करोड़ तक ही वोट पड़ें । लेकिन आम आदमी की भागेदारी ने अगर दिल्ली की तर्ज पर 2014 में समूचे देश में वोट डाले तो वोट डालने वालों का आंकड़ा 45 से 50 करोड़ तक पहुंच सकता है। यानी जो पारंपरिक राजनीति 12 से 15 करोड तक के वोट से सत्ता में पहुंचने का ख्वाब देख रही है, उसके सामानांतर झटके में आम आदमी 8 से 10 करोड़ नये वोटरो के साथ खड़ा होगा और जब पंरपरा टूटती दिखेगी तो 5 करोड़ वोटर से ज्यादा वोटर जो जातीय या धर्म के आसरे नहीं बंधा है या खुद को हर बार छला हुआ महसूस करता है, वह भी खुद को बदल सकता है। तब देश में एक नया सवाल खड़ा होगा क्या वाकई काग्रेस -भाजपा या क्षत्रपो की फौज अपने राजनीतिक तौर तरीको को बदलगी। क्योंकि आम आदमी की अर्थव्यवस्था को जातीय खांचे या वोट बैंक की राजनीति या फिर मुनाफा बनाकर सरकार को ही कमीशन पर रखने वाली निजी कंपनियो या कारपोरेट की अर्थव्यवस्था से अलग होगी । तब क्या विकास का सवाल पीछे छूट जायेगी। या फिर 1991 में विकास के नाम पर जिस कारपोरेट या निजी कंपनियो के साथ सियासी गठजोड ने उड़ान भरी उसपर ब्रेक लग जायेगा । यह सवाल आपातकाल से लेकर मंडल-कंमडल या खुली बाजार अर्थव्यवस्था के दायरे में बदली सत्ता के दौर में मुश्किल हो सकता है। लेकिन 2013 के बाद यह सवाल 2014 में मुश्किल इसलिये नहीं है क्योंकि अरविन्द केजरीवाल ने कोई राजनीतिक विचारधारा खिंच कर खुद पर ही सत्ता को नहीं टिकाया है बल्कि देश के सामने सिर्फ एक राह बनायी है कि कैसे आम आदमी सत्ता पलट कर खुद सत्ताधारी बन सकता है । इसलिये दिल्ली में केजरीवाल फेल होते हैं या पास सवाल यह नहीं है। सवाल सिर्फ इतना है कि 2013 के दिल्ली चुनाव परिणाम ने 2014 के चुनाव को लेकर एक आस एक उम्मीद पैदा की है कि आम आदमी अगर चुनाव को आंदोलन की तर्ज पर लें तो सिर्फ वोट के आसरे वह 62 बरस पुरानी असमानता की लकीर को मिटाने की दिशा में बतौर सरकार पहली पहल कर सकता है।