सच्चर कमेटी की तर्ज पर आदिवासियों के उत्थान के लिए भी एक कमेटी का गठन कर दिया है। लेकिन, यह एक ईमानदार पहल कदमी के बजाय छलावा ज्यादा लगती है। एक ऐसा छलावा, जो शुरुआत में झूठी उम्मीदें पैदा करता है। देश मेंअनुसूचित जनजातियों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान व विकास के लिए केन्द्र सरकार ने एक उच्चस्तरीय समिति के गठन का फैसला किया है। आदिवासी समुदायों के विकास के लिए आवश्यक परिस्थितियों को केन्द्र में रखते हुए प्रस्तावित उच्च स्तरीय समिति मुख्यत: इस वर्ग की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व स्वास्थ्य आदि की स्थितियों का गहन अध्ययन कर एक रिपोर्ट तैयार करेगी। इसके आधार पर आदिवासी समुदाय के सम्पूर्ण भावी विकास की रूपरेखा तैयार की जा सकेगी।
उच्चस्तरीय समिति अनुसूचित जनजातियों के लिए नीतियों के निर्धारण का सुझाव देगी। यह उच्च स्तरीय समिति आदिवासी मामलों के मंत्रालय के अधीन रहेगी। प्रोफेसर वर्जीनियस खाखा की अध्यक्षता में इस समिति के अन्य सदस्य हैं, डॉ. उषा रामनाथन्, डॉ. जोसेफ बारा, डॉ. के.के. मिश्रा, डॉ. अभय बंग, व सुश्री सुशीला बसंत। आदिवासी मंत्रालय के सचिव इस समिति के सदस्य सचिव होंगे, जबकि सूत्रों की मानें तो राष्ट्रीय सलाहाकार परिषद की पूर्व सदस्य व सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय इस समिति की प्रमुख कर्ता-धर्ता होंगी। आदिवासी समुदायों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व स्वास्थ्यगत स्थितियों का विहंगम अध्ययन कर उच्च स्तरीय समिति नौ महीनों के भीतर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी। केंद्र व राज्य सरकार के विभिन्न विभागों से आदिवासियों की दशा पर आधिकारिक आंकड़े जुटाने के साथ ही यह समिति विशेष रूप से राज्य, क्षेत्र व जिला स्तरों पर उनकी दशा-दिशा जानने-समझने के लिए प्रकाशित लेखों, शोधपत्रों, आंकड़ों, साहित्य आदि का गहन अध्ययन करेगी।
कोई हैरत की बात नहीं यदि आदिवासियों की स्थिति सुधारने के लिए बनाई गई कमेटी की रिपोर्ट भी इसी अंजाम को प्राप्त हो। आखिर ऐसा क्या है, जो आदिवासियों की हालत के बारे में छिपा हो। उनकी समस्याएं जगजाहिर हैं और उनके समाधान तलाशने के लिए नया शोध नहीं करना होगा। वैसे भी कमेटी उपलब्ध जानकारियों तथा आंकड़ों के पर ही निष्कर्ष निकालेगी और सिफारिश करेगी। उसे कुछ भी नया नहीं करना है। वह ये काम तीन महीने में भी कर सकती थी, जिसके लिए उसे नौ महीने दिए गए हैं।
वास्तव में सरकार अगर समचमुच में ईमानदार होती, तो इस कवायद में वह उन लोगों को शामिल करती जो जल, जंगल और जमीन से जुड़े मसलों पर वर्षों से काम कर रहे हैं। वे जमीनी हकीकत से उसे रूबरू करवा देते। सरकारी कार्यक्रमों और नीतियों में कहां क्या खोट हैं, उनसे बेहतर कौन बता सकता है। लेकिन वह ऐसा नहीं करेगी, क्योंकि ये उसके लिए खतरनाक हो सकता है। उनके जरिए वह भयानक तस्वीर सामने आ सकती है, जिससे वह मुंह चुराती रही है। दरअसल, कांग्रेस इस बात से घबराई हुई है कि उसकी छवि आदिवासी विरोधी बनती जा रही है। देश भर में यह धारणा मजबूत हो रही है कि उसे आदिवासियों की कोई चिंता नहीं है और वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों एवं कॉरपोरेट जगत के हितों के लिए काम कर रही है। यह उसकी वर्तमान एवं भावी राजनीति के लिए बहुत ही नुकसानदेह है। पहले ही वह आदिवासियों में अपना जनाधार गंवाती जा रही है और भाजपा का प्रभाव उनमें बढ़ता जा रहा है। ऐसे में अगर उसने समय रहते कुछ न किया तो वह सिमटती चली जाएगी। इसी चिंता के चलते कमेटी का तिलिस्म रचा जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि वह उन नीतियों को बदलने के बारे में नहीं सोचती, जिनसे उसके जनाधार का क्षरण हो रहा है। उच्च स्तरीय समिति अपने कार्य को तय समय-सीमा के भीतर सम्पन्न कर सके, इसके लिए सरकार के विभिन्न मंत्रालय व एजेंसियां अपना सम्पूर्ण सहयोग देंगी। आदिवासियों व उनसे संबंधित मुद्दों पर भूरिया समिति, मुंगेकर समिति व राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग द्वारा प्रदत्त जो भी रिपोर्ट सरकार के पास हैं, वे इस उच्च स्तरीय समिति को उपलब्ध कराई जाएंगी। आदिवासी मामलों से संबंधित मौजूदा आंकड़े भी इस समिति को दिए जाएंगे।
जनजातिय मामलों के मंत्रालय ने सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण पर गठित स्थायी समिति की जनजातियों के लिए चलाई जा रही शैक्षिणिक उत्थान योजनाओं से संबंधित रिपोर्ट में राज्य सरकारों की दायित्वहीनता एवं केन्द्र सरकार निष्क्रियता साफ झलक रही है। समिति ने अपने प्रतिवेदन में कहा है कि जनजातियों के शैक्षणिक उत्थान के लिए चलाई जा रही एकलव्य मॉडर्न रिहायशी स्कूलों की स्थापना की परियोजना के अंतर्गत मंत्रालय ने विभिन्न राज्यों के लिए 100 स्कूल मंजूर किये थे, उनमे से केवल 79 स्कूल ही कार्यरत है । शेष 21 स्कूल शुरु ही नही हुए यहां तक कि उनमें से चार स्कूल जनजाति बहुल आसाम एवं मेद्यालय से दूसरे राज्यों मे स्थान्तरित कर दिये गये। कमेटी ने पाया की राज्य सरकारों की गैर जिम्मेदारी एवं उदासीनता के कारण यह स्कूल स्थापना का कार्य समय से नही हो सका और अब कहा है कि मंत्रालय अनिर्मित सभी स्कूलो को 2 वर्ष के भीतर शुरु करने के लिए राज्य सरकारों को आवश्यक निर्देश जारी करें। समिति ने कहा है कि 2004.05 से 2007.08 में मंत्रालय द्वारा उत्तर -मैट्रिक छात्रवृत्ति के लिए अरुणाचल प्रदेश, बिहार, दमन दीव के लिए जो वित्तीय मदद नही दी गई उसे तुरंत जारी किया जाये। कमिटी मंत्रालय के इस जवाब से असंतुष्ट थी कि संबंधित राज्य द्वारा वित्तीय मांगो के प्रस्ताव नही भेजे थे। कमेटी के सामने सरकार ने अपने जवाब में कहा था, मंत्रालय ने 2007-08 के दोहराने संबंधित राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों को कई बार लिखित स्मृति पत्र भी भेज चुकि है लेकिन राज्य सरकारों ने आवश्यक कार्यवाही नही कि, इसे कमेटी ने खारिज कर दिया तथा कहा कि मंत्रालय को आदिवासी छात्रों के लिए राज्य सरकारों पर आवश्यक दवाब बनाये ताकि उच्च शिक्षा में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो सके। एवं इन कारणों का भी पता लगाये जिनके कारण राज्य सरकारे समय-समय पर प्रतिवेदन क्यों नही दे पाती है। शत प्रतिशत केन्द्र सरकार द्वारा संचालित उत्तर मैट्रिक छात्रवृति योजना के ठीक क्रियान्वयन नही होने के पीछे सरकार का तर्क है की वित्तीय रुप से पिछड़े अनुश्चिित जनजाति के छात्र छात्रवृति के लिए आवेदन नही करते है इसे कमेटी ने सिरे से खारिज कर दिया तथ टालने के रवैये की कड़ी आलोचना की है। स्थयी समिति ने अपनी अगली सिफारिश के संदर्भ में मंत्रालय से आये जवाब मे कि असम, झारखंड, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड़ से इस छात्रवृति पर खर्च एवं उपयोग प्रमाण पत्र नही मिलने के कारण इनकी वित्त पूर्ति पर रोक लगा दी गई थी लेकिन कमेटी ने इससे नाराजगी जताते हुए कहा कि इसके खच्र का सुनिश्चित करते हुए यह ध्यान दिया जाये कि निर्धारित योजना का पैसा उसी योजना पर खर्च किया जाये किसी अन्य योजना मे यह डाइवर्ट नही किया जाएं। 2004-05, 2005-06 और 2006-07 में अप ग्रेजुएशन आफ मेरिट आफ एसटी स्टूडेंट स्कीम के अंतर्गत लाभार्थियों की संख्या कई राज्यों में नही के बराबर है एवं 2007-08 में उत्तर प्रदेश में तो इस योजना के अंतर्गत किसी को भी लाभ नही दिया गया यह दशा मंत्रालय की अनदेखी एवं राज्य सरकारों की जनजातियों के शैक्षणिक विकास के प्रति उदासीनता को उजागर करती है।