Translate

Monday, 3 March 2014

अब सही मायने में राजनीति के बदलने का वक्त आ गया

सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के लिए बिसात बिछ चुकी है। राजनीतिक दल, उनका नेतृत्व और उम्मीदवार अपनी-अपनी रणनीतियों को धार देने में जुटे हैं। बेशक विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र  भारत में चुनाव उत्सव होते हुए भी किसी जंग से कम नहीं होता—कम से कम राजनीति के खिलाडिय़ों के लिए तो।

 इसलिए उनकी रणनीतियों का महत्व भी समझा ही जा सकता है, लेकिन इस चुनाव में तमाम परंपरागत  कारकों-हथकंडों के अलावा एक सबसे महत्वपूर्ण, और शायद निर्णायक भी, कारक होगा युवा मतदाताओं की विशाल संख्या। आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि  बच्चे देश का भविष्य होते हैं। कल के बच्चे आज वाकई देश का भविष्य बनने-बनाने को तैयार हैं।

जीवन के तमाम क्षेत्रों में दुनिया भर में भारत का नाम रोशन करनेवाले ये युवा सक्रिय  राजनीति में तो दस्तक दे ही रहे हैं, बतौर मतदाता भी वे जनादेश में अहम भूमिका निभाने जा रहे हैं। चुनाव आयोग के ही विश्वसनीय आंकड़ों के आधार पर बात करें तो अप्रैल-मई में होनेवाले लोकसभा चुनाव में कमोबेश हर संसदीय क्षेत्र में 90 हजार युवा मतदाता होंगे। माना कि संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या लाखों में होती है, लेकिन उनमें अगर 90 हजार युवा हैं तो यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि वे निर्णायक भूमिका भी निभा सकते हैं।

बेशक हर मतदाता के मत का महत्व समान ही होता है, फिर भी ये युवा मतदाता अपेक्षाकृत निर्णायक भूमिका इसलिए निभा सकते हैं, क्योंकि वे किसी खास राजनीतिक विचारधारा या परंपरा के बंधक नहीं हैं। खासकर आर्थिक उदारीकरण के बाद की दुनिया में आंखें खोलनेवाले युवाओं की सोच-समझ का दायरा स्पष्ट और विस्तृत भी है।

उन्हें जाति, वर्ग, संप्रदाय के मुद्दों से बरगलाया या विभाजित नहीं किया जा सकता। वैश्विक गांव के इन बाशिंदों के सरोकार बेहतर शिक्षा, अधिक रोजगार के अवसर, प्रगतिशील व्यवस्था और सुरक्षित जीवन आदि से जुड़े हैं।वे विभिन्न राजनीतिक दलों और उनके एजेंडे को इन्हीं मुद्दों की कसौटियों पर कसेंगे भी।

दरअसल भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी के शैक्षणिक संस्थानों में युवाओं से संवाद से शुरू हुआ सिलसिला जिस तरह चुनाव घोषणापत्र तैयार करने के लिए भी जनता के बीच पहुंच गया है, उसके मूल में भी यही है।

दो साल पहले जब जन लोकपाल आंदोलन के दौरान अन्ना ने कहा था कि दिल्ली से देश  चलाने की शैली बदल कर निर्णय की शक्ति ग्राम सभाओं को देनी होगी, तब बहुत से राजनेताओं ने मुंह बिचकाया था, लेकिन आज सभी उसी रास्ते पर जाने की बात तो कहने ही लगे हैं। राजनीति में युवाओं की भागीदारी क ी जरूरत भी महसूस की जा रही है। सभी प्रमुख दल युवाओं को टिकट देने की बात भी कह रहे हैं।

निश्चय ही यह सही और सकारात्मक सोच है। जिस देश की आबादी ही युवा बहुल हो, उसके नेतृत्व में भी युवा- सोच झलकनी चाहिए। दरअसल यह दबाव महसूस भी किया जा रहा है। तभी तो मंदिर, मंडल सरीखे परंपरागत चुनावी मुद्दों के बीच भी शिक्षा, स्वास्थ्य , कौशल-दक्षता और प्रौद्योगिकी विकास में नये आयाम स्थापित करने की बातें राजनेताओं के मुंह से सुनायी पडऩे लगी हैं।

 वैसे काम सिर्फ बातों से भी नहीं चलेगा, अनिश्चितकाल तक तो हरगिज नहीं, क्योंकि सूचना क्रांति के इस दौर में आधुनिक प्रौद्योगिकी से लैस युवाओं को अंधेरे में नहीं रखा जा सकता। ये मतदाता सिर्फ भाषणों और दावों पर वोट नहीं करेंगे, उनकी वास्तविकता और व्यवहार्यता भी जांचेंगे-परखेंगे। इन युवा मतदाताओं में एक बड़ा प्रतिशत उनका है, जिन्हें पहली बार मताधिकार मिला है।

 इसलिए यह  भी तय है कि वे सिर्फ सोशल मीडिया के जरिये ही अपनी पसंद-नापसंद नहीं जाहिर करेंगे, इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन का बटन दबा  कर अपना फैसला भी सुनायेंगे, जो नयी सरकार के गठन में महत्वपूर्ण साबित होगा। बेहतर होगा कि राजनीतिक दल और नेता न सिर्फ अपनी राजनीतिक कथनी, बल्कि करनी भी बदलें। अब सही मायने में राजनीति के बदलने का वक्त आ गया है।

No comments:

Post a Comment