जब संसद के मॉनसून सत्र के पहले सरकार अध्यादेश लायी तो वृंदा करात ने कहा था, हम उसके समर्थक हैं, पर आपत्तियां भी हैं. हम चाहते हैं कि इस पर संसद में बहस हो. खाद्य सुरक्षा सबके लिए एक समान हो. मुलायम सिंह ने कहा था, यह किसान विरोधी है. नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी कि मुख्यमंत्रियों से बात कीजिए. पर लगता है उन्होंने अपनी ही पार्टी के नेताओं से बात नहीं की. भाजपा के नेता इन दिनों अलग-अलग सुर में हैं. बिल पर संसद में जो बहस हुई, उसमें ज्यादातर दलों ने इसे ‘चुनाव सुरक्षा विधेयक’ मान कर ही अपने विचार रखे.
बिल पास होने के अगले दिन रुपया डॉलर के मुकाबले 66 की सीमा पार कर गया. मंगलवार को राज्यसभा में वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि रुपये की कीमत केवल बाहरी कारणों से नहीं गिरी. अंदरूनी कारण भी हैं. 2008 की मंदी के वक्त हमने गलतियां कीं और राजस्व घाटे पर ध्यान नहीं दिया. चालू खाते के असंतुलन को नहीं रोका.
बहरहाल खाद्य सुरक्षा पर कोई भी पार्टी खुद को जन-विरोधी साबित नहीं करेगी. पर इसे लेकर अर्थशास्त्रीय दृष्टियां दो प्रकार की हैं. एक कहती है कि अंतत: इसकी कीमत गरीब जनता चुकायेगी. भ्रष्टाचार की एक और लहर का भी खतरा है. किसानों के समर्थन मूल्य में कटौती होगी. तंगहाल सरकार कम कीमत पर अनाज खरीदेगी. खुले बाजार में अनाज कम जायेगा, तो उसकी कीमत बढ़ेगी. किसान के इनपुट महंगे होंगे और आउटपुट सस्ता. पैसे की कमी से आर्थिक संवृद्धि के उपाय कम होंगे, आधारभूत ढांचे का विकास नहीं होगा. ग्रोथ रुकने से रोजगार घटेंगे. शहरी विकास प्रभावित होगा. यह नजरिया कहता है कि गरीबों को भोजन नहीं, पुष्टाहार की जरूरत है. उसके लिए अलग किस्म के हस्तक्षेप की जरूरत है. कांग्रेस मानती है कि यह कार्यक्रम ‘गेम चेंजर’ है. यानी चुनाव जिताने का मंत्र. विपक्ष मानता है कि दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के पहले इसकी घोषणा करके सरकार प्रचारात्मक लाभ लेना चाहती है. वृंदा करात कहती हैं कि सरकार चार साल से सोयी थी. जयललिता, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, रमन सिंह और शिवराज सिंह इसे केंद्र-राज्य संबंधों के लिए अहितकर भी मानते हैं. इसमें राज्य सरकारों को न केवल लाभार्थियों की पहचान करनी है, इसके खर्च में हिस्सा भी बंटाना है. जयललिता कहती हैं कि सामाजिक सुरक्षा का मसला राज्य सरकारों के अधीन रहना चाहिए. दरअसल यूपी, बिहार तथा कुछ अन्य पिछड़े इलाकों को छोड़ दें, तो राज्य सरकारें अपने साधनों के आधार पर खाद्य सुरक्षा की योजनाएं चला भी रहीं है. अकाली दल कहता है कि इससे बेहतर हमारी ‘आटा-दाल’ स्कीम है, जो हम 2007 से चला रहे हैं. छत्तीसगढ़ 90 फीसदी नागरिकों को सस्ता अनाज देता है. मध्य प्रदेश में भी यह स्कीम है. तमिलनाडु, केरल, आंध्र, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा में भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली काम कर रही हैं. राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) ने सभी नागरिकों को कवर करनेवाली योजना बनायी थी, पर सरकार ने लागू करने की हिम्मत नहीं दिखायी. अब जब यह कानून पास हो गया है, तो इसके उपबंधों की व्यावहारिकता की परीक्षा होगी. देखना यह है कि इस कानून में लोगों की शिकायतों की सुनवाई की व्यवस्था किस तरह काम करेगी?
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