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Sunday, 16 March 2014

फागुन की महफिलें



पहले होली के दिन अलग अलग युवकों की टोलियां घर घर घूम कर गीत गाती थी. बदले में उनको मिलते थे रंग अबीर और खाने के लिए लिए मालपुए. लेकिन अब यह परंपरा दम तोड़ रही है. कुछ लोग इसकी वजह आपसी दुश्मनी, भेदभाव और बढ़ते वैमनस्य को मानते हैं तो कुछ लोग पश्चिमी परंपराओं के हावी होने को मुख्य वजह बताते हैं.
सिवान (बिहार) जिले के फगुआ गायक रामेश्वर प्रसाद कहते हैं, "प्रेम सौहार्द के इस त्योहार में लोग दुश्मन के भी गले लग जाते थे. पहले होली एक महीने तक चलने वाला त्योहार था." वह बताते हैं, "गांव भर के लोग एक जगह जमा होकर होली के हुड़दंग में मस्त हो जाते थे. हर गांव में एक महीने तक ढोल और मंजीरे बजते थे. लेकिन अब एक दूसरे के साथ तालमेल के अभाव, कद्रदानों की कमी और गांवों से तेज होते पलायन के चलते यह पुरानी परंपरा दम तोड़ रही है. युवा पीढ़ी को तो फगुआ गीतों के बोल तक याद नहीं हैं."
छपरा के फाल्गुनी प्रसाद कहते हैं, "फगुआ के गीतों में पति-पत्नी, प्रेमी प्रेमिका, देवर भाभी के रिश्तों में हास्यपुट तो दिए ही जाते हैं, धार्मिक गीतों को भी शामिल किया जाता है. लेकिन अब गायन की यह परंपरा खत्म होती जा रही है. अब इनकी जगह फूहड़ गीत बजने लगे हैं."
पहले हिंदी भाषी प्रदेशों में फागुन का महीना चढ़ते ही फिजा में होली के रंगीले और सुरीले गीत तैरने लगते थे. इनको स्थानीय भाषा में फाग या फगुआ गीत कहा जाता है. कोई महीने भर बाकायदा इनकी महफिलें जमती थीं. शहरों में भी ढोल-मजीरे के साथ फगुआ के गीत गाए जाते थे. लेकिन समय की कमी, बदलती जीवनशैली और कई अन्य वजहों से शहरों की कौन कहे, गांवों में भी यह परंपरा दम तोड़ रही है.
पहले होली के मौके पर शहरों में महामूर्ख सम्मेलन आयोजित होते थे और अखबारों में नामी-गिरामी लोगों को उपाधियां दी जाती थीं. अब यह परंपरा भी आखिरी सांसें ले रही है. होली के मौके पर बनने वाली ठंडई और भांग की जगह अब अंग्रेजी शराब ने ली है. दूसरी ओर सदियों पुरानी परंपरा को तोड़ते हुए वृंदावन में रहने वाली सैकड़ों विधवाओं ने इस साल पहली बार होली खेली. भारतीय समाज में विधवाओं के रंग खेलने पर पाबंदी है.
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के वशिष्ठ तिवारी कहते हैं, "अब लोगों में प्रेम की भावना ही गायब हो गई है. लोग टीवी से चिपके रहते हैं. पहले गांवों के चौपालों से होली खेलने के लिए निकलने वाली टोली में बुजुर्ग से लेकर युवा शामिल होते थे. यह टोली सामाजिक एकता की मिसला होती थी." बिहार में समस्तीसपुर जिले के रहने वाले महेंद्र कौशिक कहते हैं, "अब पहले वाली होली कहां रही?" अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं कि पहले गांवों में होली के दिन भांग और ठंडई बड़े बड़े बर्तनों में घोली जाती थी. जात पांत से परे गांव का हर व्यक्ति उसका सेवन करता था. अब तो जात पांत की भावना सतह पर आ गई है. इसके अलावा इनकी जगह देशी और विलायती शराब ने ले ली है.
पटना के राम सजीवन प्रसाद कहते हैं, "अब होली की वह मस्ती तो अतीत के पन्नों में कहीं गुम हो गई है. पहले होली के दिन महामूर्ख सम्मेलन का आयोजन किया जाता था और इसमें समाज के हर तबके के लोग बड़े उत्साह से भाग लेते थे. लोग इस दौरान मिलने वाली उपाधियों का बुरा नहीं मानते थे." एक हिंदी अखबार के संपादक दिनेश शर्मा कहते हैं, "अब लोगों को इसकी फुर्सत ही कहां है? अब तो टीवी और इंटरनेट ने लोगों को समाज से काट कर रख दिया है."

Saturday, 15 March 2014

पूर्वांचल विकास मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजीत कुमार पाण्डेय ने रंगों के पर्व होली पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं  दी हैं...
 

मुखर्जी ने आज जारी अपने बधाई संदेश में कहा होली की खुशी के मौके पर मैं देशवासियों को बधाई और शुभकामनाएं देता हूं.उन्होंने कहा है. होली का पर्व न -न केवल हमारे जीवन में खुशी एवं उल्लास लाता है. बल्कि सभी मान्यताओं के बीच मित्रता एवं भाईचारे के बंधन को मजबूत बनाता है.मुखर्जी ने कहा हमारी कामना है कि यह त्यौहार हमारी विविधता पूर्ण परम्परा को सुदृढ बनाएगा और हमारी मातृभूमि के लिए शांति एवं समृद्धि लाएगा. - See more at: http://www.navabharat.org/national-news/politics/81377-%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%82#sthash.TZ0HiLSY.dpuf
मुखर्जी ने आज जारी अपने बधाई संदेश में कहा होली की खुशी के मौके पर मैं देशवासियों को बधाई और शुभकामनाएं देता हूं.उन्होंने कहा है. होली का पर्व न -न केवल हमारे जीवन में खुशी एवं उल्लास लाता है. बल्कि सभी मान्यताओं के बीच मित्रता एवं भाईचारे के बंधन को मजबूत बनाता है.मुखर्जी ने कहा हमारी कामना है कि यह त्यौहार हमारी विविधता पूर्ण परम्परा को सुदृढ बनाएगा और हमारी मातृभूमि के लिए शांति एवं समृद्धि लाएगा. - See more at: http://www.navabharat.org/national-news/politics/81377-%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%82#sthash.TZ0HiLSY.dpuf
मुखर्जी ने आज जारी अपने बधाई संदेश में कहा होली की खुशी के मौके पर मैं देशवासियों को बधाई और शुभकामनाएं देता हूं.उन्होंने कहा है. होली का पर्व न -न केवल हमारे जीवन में खुशी एवं उल्लास लाता है. बल्कि सभी मान्यताओं के बीच मित्रता एवं भाईचारे के बंधन को मजबूत बनाता है.मुखर्जी ने कहा हमारी कामना है कि यह त्यौहार हमारी विविधता पूर्ण परम्परा को सुदृढ बनाएगा और हमारी मातृभूमि के लिए शांति एवं समृद्धि लाएगा. - See more at: http://www.navabharat.org/national-news/politics/81377-%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%82#sthash.TZ0HiLSY.dpuf
मुखर्जी ने आज जारी अपने बधाई संदेश में कहा होली की खुशी के मौके पर मैं देशवासियों को बधाई और शुभकामनाएं देता हूं.उन्होंने कहा है. होली का पर्व न -न केवल हमारे जीवन में खुशी एवं उल्लास लाता है. बल्कि सभी मान्यताओं के बीच मित्रता एवं भाईचारे के बंधन को मजबूत बनाता है.मुखर्जी ने कहा हमारी कामना है कि यह त्यौहार हमारी विविधता पूर्ण परम्परा को सुदृढ बनाएगा और हमारी मातृभूमि के लिए शांति एवं समृद्धि लाएगा. - See more at: http://www.navabharat.org/national-news/politics/81377-%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%B9%E0%A5%8B%E0%A4%B2%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%AD%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%8F%E0%A4%82#sthash.TZ0HiLSY.dpuf

पाण्डेय ने अपने बधाई संदेश में कहा होली की खुशी के मौके पर मैं देशवासियों को बधाई और शुभकामनाएं देता हूं।

उन्होंने कहा है. होली का पर्व न -न केवल हमारे जीवन में खुशी एवं उल्लास लाता है. बल्कि सभी मान्यताओं के बीच मित्रता एवं भाईचारे के बंधन को मजबूत बनाता है।


पाण्डेय ने  ने कहा हमारी कामना है कि यह त्यौहार हमारी विविधता पूर्ण परम्परा को सुदृढ बनाएगा और हमारी मातृभूमि के लिए शांति एवं समृद्धि लाएगा। 

मीडिया को क्यों धमका रहा है केजरीवाल?

इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि जिस दल के उभार में मीडिया की खासी भूमिका रही वही अब उसे न केवल धमका रहा है, बल्कि नेता विशेष के हाथों का खिलौना बता रहा है। पता नहीं आम आदमी पार्टी के नेता मीडिया से क्या चाहते हैं, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि उन्होंने खबरों में बने रहने का जरिया खोज लिया है।

वह कुछ न कुछ ऐसा करते या कहते ही रहते हैं जिससे मीडिया और खासकर टेलीविजन चैनलों में छाए रहें। शायद उन्होंने अपना रवैया बदलने और अपनी ही कही बातों से मुकरने में भी महारत हासिल कर ली है। आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने नागपुर में एक समूह के बीच मीडिया को बिका हुआ करार देते हुए यह भी कहा कि अगर वह सत्ता में आए तो मीडियावालों को जेल भेजेंगे।

जब उनका यह बयान सार्वजनिक हुआ तो वह उससे साफ मुकर गए, लेकिन दिल्ली में उनके समर्थकों ने मीडिया के खिलाफ मोर्चा संभाल लिया और कुछ कथित प्रसंगों के जरिये यह साबित करने की कोशिश की कि मीडिया वाकई बिका हुआ है और नरेंद्र मोदी का बढ़-चढ़कर प्रचार करने में जुटा है। आम आदमी पार्टी के इन नेताओं ने मीडियाकर्मियों को यह भी समझाने की कोशिश की कि उन्हें किस तरह काम करना चाहिए और विरोधी दलों के नेताओं से किस तरह के सवाल पूछने चाहिए।

इन नेताओं में कुछ पूर्व पत्रकार भी थे, लेकिन वे केजरीवाल को सही और शेष सबको गलत करार देने के लिए अतिरिक्त मेहनत करते ही दिखे।
आम आदमी पार्टी को मीडिया से कुछ शिकायतें हो सकती हैं-ठीक वैसे ही जैसे चुनाव के मौके पर करीब-करीब हर दल को रहती हैं, क्योंकि सभी की यही चाहत होती है कि उसके बारे में ज्यादा से ज्यादा दिखाया-बताया जाए और वह भी उसकी उपलब्धियों और लोकप्रियता को।

यह संभव नहीं है, क्योंकि मीडिया को राजनीतिक दलों और नेताओं के सभी पक्षों पर निगाह डालनी होती है। ऐसा लगता है कि आम आदमी पार्टी यह चाहती है कि जिस तरह वह अन्य मामलों में अपने हिसाब से नियम-कानून तय करने में लगी हुई है वैसे ही मीडिया के लिए भी अपनी पसंद की कोई आचार संहिता न केवल बनाना चाहती है, बल्कि उसे तत्काल प्रभाव से लागू भी करना चाहती है।

इस दल की ओर से पेड न्यूज के मामले को भी उछालने की कोशिश की जा रही है, लेकिन बिना किसी तथ्य और प्रमाण के। नि:संदेह पेड न्यूज एक बुराई है और उसके खिलाफ हर किसी को खड़ा होना चाहिए, लेकिन अपनी आलोचना से घबराकर इस मामले को बेवजह तूल देने का भी कोई मतलब नहीं। आम आदमी पार्टी के नेता तो खोजबीन और स्टिंग आपरेशन करने में माहिर हैं।

आखिर वे जो कुछ कह रहे हैं उसके पक्ष में कोई प्रमाण प्रस्तुत क्यों नहीं कर पा रहे हैं? कुछ समय पहले इस दल का यह कहना था कि हमारा उद्देश्य हंगामा करना नहीं, बल्कि सूरत बदलना है, लेकिन ऐसा लगता है कि उसका मकसद हंगामा करते रहना ही है। इस दल के नेता हंगामों के जरिये ही सनसनी फैलाना चाहते हैं और उसके आधार पर अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करना चाहते हैं। इन तौर-तरीकों से राजनीति और शासन में किसी सार्थक बदलाव की आशा नहीं की जा सकती।

Sunday, 9 March 2014

केजरीवाल की नौटंकी




केजरीवाल और उनके साथियों की हरकतों से दिल्ली और देश की जनता आजिज आ चुकी हैं। ये कायदे-कानून की अनदेखी कर रहे हैं। गणतंत्र दिवस से पहले धरना देना,लगभग अकारण मुख्यमंत्री पद को छोड़ना और अब गुजरात जाकर मीडिया की सुर्खिर्यां बटोरने की कोशिश करने को सब देख रहे हैं। इनसे देश ने वैकल्पिक राजनीति की उम्मीद की थी,जो धूल में मिल गई है।
अरविन्द केजरीवाल ने सवा महीनेदेश देख रहा है अरविंद केजरीवाल का ड्रामा। वो जब से गुजरात की यात्रा पर निकले हैं,तब से ही नाटक कर रहे हैं। वे गुजरात पहुंचने के बाद जब अपने काफिले के साथ अपने गंतव्य स्थान की तरफ जा रहे थे तब पुलिस ने उन्हें रोककर उन्हें बता दिया कि चूंकि देश में लोकसभा चुनावों के चलते आचार संहिता लागू हो चुकी है,इसलिए वे बिना अनुमति के गाडियों के काफिलों में नहीं घूम सकते। इसे उन्होंने बड़ा मुद्धा बना लिया। दिल्ली में उनके साधियों ने बीजेपी के दफ्तर में जाकर जो कुछ किया,उसे सबने देखा। उसकी निंदा हो रही है। पुलिस केस दर्ज हो गया उनके कुछ नेताओं के खिलाफ। के दौरान जो कुछ किया घबराये और बौखलाए विपक्ष ने उनके हर कदम को नौटंकी का ही नाम दिया। संसद भवन के बाहर दिल्ली पुलिस के मुद्दे पर मुख्यमंत्री ने भले ही पूरी रात आधी रजाई में गुजार दी हो लेकिन हमारे राजनीतिक दलों की नजर में वह नौटंकी से अधिक कुछ नहीं था। लेकिन जब बात अरविन्द केजरीवाल के असली मुद्दे जनलोकपाल की आई तो नौटंकी अंसवैधानिक अराजकता में तब्दील हो गई। विपक्ष ने अब अरविन्द केजरीवाल पर सबसे करारी चोट की थी कि वे जिस जनलोकपाल का मसौदा विधानसभा के सामने रखना चाहते हैं वह पूरी तरह से असंवैधानिक है। अगर किसी राज्य के राज्यपाल अपने ही मुख्यमंत्री द्वारा प्रस्तावित किसी कानून के बारे ऐसी असहमति दिखा दें तो फिर संवैधानिक संकट खड़ा हो ही जाता है। हालांकि अपने विदाई भाषण में अरविन्द केजरीवाल ने केन्द्र की सरकार को लंदन की सरकार और उपराज्यपाल को उनका वॉइसरॉय घोषित कर दिया लेकिन उनकी इस घोषणा से भी उपराज्यपाल की असहमति दरकिनार नहीं हो जाती। हो सकता है, यह बात अरविन्द केजरीवाल को भी पता हो और यह भी हो सकता है कि उन्होंने विधेयक का वह रास्ता इसीलिए चुना हो कि टकराव की नौबत आ जाए और वे इस्तीफा दे दें।
कह सकते हैं कि 48 दिनों में अरविंद केजरीवाल ने धुआंधार बल्लेबाजी की। ताबड़तोड़ तरीके से कुछ वादों को निभा भी दिया। बिजली के दामों में 50 फीसदी की कटौती करने की घोषणा की। 700 लीटर पानी प्रतिदिन मुफ्त देने की घोषणा कर दी। भ्रष्टाचार की शिकायत के लिए कॉल सेंटर बना। नर्सरी एडमिशन के लिए हैल्पलाइन का गठन हुआ। इसके अलावा कभी बयानबाजी-कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस और कभी कोरी ड्रामेबाजी से अपनी सक्रियता का अहसास कराया। लेकिन, 48 दिन बाद अरविंद केजरीवाल से कुछ सवाल तो पूछे ही जाने चाहिए?
जरा याद करें, 14 फरवरी यानी वेलेंटाइन डे का दिन। देश की राजधानी दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस के प्रसिद्ध हनुमान मंदिर के पीछे वाली सड़क हनुमान रोड स्थित एक पुरानी दो मंजिला इमारत के सामने शाम चार बजे से ही लोग इकट्ठे होने शुरू हो गए थे। ठंड व बारिश के बावजूद रात तक सैकड़ों लोग वहां जुट गए थे। लोगों ने जो टोपी पहन रखी थी, उससे साफ था कि जुटी भीड़ आम आदमी पार्टी (आप) के समर्थकों की थी और वह इमारत आप का कार्यालय। कार्यालय की पहली मंजिल की खिड़की पर रात 8 बजे जो हुआ, उसे दिल्लीवालों के साथ-साथ पूरे देश ने देखा। अपने चिर- परिचित अंदाज में मफलर लपेटे आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल खिड़की पर अवतरित हुए और दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की औपचारिक घोषणा की। घोषणा के साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा कि यह वही खिड़की है, जहां से मैंने चुनाव में पार्टी के जीत की घोषणा की थी और 48 दिन बाद वहीं से आज अपने इस्तीफे की घोषणा कर रहा हूं। पार्टी कार्यालय की उस खिड़की के नीचे बड़ी संख्या में मौजूद पार्टी के समर्थकों ने तालियों की गड़गड़ाहट से अपने नेता की घोषणा का स्वागत किया। उसी गड़गड़ाहट के बीच केजरीवाल ने कहा कि आप लोग चुनाव के लिए तैयार रहें, क्योंकि विधानसभा भंग कर फौरन चुनाव कराने की सिफारिश उपराज्यपाल से कर दी गई है।
इसके बाद शुरू हुआ केजरीवाल के इस निर्णय का पोस्टमार्टम। किसी ने इसे केजरीवाल का ड्रामा कहा, तो किसी ने दिल्ली की जनता के साथ विश्वासघात। किसी ने सोची समझी राजनीति कहा, तो किसी ने बेवकूफी भरा निर्णय। किसी ने इसे केजरीवाल की हठधर्मिता बताया, तो किसी ने दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय। किसी ने केजरीवाल को भगौड़ा कहा, तो किसी ने असंवैधानिक। सवाल यह है कि क्या केजरीवाल अब लोकपाल को पीछे कर लोकसभा की राजनीति कर रहे हैं? क्या केजरीवाल ने आम आदमी नहीं, बल्कि आम चुनाव की राजनीति करनी शुरू कर दी है? केजरीवाल का सीएम पद से इस्तीफा शहादत है या फिर पॉलिटिकल स्टंट?
आखिर, केजरीवाल रॉबर्ट वाड्रा को लेकर चुप क्यों रहे, जबकि सत्ता में आने से पहले वह लगातार वाड्रा के खिलाफ बोलते रहे थे। उनकी राजनीतिक जमीन तैयार करने में उनके वाड्रा विरोध का हाथ रहा था और लोग वाड्रा के खिलाफ कदम उठाए जाने की उनसे अपेक्षा कर रहे थे लेकिन वह चुप रहे। कानून मंत्री सोमनाथ भारती को लेकर अरविंद केजरीवाल क्यों चुप रहे? इन 48 दिनों में अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस को बिलकुल परेशान नहीं किया। शीला दीक्षित को जरुर परेशान किया लेकिन शीला दीक्षित तो खुद कांग्रेस में हाशिए पर ढकेली जा चुकी हैं। अरविंद केजरीवाल ने पूछा जाना चाहिए कि हर बात पर जनादेश करने वाली एएपी ने इस्तीफे के वक्त जनादेश क्यों नहीं किया?
दरअसल, एएपी का लक्ष्य लोकपाल नहीं लोकसभा है, और केंद्र में आम आदमी नहीं आम चुनाव हैं। और इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए ही अरविंद केजरीवाल ने एक स्क्रिप्ट लिखी थी। बेहद सधी और कसी पटकथा। इस पटकथा में आम आदमी का दर्द था, जज्बातों का सैलाब था, कानून के खिलाफ मोर्चा खोलता नायक था, भीड़ थी, खलनायक थे और कुबार्नी की नौटंकी भी। अरविंद केजरीवाल ने एक पटकथा लिखी और 48 दिनों तक पटकथा पर डटे रहे। यह उनकी खासियत थी। अपनी स्क्रिप्ट में उन्होंने सलीम जावेद जैसे स्क्रिप्ट राइटर्स को भी पानी पिला दिया। क्योंकि, शुरू से अंत तक वही हुआ, जो केजरीवाल चाहते थे। इस बीच, लीक से हटकर अपनी सोच के बूते केजरीवाल ने यह तो दिखा ही दिया कि चाहने पर कुछ भी हो सकता है। देश के सड़े गले राजनीतिक सिस्टम पर केजरीवाल ने करारी चोट की और लाल बत्ती और वीआईपी कल्चर के खिलाफ मुहिम छेड़ी। जनता से सीधे संवाद कर केजरीवाल ने बीजेपी-कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टियों को संदेश दे दिया कि अब पुरानी राजनीति के लिए जगह नहीं बची है और राजनीति करनी है तो जनता को साथ लेना होगा। हां, केजरीवाल बंगलों से लेकर सुरक्षा के मुद्दे पर कई बार आम आदमी से खास आदमी बनते दिखे, और अधूरे वादों पर लोगों के निशाने पर भी आए। लेकिन, उन्हें मालूम था कि जनलोकपाल का मुद्दा ही उन्हें सुरक्षित बाहर निकलने का मौका दे सकता है। यह उनकी स्क्रिप्ट का ैपीक प्वाइंटै था। और केजरीवाल ने इस पीक प्वाइंट पर अपनी स्क्रिप्ट में वह टर्निंग प्वाइंट दिया है, जहां से आगे की राह सीक्वल की तरफ जाती है।
केजरीवाल के इस निर्णय की गहराई में उतरने से पहले यह जानना जरूरी है कि आखिर नौबत इस्तीफे तक पहुंची कैसे? केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में जनलोकपाल बिल पेश करने की जिद की। इसका भाजपा व कांग्रेस दोनों ने विरोध किया। सदन में वोटिंग हुई। जनलोकपाल पेश करने के खिलाफ 42 मत पड़े और उसके समर्थन में केवल 27। नतीजतन जनलोकपाल विधेयक पेश नहीं हो सका। इसी को मुद्दा बनाकर मुख्यमंत्री केजरीवाल ने विधानसभा की बैठक खत्म होने के बाद कैबिनेट की बैठक की। उसमें उपराज्यपाल को इस सिफारिश के साथ इस्तीफे का पत्र फैक्स किया गया कि विधानसभा भंग करके चुनाव कराए जाएं। जानकारों का मानना है कि सरकार सदन में गिरी नहीं थी और न ही अल्पमत में आई थी, इसलिए केजरीवाल कैबिनेट की सिफारिश उपराज्यपाल के लिए बाध्यकारी है।
आखिर जनलोकपाल बिल पर केजरीवाल क्यों अड़े? यह उनकी राजनीतिक मजबूरी थी या जिम्मेदारी से निकल भागने का एक बहाना? असंवैधानिक तरीके से केजरीवाल का जनलोकपाल बिल पारित कराने का प्रयास पूरी तरह एक सोची समझी राजनीति का हिस्सा थी। मुख्यमंत्री केजरीवाल मूर्ख नहीं हैं। वे अच्छी तरह  जानते थे कि जनलोकपाल बिल को सीधे विधानसभा में पास कराना गैरकानूनी है और इसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है। बावजूद इसके उन्होंने ऐसा किया, तो इसका मकसद सिर्फ एक था। विधानसभा से मुक्ति व लोकसभा पर नजर। गौरतलब है कि केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले सरकार बनने पर दिसंबर में ही जनलोकपाल बिल पास करवाने का वादा किया था। लेकिन आधी फरवरी बीत जाने के बाद उन्होंने विधानसभा में जनलोकपाल बिल पेश करने का प्रयास किया और असफल होने पर इसी को मुद्दा बना इस्तीफा दे दिया। तब तक केजरीवाल ने अपने कई वादे खास कर बिजली, पानी आदि को अमलीजामा पहना वाहवाही लूट ली।  
अरविंद केजरीवाल ने चित भी मेरी और पट भी मेरी के फॉमूर्ले को अमल में लिया है। केजरीवाल को यह पता था कि अगर जनलोकपाल बिल पास होता है, तो उन्हें फायदा होगा और नहीं भी होगा, तो वे इस्तीफा देकर शहीद बन जाएंगे। उन्होंने ऐसा ही किया। आम आदमी पार्टी का आकलन है कि केजरीवाल के इस्तीफा देने से जनता के बीच केजरीवाल के लिए सहानुभूति उमड़ेगी। इस्तीफे का कारण वह संभावित सहानुभूति भी है। यदि ऐसा है, तो फिर आगामी चुनाव में आप को लेने के देने भी पड़ सकते हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में दिल्ली के वोटरों ने सिर्फ केजरीवाल को ध्यान में रख वोटिंग की थी। लेकिन अब जब केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया है और आम आदमी पार्टी से बड़े-बड़े चेहरे भी जुड़ रहे हैं। ऐसे में इस बार वोटर सिर्फ आप को न देख उम्मीदवारों को भी परखेगा। इस बार जो आप के टिकट पर जीत विधायक बन गए थे, हो सकता है कि वे अगला चुनाव हार जाएं। दिल्ली में पिछला चुनावी परिणाम जो आप के पक्ष में गया था, उसकी एक बड़ी वजह आम लोगों का कांग्रेस व भाजपा के प्रति आक्र ोश था। यह आक्रोश बिना पहचान वाले आप के उम्मीदवारों को जीता गया। लेकिन अब यह आक्रोश कम हो गया है। यदि विरोधी दल केजरीवाल के इस्तीफे को मुद्दा बनाने में सफल हो गए, तो आप को लेने के देने पड़ सकते हैं।
वैसे भी सोमनाथ भारती और दिल्ली पुलिस के खिलाफ धरना प्रदर्शन करने से हुई बदनामी से मुक्ति पाने के लिए भी आप तड़प रही थी। लग रहा था कि वे सरकार बना कर फंस गए थे और किसी न किसी बहाने सरकार गिराना चाहते थे, ताकि वे लोकसभा चुनाव पर ध्यान केंद्रित कर सकें। लोकसभा चुनाव में केजरीवाल को कोई ऐसा मुद्दा चाहिए था, जो आप को भीड़ से अलग हटा सके। जनलोकपाल वह मुद्दा बन सकता है। अब प्रचार के दौरान वे यह कह सकते हैं कि हमने तो जनलोकपाल बनाने का वादा पूरा करने का प्रयास किया, लेकिन कांग्रेस व भाजपा नहीं चाहती है कि दिल्ली भ्रष्टाचार मुक्त हो और जनलोकपाल बने। इसलिए दोनों दलों ने जनलोकपाल विधानसभा में पेश ही नहीं होने दिया। आने वाले दिनों में आप द्वारा मीडिया में केंद्र सरकार के लोकपाल और दिल्ली सरकार के जनलोकपाल में तुलना करवाई जाएगी, तो यकीनन केंद्र पर केजरीवाल भारी पड़ सकते हैं। केजरीवाल चीख-चीख कर कहेंगे कि कांग्रेस व भाजपा दोनों में से किसी ने सच्चे इरादे से लोकपाल संस्था की नींव नहीं रखी है। केजरीवाल के समर्थक सीधे हल्ला करेंगे कि देखिए कैसे केंद्र ने लूल्हा-लंगड़ा लोकपाल बनाया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता में पसरे रोष के बीच आधी-अधूरी और भ्रष्ट मंशा से बना लोकपाल कांग्रेस-भाजपा दोनों की भारी बदनामी कराएगा। एक बात और, लोकपाल पर कांग्रेस और भाजपा यदि लड़ी, तो इससे दोनों दलों की साख घटेगी और इसका सीधा फायदा आप को होगा। आप की रणनीति का एक हिस्सा यह सोच भी है। कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली ने कहा कि हमारा विरोध जनलोकपाल का मसौदा नहीं, बल्कि उसे पेश करने का तरीका था। एक मुख्यमंत्री को असंवैधानिक रास्ता अख्तियार करना शोभा नहीं देता है। बावजूद इसके कांग्रेस का समर्थन जारी था। कांग्रेस विधायक हारून यूसुफ ने कहा कि जिस जनलोकपाल की नींव ही गैरकानूनी तरीके से रखी गई हो, उसे कानूनी रूप कैसे मिल सकता है। भाजपा विधायक व विधानसभा में नेता विपक्ष डॉ. हर्षवर्धन ने कहा कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है। अधिनियम 239(ए) के तहत दिल्ली विधानसभा के ऊपर संसद का अधिकार है। दिल्ली में पहले से लोकायुक्त है। ऐसे में जनलोकपाल बिल की अवधारणा पूरी तरह असंवैधानिक है। डॉ. हर्षवर्धन ने कहा कि लोकायुक्त को और अधिक अधिकार दिए जा सकते हैं, लेकिन केंद्र की मंजूरी के बिना कोई नया बिल लाना गैरकानूनी है। केजरीवाल को भी यह अच्छी तरह पता है।
दो महीने बाद देश में आम चुनाव होनेवाले हैं। अरविन्द केजरीवाल की पार्टी देशभर में अपने उम्मीदवार मैदान में उतार रही है। अगर आम आदमी पार्टी को बेहतर प्रदर्शन करना है तो उनकी पार्टी को पूरे देश को अरविन्द केजरीवाल की जरूरत होगी। दिल्ली में बतौर मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जिस तरह सक्रिय थे उसे देखते हुए एकदम उम्मीद नहीं थी कि वे देशभर में अपनी पार्टी के लिए काम कर पाते। ऐसे में अगर टकराव के रास्ते सरकार को कुर्बान करने की नीति पर अमल किया गया है तो यह केजरीवाल द्वारा लिया गया कोई भावनात्मक निर्णय तो बिल्कुल नहीं है। हो सकता है इसके बाद कांग्रेस और भाजपा एक बार फिर इसे खारिज कर दें और केजरीवाल की नौटंकी करार दे दे, लेकिन कांग्रेस और भाजपा जैसे स्थापित दलों को शायद अब यह अहसास नहीं रहा कि दो तरह की राजनीति के बीच विकल्प का एक खाली स्थान हमेशा रहा है और हमेशा रहेगालेकिन महज राजनीतिक फायदे के लिए उन्होंने आम लोगों की मजलिस में जनलोकपाल का नाटक खेला। दिल्ली की जनता काफी हद तक इस सच्चाई को समझ गई है और इसका परिणाम आगामी चुनाव में देखने को मिलेगा।

Thursday, 6 March 2014

विघटनकारी, अराजक और छद्म है केजरीवाल

गांधी के नाम पर राजनीति करने वाले केजरीवाल और उनके समर्थक अपने आचरण के जरिए, गांधीवादी मूल्यों और सिद्धांतों की रोज तिलांजलि देते नज़र आ रहे हैं। गुजरात, दिल्ली, लखनऊ सहित देश के अलग-अलग हिस्सों में आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं की तोड़फोड़ और हिंसक प्रदर्शनों से एक बार फिर ये बात साबित हुई है कि केजरीवाल और उनके साथियों का मक़सद सिर्फ और सिर्फ अराजकता फैलाकर अपना राजनीतिक एजेंडा पूरा करना है।

गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में आज सुबह, सड़क जाम करके अराजकता फैलाने की कोशिश कर रहे केजरीवाल को महज़ कुछ मिनट के लिए डिटेन किया गया था। लेकिन उस कार्रवाई के खिलाफ़ केजरीवाल ने अपने समर्थकों के जरिये जिस तरह से दिल्ली और लखनऊ में बीजेपी दफ्तर पर तोड़फोड़ करवाई है, वो कहीं से भी स्वस्थ्य राजनीतिक परंपरा नहीं हो सकती।

गांधी ने लंबे राजनीतिक जीवन में कभी भी हिंसा और अराजकता को बढ़ावा नहीं दिया। कई मौके ऐसे आए, जब गांधी जी ने अपने आंदोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए, उसे स्थगित करना ज़्यादा मुनासिब समझा। सामाजिक सद्भाव कायम करने और उसे बनाए रखने के लिए, गांधी ने अपने प्राण तक की आहूति दे दी। लेकिन अराजक और सांप्रादायिक ताकतों से कभी समझौता नहीं किया।

आज गांधी के नाम पर व्यवस्था बदलाव के लिए निकले अरविंद केजरीवाल सत्ता के लिए एक तरफ परोक्ष रूप से कांग्रेस से गठबंधन करते दिख रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ मौलाना तौकीर और प्रमोद कृष्णन जैसे सांप्रदायिक और संदिग्ध व्यक्तित्व वाले लोगों के साथ गलबहियां कर रहे हैं।
मौलाना तौकीर और प्रमोद कृष्णन का इतिहास किसी से छिपा नहीं है। कांग्रेस के दिग्विजय सिंह से इन लोगों की नज़दीकियां भी जग जाहिर है।

उत्तर प्रदेश के बरेली में पिछले साल हुए दंगे में, मौलाना तौकीर रज़ा की भूमिका आज भी पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज है। ठीक उसी तरह से राजस्थान के अज़मेर में हुए बम धमाके के आरोपी के साथ प्रमोद कृष्णन के रिश्ते भी पिछले दिनों सुर्खियों में रहे हैं। दिलचस्प बात ये है कि, इन दो नेताओं ने `HUM` हिंदुस्तान यूनाइटेड मूवमेंट पार्टी का ऐलान कर दिया है। साथ ही नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ अरविंद केजरीवाल की उम्मीदवारी के समर्थन की घोषणा भी कर दी।किस राह पर केजरी


HUM के संयोजक प्रमोद कृष्णन का तो ये भी कहना है, कि बीजेपी विरोधी सभी राजनीतिक दलों को नरेंद्र मोदी के मुकाबले, केजरीवाल को समर्थन देना चाहिए। और केजरीवाल के खिलाफ अपना उम्मीदवार नहीं उतारना चाहिए। कांग्रेस की मदद से दिल्ली में लगभग 40 दिन तक सरकार चलाकर केजरीवाल और उनके साथी पहले ही बेनकाब हो गए हैं। अपनी प्रशासनिक अक्षमता और अराजकता के लिए भी केजरीवाल कुख्यात हो चुके हैं।

नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव से खुद को बगैर लड़े पराजित मान चुकी कांग्रेस पार्टी, केजरीवाल, तौकीर रज़ा, प्रमोद कृष्णन सरीखे सांप्रदायिक, अराजक और संदिग्ध ताकतों के ज़रिए, 2014 के चुनावी महासमर में अपनी नैया को डूबने से बचाने की कोशिश में लगी है। ऐसी स्थिति में देश की आवाम को ऐसे विघटनकारी, अराजक और छद्म वेश में घूम रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं और धर्मगुरुओं से सजग रहने की जरूरत है।

Monday, 3 March 2014

अब सही मायने में राजनीति के बदलने का वक्त आ गया

सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के लिए बिसात बिछ चुकी है। राजनीतिक दल, उनका नेतृत्व और उम्मीदवार अपनी-अपनी रणनीतियों को धार देने में जुटे हैं। बेशक विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र  भारत में चुनाव उत्सव होते हुए भी किसी जंग से कम नहीं होता—कम से कम राजनीति के खिलाडिय़ों के लिए तो।

 इसलिए उनकी रणनीतियों का महत्व भी समझा ही जा सकता है, लेकिन इस चुनाव में तमाम परंपरागत  कारकों-हथकंडों के अलावा एक सबसे महत्वपूर्ण, और शायद निर्णायक भी, कारक होगा युवा मतदाताओं की विशाल संख्या। आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि  बच्चे देश का भविष्य होते हैं। कल के बच्चे आज वाकई देश का भविष्य बनने-बनाने को तैयार हैं।

जीवन के तमाम क्षेत्रों में दुनिया भर में भारत का नाम रोशन करनेवाले ये युवा सक्रिय  राजनीति में तो दस्तक दे ही रहे हैं, बतौर मतदाता भी वे जनादेश में अहम भूमिका निभाने जा रहे हैं। चुनाव आयोग के ही विश्वसनीय आंकड़ों के आधार पर बात करें तो अप्रैल-मई में होनेवाले लोकसभा चुनाव में कमोबेश हर संसदीय क्षेत्र में 90 हजार युवा मतदाता होंगे। माना कि संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या लाखों में होती है, लेकिन उनमें अगर 90 हजार युवा हैं तो यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि वे निर्णायक भूमिका भी निभा सकते हैं।

बेशक हर मतदाता के मत का महत्व समान ही होता है, फिर भी ये युवा मतदाता अपेक्षाकृत निर्णायक भूमिका इसलिए निभा सकते हैं, क्योंकि वे किसी खास राजनीतिक विचारधारा या परंपरा के बंधक नहीं हैं। खासकर आर्थिक उदारीकरण के बाद की दुनिया में आंखें खोलनेवाले युवाओं की सोच-समझ का दायरा स्पष्ट और विस्तृत भी है।

उन्हें जाति, वर्ग, संप्रदाय के मुद्दों से बरगलाया या विभाजित नहीं किया जा सकता। वैश्विक गांव के इन बाशिंदों के सरोकार बेहतर शिक्षा, अधिक रोजगार के अवसर, प्रगतिशील व्यवस्था और सुरक्षित जीवन आदि से जुड़े हैं।वे विभिन्न राजनीतिक दलों और उनके एजेंडे को इन्हीं मुद्दों की कसौटियों पर कसेंगे भी।

दरअसल भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी के शैक्षणिक संस्थानों में युवाओं से संवाद से शुरू हुआ सिलसिला जिस तरह चुनाव घोषणापत्र तैयार करने के लिए भी जनता के बीच पहुंच गया है, उसके मूल में भी यही है।

दो साल पहले जब जन लोकपाल आंदोलन के दौरान अन्ना ने कहा था कि दिल्ली से देश  चलाने की शैली बदल कर निर्णय की शक्ति ग्राम सभाओं को देनी होगी, तब बहुत से राजनेताओं ने मुंह बिचकाया था, लेकिन आज सभी उसी रास्ते पर जाने की बात तो कहने ही लगे हैं। राजनीति में युवाओं की भागीदारी क ी जरूरत भी महसूस की जा रही है। सभी प्रमुख दल युवाओं को टिकट देने की बात भी कह रहे हैं।

निश्चय ही यह सही और सकारात्मक सोच है। जिस देश की आबादी ही युवा बहुल हो, उसके नेतृत्व में भी युवा- सोच झलकनी चाहिए। दरअसल यह दबाव महसूस भी किया जा रहा है। तभी तो मंदिर, मंडल सरीखे परंपरागत चुनावी मुद्दों के बीच भी शिक्षा, स्वास्थ्य , कौशल-दक्षता और प्रौद्योगिकी विकास में नये आयाम स्थापित करने की बातें राजनेताओं के मुंह से सुनायी पडऩे लगी हैं।

 वैसे काम सिर्फ बातों से भी नहीं चलेगा, अनिश्चितकाल तक तो हरगिज नहीं, क्योंकि सूचना क्रांति के इस दौर में आधुनिक प्रौद्योगिकी से लैस युवाओं को अंधेरे में नहीं रखा जा सकता। ये मतदाता सिर्फ भाषणों और दावों पर वोट नहीं करेंगे, उनकी वास्तविकता और व्यवहार्यता भी जांचेंगे-परखेंगे। इन युवा मतदाताओं में एक बड़ा प्रतिशत उनका है, जिन्हें पहली बार मताधिकार मिला है।

 इसलिए यह  भी तय है कि वे सिर्फ सोशल मीडिया के जरिये ही अपनी पसंद-नापसंद नहीं जाहिर करेंगे, इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन का बटन दबा  कर अपना फैसला भी सुनायेंगे, जो नयी सरकार के गठन में महत्वपूर्ण साबित होगा। बेहतर होगा कि राजनीतिक दल और नेता न सिर्फ अपनी राजनीतिक कथनी, बल्कि करनी भी बदलें। अब सही मायने में राजनीति के बदलने का वक्त आ गया है।

Saturday, 1 March 2014

हार के डर से पगलाये खुर्शीद ने मोदी को नपुंसक कहा -- अजित कुमार पाण्डेय










विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को एक रैली मैं नपुंसक करार दे दिया।  जिसके बाद भाजपा द्वारा इस बयान का का काफी विरोध हुआ, फिर भी सलमान खुर्शीद अपने बयान पर आड़े हुए हैं।  कांग्रेस ने इसे खुर्शीद का निजी बयान देकर अपना पल्ला झाड़ लिया है।  अब सवाल यह उठता है कि सलमान किस आधार पर इस तरह का बयान दे रहे हैं , अपनी सफाई मैं उन्होंने कहा कि उन्होंने प्रशासनिक आधार पर नपुंसक होने कि बात कही थी।  लेकिन सच तो यह है कि सलमान खुर्शीद अपनी रैली मैं कांग्रेस कि वही पुरानी घिसी पिटी साप्रदायिकता कि नीती अपना कर संप्रदाय विशेष के मन मैं मोदी के खिलाफ जहर बोने कि कोशिश कर रहे थे।
यह पहला मौका नहीं है जब सलमान खुर्शीद ने इस तरह के बेहूदे बयां दिए हो बल्कि हाल ही मैं उन्होंने ने आम आदमी पार्टी के खिलाफ भी इसी तरह का बयान दिया था जब आम आदमी पार्टी ने उनके खिलाफ मोर्चा खोला था। उन्होंने केजरीवाल को gutterspine कहा था और आम आदमी पार्टी को भारत कि एक सबसे घटिया और तीसरे स्तर वाले लोगो कि पार्टी कहा था।
सलमान खुर्शीद कि मर्दानगी तब कहा गयी थी जब पकिस्तान से आये आतंकवादियों ने दो भारतीय सैनिकों के सर काट लिए थे , तब वो और उनकी पार्टी कहा थी।  सलमान खुर्शीद और उनकी पार्टी ने आखिर इटली के नौसैनिकों द्वारा भारतीय मछुआरों कि हत्या करने पर अभी तक कोई कड़ी कार्यवाही नहीं कि। क्या यह नपुंसकता का परिचायक नहीं है।
ऐसे एक नहीं अनेकों मामले आये जिनमें सरकार ने कोई कार्यवाही नहीं कि क्या वो सब नपुंसकता नहीं। आज नरेंद्र मोदी कि बढ़ती हुई लोकप्रियता और लोकसभा चुनावों मैं अपनी हर को सामने देख सलमान खुर्शीद दिमागी संतुलन खो बैठे हैं और अनाप शनाप बयान दे रहे हैं।  बेहतर वो भददे बयान देने से अच्छा कुछ राष्ट्र हित मैं काम करे।

सलमान खुर्शीद को भारत में भाषाई संस्कार नहीं मिला

केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद के नरेंद्र मोदी पर दिए गए बयान पर पूर्वांचल विकास मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अजीत कुमार पाण्डेय ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उन्होंने कहा कि सलमान खुर्शीद को भारत में भाषाई संस्कार नहीं मिल पाया है। उन्हें इसकी सख्त जरूरत है।

पाण्डेय ने कहा कि कांग्रेस पार्टी तमीज भूल रही है। जिस तरह के शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, वह भारतीय तहजीब के खिलाफ है। सलमान खुर्शीद विदेश में पढ़कर आए हैं. वह अपनी देश की तमीज को भूल जाएंगे ये उम्मीद नहीं थी।

उन्होंने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी सवाल किया वह जवाब दें कि क्या उन्होंने यही कहा था अपने नेताओं से कि जब नरेंद्र मोदी से लड़ ना पाएं तो गाली गलौज करें।

अजीत कुमार पाण्डेय ने कहा कि - सलमान खुर्शीद मर्द वह कहलाता है कि जो जंग में खड़ा होता है. आपके यहां तो पीएम कैंडिडेट बनना ही नहीं चाह रहे हैं, वह क्या हैं।

मेढ़क से की थी मोदी की तुलना

प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ विदेशमंत्री की यह नई टिप्पणी वर्ष 2002 के गोधरा कांड के बाद भड़के दंगों से मुख्यमंत्री द्वारा निपटे जाने के तौर तरीकों पर सवाल उठाते हुए की गई।

खुर्शीद ने पहले एक बार मोदी की तुलना मेढ़क से की थी, जो अभी-अभी कुएं से बाहर निकला है। एक रैली में मोदी का नाम लिए बिना, फर्रुखाबाद से सांसद खुर्शीद ने सवालिया अंदाज में कहा कि देश के प्रधानमंत्री पद की आकांक्षा रखने वाला एक व्यक्ति क्यों 2002 के दंगों के दौरान कुछ नहीं कर पाया.

कांग्रेसी नेता ने कहा, कुछ लोग आते हैं, हमला करते हैं और चले जाते हैं और आप रक्षा नहीं कर सकते. आप एक मजबूत इंसान नहीं हैं? उन्होंने कहा, हम तुम्हें (मोदी) लोगों की हत्या का आरोपी नहीं कहते... हमारा आरोप है कि तुम नपुंसक हो. तुम हत्यारों को रोक नहीं सके.

इस बीच जेडीयू नेता साबिर अली ने कहा कि राजनीति में इस तरह की छोटी और गिरी हुई बात सलमान खुर्शीद जैसे लोग ही कर सकते हैं. खुर्शीद ने इस तरह का बयान पहली बार नहीं दिया है.

खुर्शीद के इस बयान के बाद अब सियासी घमासान मचना तय दिख रहा है और कांग्रेस-भाजपा के बीच जुबानी जंग और तेज होने की संभावना है.