पूर्वांचल विकास मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजीत कुमार पाण्डेय ने कहा कि अपनी पांच दशक लंबी राजनीतिक पारी में भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने विपक्ष के सशक्त स्वर से लेकर देश के प्रधानमंत्री के पद तक का गौरवमयी सफर तय किया. वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए के शासनकाल को कई विशेषज्ञ आर्थिक वृद्धि तथा अवसंरचना निर्माण के लिहाज से सफलताओं भरा वर्ष मानते हैं. यदि भाजपा के पास अटलजी जैसा सर्वसमावेशी व्यक्तित्व नहीं होता, तो ऐसा गंठबंधन बनना मुश्किल हो जाता. यदि स्वार्थवश कुछ दल इकट्ठे हो जाते भी, तो उन्हें टूटने में ज्यादा समय नहीं लगता. यह अटलजी के व्यक्तित्व की खूबी ही थी कि शरद यादव, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, फारूक जैसे लोग भी उनकी सरकार में सहर्ष काम करते रहे.इतिहास में व्यक्ति की अहम भूमिका होती है. अमेरिका में जॉर्ज वाशिंगटन, अब्राहम लिंकन, सोवियत संघ में लेनिन. ऐसे सैकड़ों उदाहरण विद्यमान हैं. वाजपेयी को उन राजनेताओं में गिना जाना चाहिए, जिनका व्यक्तित्व उन्हें अलग पहचान देता रहा. राजनीति में विचारधारा एवं मूल्य के अतिरिक्त जो तीसरा सबसे महत्वपूर्ण आयाम होता है, वह है पात्रता. जो व्यक्ति अपने व्यवहार और सामाजिक सरोकारों में पारदर्शिता से जीवन जीता है, वह स्वाभाविक तरीके से जनप्रिय बन जाता है. सिर्फ विचारधारा और मूल्यों की बात करनेवाला व्यक्ति एक दायरे में सिमट कर रह जाता है. अटल बिहारी वाजपेयी आधुनिक भारत की उन शख्सीयतों में से हैं, जिन्होंने राजनीति में रहने की अपनी सार्थकता को अपने विचार और व्यवहार दोनों से स्थापित किया.
वाजपेयी के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि जहां उनके अंदर वैचारिक प्रतिबद्धता कूट-कूट कर भरी रही, वहीं वह अन्य वैचारिक व सामाजिक ताकतों से निरंतर संवाद करते रहे. यह पक्ष वाजपेयी के संबंध में उल्लेखनीय इसलिए हो जाता है कि वे जिस दल व विचार से जुड़े रहे हैं, वह राजनीतिक छुआछूत का शिकार रहा है. आप कल्पना कीजिए 1950 के दशक की, जब जवाहरलाल नेहरू जैसे लोकप्रिय नेता ने बिना प्रमाण और सबूत के संघ को न सिर्फ प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपंथी, बल्कि गांधी का हत्यारा भी घोषित कर दिया था. वाजपेयी इस मुकाम पर इस विचारधारा और दल के श्रेष्ठतम प्रवक्ता बन कर उभरे. उन्होंने अपनी राजनीतिक शैली में तीन मार्गो का अनुशरण किया. पहला, कठिन, दुरूह और विवादित विषयों को भी सहजता, सरलता और उदारता के साथ रखने का प्रयास करते रहे. व्यक्ति जब अपने मन, बुद्धि और हृदय से सामाजिक सरोकारों से जुड़ा होता है, तो भाषा अपने आप सहायक के रूप में काम करती जाती है. इसलिए वाजपेयी को एक कुशल वक्ता से कहीं बड़ा और सफल संवादक मानना चाहिए.
भारत में बीते साढ़े छह दशक में दर्जनभर से ज्यादा प्रधानमंत्री हुए, लेकिन मेरी राय में अब तक सिर्फ चार प्रधानमंत्री ऐसे हुए हैं, जिन्हें देश लंबे वक्त तक याद करेगा. ये हैं-जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, पीवी नरसिंहराव व अटल बिहारी वाजपेयी! इन चारों प्रधानमंत्रियों ने अपनी पूर्ण अवधि तक राज किया और भारत के इतिहास-पटल पर ऐसी गहरी लकीरें खींचीं, जिनका प्रभाव कई दशकों तक बना रहेगा. श्रीमती इंदिरा गांधी से मेरा काफी संपर्क रहा. नरसिंहरावजी के साथ घनिष्ट सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर मिला और अटलजी के साथ छात्र-काल से बना आत्मीय व पारिवारिक संबंध उनके प्रधानमंत्री काल और बाद में भी बना रहा है. आज अटलजी के जन्मदिन पर कुछ ऐसी बातों की चर्चा, जिनके लिए वे याद किये जाएंगे.
सबसे पहली बात, जिसके लिए अटलजी को सदियों तक याद किया जाएगा, वह है पोखरन का परमाणु-विस्फोट! वह भारतीय संप्रभुता का शंखनाद था. दुनिया की परमाणु-शक्तियां 12 मई, 1998 को बहुत बौखलाईं. उन्होंने अनेक अप्रिय बयान और धमकियां भी जारी कीं, लेकिन यही वह दिन था, जबसे भारत की गणना शक्तिशाली राष्ट्रों में होने लगी. अटलजी ने इंदिराजी का अधूरा काम पूरा किया. यह काम राव साहब करें, यह सलाह मैंने उन्हें चुनाव के तीन-चार माह पहले दी थी. उन्होंने तैयारी भी कर ली थी, लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबावों के कारण उन्होंने देर कर दी. वे सोच रहे थे कि दोबारा चुनकर आएंगे, तब करेंगे. अटलजी को जैसे ही मौका मिला, उन्होंने यह चमत्कारी कदम उठा लिया. यह विस्फोट शनिवार शाम को हुआ था. रविवार सुबह उनसे मेरी बात हुई. उसके पहले पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से सुबह ही फोन पर मेरी बात हुई. वे लाहौर के अपने मॉडल टाउन वाले बंगलों में उस रात ही लौटे थे. मैंने अटलजी से कहा कि अगले हफ्ते-डेढ़ हफ्ते में ही पाकिस्तान भी परमाणु बम फोड़ेगा, वरना नवाज शरीफ को गद्दी छोड़ना पड़ेगी. अटलजी को विश्वास नहीं हुआ. फिर भी मैंने उनसे कहा कि आप मियां नवाज को फोन कीजिए और उनसे कहिये कि यह भारत का नहीं, तीसरी दुनिया का बम है. आपका भी है और हमारा भी है. इस पर भी पाकिस्तान विस्फोट कर ही दे, तो हमें एक द्विपक्षीय परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) और विषद परमाणु-परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी) के लिए तैयार करना चाहिए. पाकिस्तान ने कुछ दिनों बाद हमसे भी बड़ा विस्फोट कर दिया. भारत ने ‘हम पहल नहीं करेंगे’ यानी आगे होकर हम परमाणु हथियार नहीं चलाएंगे, ऐसी रचनात्मक घोषणा की. बाद में मैंने भारत-पाक द्विपक्षीय परमाणु संधि पर एक लेख लिखा, जिसे प्रधानमंत्री कार्यालय ने प्रधानमंत्री के कहने पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार समिति के सभी सदस्यों को भिजवाया. कहने का तात्पर्य यह कि अटलजी अपने से छोटों की बात पर भी ध्यान देनेवाले नेता थे.
अटलजी का दूसरा उल्लेखनीय काम था करीब दो दर्जन दलों की गठबंधन सरकार को पूरे पांच साल तक चला ले जाना. देश का कोई अन्य नेता ऐसा चमत्कार नहीं कर सका. उनके गठबंधन में फारूक अब्दुल्ला की कश्मीरी पार्टी से लेकर जयललिता और एस रामदास की तमिल पार्टियां भी थीं. उन्होंने भाजपा को सचमुच एक राष्ट्रीय पार्टी बना दिया. यदि भाजपा के पास अटलजी जैसा सर्वसमावेशी व्यक्तित्व नहीं होता, तो ऐसा गठबंधन बनना मुश्किल हो जाता. यदि स्वार्थवश कुछ दल इकट्ठे हो जाते भी, तो उन्हें टूटने में ज्यादा समय नहीं लगता. यह अटलजी के व्यक्तित्व की खूबी ही थी कि शरद यादव, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, फारूक जैसे लोग भी उनकी सरकार में सहर्ष काम करते रहे. उन्होंने जसवंत सिंह, यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी जैसे राजनीति के बाहर से आये लोगों से भी काम लिया. विभिन्न क्षेत्रीय दलों की तरफ से आनेवाले दबावों को वे गद्दीदार कागज की तरह से सोखते रहते थे. उन्होंने भाजपा जैसी विचारधारा में आबद्ध पार्टी को नरम किया और कश्मीर, राममंदिर तथा समान आचार संहिता जैसे विवाद वाले मुद्दों को हाशिये पर डाल दिया. एक अर्थ में उन्होंने अपनी सरकार को शक्तियों के ऐसे विराट गंठबंधन में परिवर्तित कर दिया, जिनसे मिल कर कभी नेहरू की कांग्रेस बनी थी. परमाणु-बम के मामले में उन्होंने इंदिराजी के काम को आगे बढ़ाया, तो विविध शक्ति-समन्वय के मामले में नेहरूजी के काम को नया आयाम दिया. अटलजी ने अपने चातुर्य से यह महत्वपूर्ण बात रेखांकित की कि यदि भारत को भारत की तरह चलाना है तो अपनी पार्टी और सरकार को सर्वसमावेशी बना कर चलाना होगा. वे शासन के संचालन में अपनी विरोधी कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं के अनुभवों से लाभ उठाने में भी संकोच नहीं करते थे. उनका स्वभाव इतना अच्छा था कि यदि देश में कोई सर्वदलीय सरकार भी बनती तो मुङो लगता है कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी उन्हें दिल से नेता स्वीकार कर लेतीं, चाहे प्रकट तौर पर वे विरोध ही करतीं. इस दृष्टि से अटलजी भावी पीढ़ियों के नेताओं के लिए अनुकरणीय बन गये हैं. इसीलिए मैंने पिछले दिनों एक लेख में लिखा था कि जब तक नरेंद्र मोदी के शरीर में अटलजी की ‘आत्मा’ का प्रवेश नहीं होगा, उनका प्रधानमंत्री बनना और बन कर टिके रहना मुश्किल होगा.
अटलजी के कार्यकाल में कई ऐसे महत्वपूर्ण कार्य शुरू हुए, जो रचनात्मकता और नवीनता के लिए जाने जाएंगे. जैसे सड़कों से पूरे देश को जोड़ना. नदियों को भी एक-दूसरे से जोड़ने की योजना उन्होंने बनायी थी. सरकार की कई बीमारू संस्थाओं को उन्होंने गैर-सरकारी बना दिया. यह थोड़े साहस का काम था. उन्होंने नरसिंहराव सरकार की कई पहलों को अंजाम दिया. अर्थव्यवस्था में भी नयी चमक पैदा हुई. महंगाई पर नियंत्रण हुआ. लोगों की आमदनी बढ़ी. करगिल-युद्ध में भी भारत की जीत हुई. सरकार ने संयम से काम लिया. भारत ने पाकिस्तानियों को अपने क्षेत्र से बाहर खदेड़ा, लेकिन उनके क्षेत्र पर कब्जा नहीं किया. सारी दुनिया में भारत की सराहना और पाकिस्तान की निंदा हुई.
उस जमाने में विदेश नीति के क्षेत्र में भी अटलजी ने कुछ ऐसे कदम उठाये, जिनका प्रभाव हमें भावी दशकों में बराबर देखने को मिलेगा. उन्हें यह श्रेय मिलेगा कि उन्होंने अफगानिस्तान को भू-राजनीतिक आजादी दिलायी. मैं इंदिराजी और अफगान राष्ट्रपति सरदार दाऊद खान से 1973 से आग्रह कर रहा था कि वे पाकिस्तान की घेराबंदी खत्म करें. अफगानिस्तान आने-जाने के लगभग सभी प्रमुख मार्ग पाकिस्तान होकर निकलते हैं. पाकिस्तान जब चाहता है, अफगानिस्तान का हुक्का-पानी बंद कर देता है. इससे भारत और अफगानिस्तान के संबंधों में सबसे बड़ी बाधा उपस्थित हो जाती है. अटलजी ने अफगानिस्तान से ईरान की सीमा तक एक पक्की सड़क बनवा दी. यह जरंज-दिलाराम मार्ग ऐसा विकल्प है, जो ईरान की खाड़ी के जरिये अफगानिस्तान को पूरे दक्षिण एशिया से जोड़ देगा. हामिद करजई की सरकार को अन्य क्षेत्रों में सक्रिय सहयोग देने और अफगानिस्तान को दक्षेस का सदस्य बनवाने में भी अटलजी की भूमिका महत्वपूर्ण रही है.
अटलजी ने चाहे करगिल में पाकिस्तान को सबक सिखाया, लेकिन बाद में उन्होंने जनरल परवेज मुशर्रफ की सरकार से अच्छे संबंध बनाने की भरसक कोशिश की. उन्हीं का कूटनीतिक कौशल था कि पाक सरकार ने 2004 में कहा कि वे भारत के विरुद्ध अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकवादियों को नहीं करने देंगे. संसद पर हमला होने के बाद भारत ने सीमांत पर जो शक्ति-प्रदर्शन किया, उसने पाकिस्तान के होश ढीले कर दिये थे. कश्मीर पर मुशर्रफ का रवैया काफी बदल गया था. दोनों कश्मीरों के बीच आवाजाही शुरू हो गयी थी. वीजा के प्रतिबंध कुछ ढीले पड़े थे. लोगों के संबंध आपस में बढ़ने लगे थे. यदि अटलजी एक बार और प्रधानमंत्री रह जाते तो भारत-पाक संबंध शायद हमेशा के लिए सुधर जाते, क्योंकि उन दिनों कई बार मुङो पाकिस्तान जाने का मौका मिला और वहां मैंने पाया कि अटलजी से ज्यादा लोकप्रिय कोई भी अन्य भारतीय नेता नहीं हुआ. यहां तक कि जमाते-इसलामी के नेता भी अटलजी के बारे में संभलकर बोलते थे.
श्रीलंका, नेपाल, बर्मा आदि के बारे में अटलजी ने कई पहल कीं, लेकिन अमेरिका के साथ भारत के संबंधों को सहज पटरी पर लाने का मुख्य श्रेय उन्हीं को है. वे चीन के साथ भी सहज संबंध बनाने को उत्सुक थे. जब वे विदेश मंत्री थे, मोरारजी देसाई की सरकार में, तब भी उन्होंने विशेष प्रयास किया था. संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि उनकी विदेश नीति में भी उनके व्यक्तित्व की गरिमा और उदारता सदा प्रतिबिंबित होती रही. यह होते हुए भी भारत के राष्ट्रहित की कभी उपेक्षा नहीं हुई.
अटलजी की संवेदना और करुणा का सर्वोत्तम उदाहरण तब देखने को मिला, जब 2002 में गुजरात में नरसंहार हुआ. जिस दिन गोधरा में वह दुर्घटना हुई, अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई भारत आये हुए थे. हैदराबाद हाउस में राजभोज था. दोपहर लगभग साढ़े तीन बजे हमलोग जब बाहर निकले तब पता चला कि गोधरा में कई लोगों को जिंदा जला दिया गया. उसकी जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई. अटलजी से बराबर बातचीत होती रहती थी. कुछ दिन बादे नवभारत टाइम्स में मेरा लेख छपा, जिसमें मैंने लिखा, ‘गुजरात में राजधर्म का उल्लंघन हो रहा है.’ लेख पढ़ते ही अटलजी ने मुङो फोन किया और जैसा कि उनका स्वभाव है, उन्होंने अतिशय प्रशंसा की. उन्होंने ‘राजधर्म’ के उल्लंघन की बात को कई बार दोहराया और वह आज भी एक मुहावरे की तरह दोहराया जाता है. गुजरात के बारे में अटलजी और मेरे बीच काफी विचार-विमर्श हुआ. बाद में स्वयं गुजरात जाकर अटलजी ने शरणार्थियों के शिविर में भाव-विह्वल होकर जैसे आंसू बहाये, वैसे तो कोई कवि-हृदय ही बहा सकता है. यह आम राजनेताओं या प्रधानमंत्रियों के बस की बात नहीं है.
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