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Sunday, 25 August 2013

मंदी और मंदिर



प्रेम शुक्ल

१९९१ में मनमोहन ने रुपया गिराया था, अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए। उस गिरावट में भारत का अर्थतंत्र ऐसा फंसा कि कांग्रेस के हार की ‘हैट्रिक’ हुई थी। पर तब जिन लोगों ने भाजपा को वोट दिया था वह वोट रुपए को मजबूत करने की बजाय राममंदिर के भव्य निर्माण की जनाकांक्षा समेटे हुए था। रुपए के गिरने के साल भर बाद बाबरी गिरी थी। बाबरी के गिरने से हिंदू उत्साहित हुआ था। आज रुपया इतना गिरा है कि आम आदमी उसे उसे उठानेवाले को तलाश रहा है। अब आम रामभक्त अयोध्या में ८४ कोसी परिक्रमा के बाद भी भव्य राममंदिर के निर्माण के प्रति आश्वस्त नहीं। मंदिर निर्माण के लिए जिन आंखों ने २१ साल इंतजार कर लिया वे आंखें कुछ साल और इंतजार की रोशनी रखती हैं, पर क्या शक्तिशाली रुपए का निर्माण होगा? क्या नरेंद्र मोदी रुपए को डॉलर की मजबूती दे पाएंगे? यदि हां, तो समझो राममंदिर के भव्य निर्माण में भले विलंब हो ‘रामराज’ दूर नहीं होगा। क्या ‘रामराज’ लाने की योजना राजनाथ सिंह बनवा पाएंगे? यदि हां, तो फिर कण-कण में रामलला स्वयं विराजमान हो जाएंगे।
मनमोहनी मुक्तमंडी
क्या हिंदुस्तान को मुक्तमंडी बनाने के शिल्पकार डॉ. मनमोहन सिंह आर्थिक तारणहार की मसीहाई से गिरकर देश को बर्बाद करने वाले खलनायक बनने की कगार पर हैं? बीते ५ वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने घोटालों और अराजकता का इतना बड़ा बोझ अपने सिर पर लाद लिया है कि उनकी मुक्तमंडी के सारे समर्थक भी अब उनसे कन्नी काटने लगे हैं। जो सोनिया गांधी ५ साल पहले दुनिया के सबसे टिकाऊ राजनैतिक खानदान को सत्ता के साहिल पर उतारने के लिए मनमोहन सिंह को सबसे कामयाब पतवार मानती थीं, वह भी अब उनसे किनारा काटने की उचित युक्ति की तलाश में हैं। बीते ३ साल उन्होंने मनमोहन सिंह सरकार की बांझ विरासत और राहुल गांधी के अनिश्चत भविष्य की कशमकश में ही बिताए हैं।
सशक्त विपक्ष की नामौजूदगी
आज किसी भी कांग्रेसी का नार्कोटेस्ट करा लिया जाए तो उसके मुंह से यही सच बाहर आएगा कि आज कांग्रेस मनमोहन सिंह की बर्बादी और बेहयाई की विरासत राहुल गांधी के अनिश्चय और अनिच्छा के दोपाट में पिसने को मजबूर है। उसे इससे उबारे कौन? सोनिया गांधी से कांग्रेसी अपेक्षा पाल रहे थे कि हो न हो ऐन मौके पर वह प्रियंका गांधी को चुनाव की फंसी बाजी में तुरुप के एक्के की तरह उतार सकती हैं। पर इस तुरुप के एक्के का दांव भी दामाद रॉबर्ट वड्रा पर लगे भूखंड घोटाले के चलते संदिग्ध है। घपले-घोटाले और अर्थव्यवस्था के निकले दिवाले के बीच भी अगर कांग्रेस किसी कारण आशा की रोशनी देख पाती है तो उसका एकमेव कारण है सशक्त विपक्ष की नामौजूदगी। बीते साल  भर की कवायद के बाद भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में ‘फर्स्ट अमंग इक्वल्स’ यानी समान अवसर में प्रथम वाली श्रेणी तक तो ला पाई है, पर आज भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के लौहपुरुष लालकृष्ण आडवाणी के माथे पर चढ़ती त्यौरियों से नरेंद्र मोदी का सेंसेक्स डांवाडोल हो जाता है।
फिर आम आदमी के मन में सवाल भी खड़ा होता है कि क्या सचमुच नरेंद्र मोदी कांग्रेसी डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा सौंपी गई बर्बाद अर्थव्यवस्था से देश को उबार पाएंगे? उनकी अर्थनीति क्या होगी जिससे रुपया फिर से मजबूत हो जाए? बेरोजगारी घटे, महंगाई नियंत्रित हो, वृद्धि दर में इजाफा हो। कृषि क्षेत्र का कल्याण हो, उद्योगधंधे फिर से चलने लगें। निवेशकों का विश्वास बढ़े। चालू खाते का घाटा सचमुच घटे। हम आए दिन सोशल मीडिया पर ‘नमो-नमो’  का जाप सुनकर खुश जरूर होते हैं, पर अभी तक हमें वह तिलिस्मी चिराग नजर नहीं आया है जिससे चरमराई अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने की आशा जाग सके। अब तक मोदीवाद जिस अर्थतंत्र का पैरोकार नजर आ रहा है वह तो मनमोहनी मुक्तमंडी से अलग नजर नहीं आता। भले मेरी बातें कसैली लगें पर अब तक जो दिखाई  दे रहा है उसमें साफ नजर आता है कि मनमोहनी पूंजीवाद सट्टावाद का शिकार होकर ऐसे दौर में पहुंच चुका है जिस पर अब विश्वस्तरीय अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह का कोई नियंत्रण शेष नहीं। पूंजीवाद के मुनाफावादी मल्टीनेशनल मुनाफाखोरों ने दशक-दो दशक पहले जो दुर्दशा मैक्सिको, ब्रिटेन, मलयेशिया, हांगकांग इंडोनेशिया आदि की की थी लगभग वही दुर्दशा आज ‘राइजिंग इंडिया’ की कर दी है।
ढहता रुपया
रुपया सरपट ढहता जा रहा है। मोदी के पास क्या कोई विकल्प है जिससे हिंदुस्तान को बचाया जा सके? यदि सचमुच मोदी और उनकी  अंतर्राष्ट्रीय ब्रांडिंग कंपनी ‘एपको’ यह विकल्प अगले छह महीनों में देश को समझा सके तो इस देश का मध्यवर्ग भाजपा को १८२ के अब तक के अधिकतम लोकसभा सीटों के आगे पहुंचा सकता है। क्या मोदी के रणनीतिकार इस दांव को आजमाएंगे? या फिर १९९० वाले भाजपा के पुराने फॉर्मूले पर ही सीटों के इजाफे का दारोमदार छोड़ा जाएगा? १९९० में भाजपा का विस्तार रामजन्मभूमि के मुद्दे पर हुआ था। आज जब मैं यह लिख रहा हूं तब एक बार फिर मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश सिंह यादव की सरकार ने अयोध्या के जनपद फैजाबाद को सील कर रखा है। विश्व हिंदू परिषद के संत-महंत चातुर्मास में अयोध्या की ८४ कोस परिक्रमा पर अड़े हुए हैं। सोशल मीडिया में एक बार फिर मुलायम सिंह यादव को मुल्ला कहा जा रहा है। मोहम्मद आजम खां को धिक्कारा जा रहा है। कांग्रेस प्रवक्ता इसे सपा-भाजपा की नूरा कुश्ती करार दे रहे हैं।
हिंदूवादियों की शक-सुबहा
क्या सचमुच रामलला विश्वास कर पाएंगे कि विहिप वाले सचमुच उनका भव्य मंदिर बनाने के लिए कृतसंकल्प हैं? आम हिंदूवादियों के मन में भी भव्य राममंदिर के निर्माण के प्रति विहिप के संकल्प को लेकर शक-सुबहा होना लाजिमी है। १९९२ में बाबरी विध्वंस के १० साल बाद २००२ में अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में आखिरी बार परमहंस रामचंद्र दास के नेतृत्व में राममंदिर आंदोलन हुआ था। अब तो शायद राम भक्तों को यह भी याद दिलाना पड़ेगा कि उसी आंदोलन से लौटती साबरमती एक्सप्रेस के कोच में गोधरा में आग लगाई गई थी। जिसकी प्रतिक्रिया में गुजरात में दंगे हुए थे। जिन दंगों के दाग धोने की अपेक्षा बीते ११ वर्षों में तमाम भाजपा नेताओं ने भी पाली है।
आम हिंदू के मन में सवाल
आम हिंदू के मन में सवाल है कि विहिप को ८४ कोस की परिक्रमा के लिए १९९२-२०१३ तक २१ वर्षों का समय क्यों लगा? १९९८ से २००२ तक यानी पूरे ४ वर्षों तक उत्तर प्रदेश और केन्द्र में भाजपा का शासन था। अशोक सिंघल या प्रवीण तोगड़िया के मन में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के रामभक्त होने में रंचमात्र संदेह होने का कोई कारण नहीं। फिर उस अवधि में ८४ कोसी परिक्रमा कर रामलला का भव्य मंदिर बनाने का अभियान क्यों नहीं हुआ? हम यह सवाल पूछ रहे हैं सो स्वाभाविक है कि हमारे हिंदुत्व पर भी कुछ लोग संदेह करें पर इस संदेह से ज्यादा जरूरी है उन सवालों का जवाब जो हिंदू समाज जानना चाहता होगा। जब परमहंस रामचंद्र दास दिवंगत हुए तो उनकी चिता पर स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि अयोध्या में रामलला के भव्य मंदिर का निर्माण होकर रहेगा। ११ वर्ष बीत गए स्वर्ग में परमहंस इंतजार कर रहे होंगे कब भाजपावाले अटल बिहारी वाजपेयी के शुभ संकल्प को पूरा करेंगे? इस ८४ कोस की परिक्रमा का फैसला प्रयाग के जिस धर्म संसद में हुआ वहां मौजूद संतों ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को कुंभ स्नान का निमंत्रण दिया था। हम लोग आज भी खुल्लमखुल्ला सद्भावना यात्रा में सिर पर गोल टोपी न लगाने के नरेंद्र मोदी के फैसले के समर्थन में भिड़ जाया करते हैं। पर आज दिन तक यह रहस्य नहीं समझ पाए कि आखिर कुंभ नहाने के निमंत्रण पर नरेंद्र मोदी ने गौर क्यों नहीं किया? माना कि उनको पाप प्रक्षालन की कोई जरूरत नहीं और वे बेहद पुण्यवान हैं, पर इस सच्चाई से भी कोई इंकार नहीं कर सकता कि अगर नमो वुंâभ में डुबकी लगा आते तो आज ८४ कोस की परिक्रमा पर निकले संत समाज के मन में राममंदिर निर्माण को लेकर बेहतर दृढ़ विश्वास होता। कुंभ बीता।
राम मंदिर का क्या?
भाजपा की नई राष्ट्रीय कार्यकारिणी बनी। नरेंद्र मोदी के परमप्रिय सिपहसालार अमित शाह को राष्ट्रीय महासचिव की नियुक्ति के साथ-साथ उत्तर प्रदेश का सांगठनिक दायित्व मिला। अमित शाह पहली बार उत्तर प्रदेश के दौरे पर गए तो प्रदेशाध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी के साथ उनका अयोध्या दौरा हुआ। अमित शाह और लक्ष्मीकांत वाजपेयी दोनों ने मीडिया के समक्ष कहा कि भाजपा राममंदिर का भव्य निर्माण कराना चाहती है। ये खबर अभी जवान भी नहीं हुई थी कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह का जो बयान आया उसका संदेश यही था कि राम मंदिर मुद्दा भाजपा के एजेंडे में नहीं। राजनाथ सिंह कुंभ स्नान कर आए थे और उत्तर प्रदेश की राजनीति की उनकी समझ को लेकर शक करने का कोई मतलब नहीं। तो क्या मान लिया जाए कि राममंदिर मुद्दे में अब भाजपा को जिताने का दम नहीं या फिर भाजपा राममंदिर मुद्दे को राजनीति से बहुत ऊंचा मानती है। यदि राममंदिर मुद्दा सचमुच बहुत ऊंचा है तो भव्य राममंदिर के निर्माण की कार्ययोजना क्या?
८४ कोसी परिक्रमा
इस बयान के कुछ दिन बाद रामजन्मभूमि न्यास समिति के अध्यक्ष  महंत नृत्य गोपालदास के सम्मान में अयोध्या में उत्सव आयोजित था। उस कार्यक्रम में नरेंद्र मोदी को निमंत्रित किए जाने की बात फिर सुर्खियों में आई। पूर्वनिर्धारित कार्यक्रमों के चलते नरेंद्र मोदी फिर अयोध्या नहीं गए। सो, विहिप की नीतियों का कट्टर समर्थन करने की पूरी इच्छा होने के चलते यह सवाल तो बनता है कि नरेंद्र मोदी यानी हमारे भावी कट्टर हिंदू प्रधानमंत्री क्या अयोध्या में भव्य मंदिर निर्माण के पक्ष में हैं? क्या विहिप की परिक्रमा को उनका नैतिक समर्थन प्राप्त है? या फिर बीते दशक भर में जिस तरह उनके और गुजरात विहिप के बीच में मतांतर रहा है वह कायम है। यदि मोदी यह मानते हों कि रामजन्मभूमि आंदोलन से भाजपा को दूरी बनाए रखनी चाहिए तो फिर उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी क्या केन्द्रीय नेतृत्व को विश्वास में लिए बिना ही विहिप की ८४ कोसी परिक्रमा को रोज समर्थन देनेवाला बयान जारी कर रहे हैं। भाजपा में अगर कोई केन्द्रीय नेतृत्व की नीतियों से हट कर बयान देता है तो उसके प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन यह दारोगानुमा बयान देने में जरा भी देर नहीं करते कि ‘पार्टी अध्यक्ष उक्त नेता के बयान पर उचित कार्यवाही करेंगे।’ अब तक मेरी नजर लक्ष्मीकांत वाजपेयी के इस ‘सांपद्रायिक’ वक्तव्य पर शाहनवाज हुसैन के किसी बयान पर नहीं गई है।
उद्धव ठाकरे का जवाब
हमने बात शुरू की थी मनमोहन की मुक्तमंडी के महामंदी में फांस से। जब शिवसेना के पक्षप्रमुख उद्धव ठाकरे दिल्ली दौरे पर गए थे तब उनसे एक पत्रकार ने सवाल पूछा कि अयोध्या में राममंदिर के भव्य निर्माण पर शिवसेना की क्या भूमिका है? शिवसेना पक्ष प्रमुख का जवाब था- ‘राममंदिर तो बनना चाहिए, पर उससे कहीं ज्यादा जरूरी है आम आदमी के रोजी-रोटी का सवाल।’ मुक्तमंडी के विफल होने से, रुपए के धराशाई होने से आम आदमी की रोटी का सवाल जटिल हो रहा है। बाबरी के गिरने से हिंदुस्तान को उतना नुकसान नहीं हुआ था जितना रुपए के गिरने से होने जा रहा है।

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