केजरीवाल और उनके साथियों की हरकतों से दिल्ली और देश की जनता आजिज आ चुकी हैं। ये कायदे-कानून की अनदेखी कर रहे हैं। गणतंत्र दिवस से पहले धरना देना,लगभग अकारण मुख्यमंत्री पद को छोड़ना और अब गुजरात जाकर मीडिया की सुर्खिर्यां बटोरने की कोशिश करने को सब देख रहे हैं। इनसे देश ने वैकल्पिक राजनीति की उम्मीद की थी,जो धूल में मिल गई है।
अरविन्द केजरीवाल ने सवा महीनेदेश देख रहा है अरविंद केजरीवाल का ड्रामा। वो जब से गुजरात की यात्रा पर निकले हैं,तब से ही नाटक कर रहे हैं। वे गुजरात पहुंचने के बाद जब अपने काफिले के साथ अपने गंतव्य स्थान की तरफ जा रहे थे तब पुलिस ने उन्हें रोककर उन्हें बता दिया कि चूंकि देश में लोकसभा चुनावों के चलते आचार संहिता लागू हो चुकी है,इसलिए वे बिना अनुमति के गाडियों के काफिलों में नहीं घूम सकते। इसे उन्होंने बड़ा मुद्धा बना लिया। दिल्ली में उनके साधियों ने बीजेपी के दफ्तर में जाकर जो कुछ किया,उसे सबने देखा। उसकी निंदा हो रही है। पुलिस केस दर्ज हो गया उनके कुछ नेताओं के खिलाफ। के दौरान जो कुछ किया घबराये और बौखलाए विपक्ष ने उनके हर कदम को नौटंकी का ही नाम दिया। संसद भवन के बाहर दिल्ली पुलिस के मुद्दे पर मुख्यमंत्री ने भले ही पूरी रात आधी रजाई में गुजार दी हो लेकिन हमारे राजनीतिक दलों की नजर में वह नौटंकी से अधिक कुछ नहीं था। लेकिन जब बात अरविन्द केजरीवाल के असली मुद्दे जनलोकपाल की आई तो नौटंकी अंसवैधानिक अराजकता में तब्दील हो गई। विपक्ष ने अब अरविन्द केजरीवाल पर सबसे करारी चोट की थी कि वे जिस जनलोकपाल का मसौदा विधानसभा के सामने रखना चाहते हैं वह पूरी तरह से असंवैधानिक है। अगर किसी राज्य के राज्यपाल अपने ही मुख्यमंत्री द्वारा प्रस्तावित किसी कानून के बारे ऐसी असहमति दिखा दें तो फिर संवैधानिक संकट खड़ा हो ही जाता है। हालांकि अपने विदाई भाषण में अरविन्द केजरीवाल ने केन्द्र की सरकार को लंदन की सरकार और उपराज्यपाल को उनका वॉइसरॉय घोषित कर दिया लेकिन उनकी इस घोषणा से भी उपराज्यपाल की असहमति दरकिनार नहीं हो जाती। हो सकता है, यह बात अरविन्द केजरीवाल को भी पता हो और यह भी हो सकता है कि उन्होंने विधेयक का वह रास्ता इसीलिए चुना हो कि टकराव की नौबत आ जाए और वे इस्तीफा दे दें।
कह सकते हैं कि 48 दिनों में अरविंद केजरीवाल ने धुआंधार बल्लेबाजी की। ताबड़तोड़ तरीके से कुछ वादों को निभा भी दिया। बिजली के दामों में 50 फीसदी की कटौती करने की घोषणा की। 700 लीटर पानी प्रतिदिन मुफ्त देने की घोषणा कर दी। भ्रष्टाचार की शिकायत के लिए कॉल सेंटर बना। नर्सरी एडमिशन के लिए हैल्पलाइन का गठन हुआ। इसके अलावा कभी बयानबाजी-कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस और कभी कोरी ड्रामेबाजी से अपनी सक्रियता का अहसास कराया। लेकिन, 48 दिन बाद अरविंद केजरीवाल से कुछ सवाल तो पूछे ही जाने चाहिए?
जरा याद करें, 14 फरवरी यानी वेलेंटाइन डे का दिन। देश की राजधानी दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस के प्रसिद्ध हनुमान मंदिर के पीछे वाली सड़क हनुमान रोड स्थित एक पुरानी दो मंजिला इमारत के सामने शाम चार बजे से ही लोग इकट्ठे होने शुरू हो गए थे। ठंड व बारिश के बावजूद रात तक सैकड़ों लोग वहां जुट गए थे। लोगों ने जो टोपी पहन रखी थी, उससे साफ था कि जुटी भीड़ आम आदमी पार्टी (आप) के समर्थकों की थी और वह इमारत आप का कार्यालय। कार्यालय की पहली मंजिल की खिड़की पर रात 8 बजे जो हुआ, उसे दिल्लीवालों के साथ-साथ पूरे देश ने देखा। अपने चिर- परिचित अंदाज में मफलर लपेटे आप के मुखिया अरविंद केजरीवाल खिड़की पर अवतरित हुए और दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की औपचारिक घोषणा की। घोषणा के साथ-साथ उन्होंने यह भी कहा कि यह वही खिड़की है, जहां से मैंने चुनाव में पार्टी के जीत की घोषणा की थी और 48 दिन बाद वहीं से आज अपने इस्तीफे की घोषणा कर रहा हूं। पार्टी कार्यालय की उस खिड़की के नीचे बड़ी संख्या में मौजूद पार्टी के समर्थकों ने तालियों की गड़गड़ाहट से अपने नेता की घोषणा का स्वागत किया। उसी गड़गड़ाहट के बीच केजरीवाल ने कहा कि आप लोग चुनाव के लिए तैयार रहें, क्योंकि विधानसभा भंग कर फौरन चुनाव कराने की सिफारिश उपराज्यपाल से कर दी गई है।
इसके बाद शुरू हुआ केजरीवाल के इस निर्णय का पोस्टमार्टम। किसी ने इसे केजरीवाल का ड्रामा कहा, तो किसी ने दिल्ली की जनता के साथ विश्वासघात। किसी ने सोची समझी राजनीति कहा, तो किसी ने बेवकूफी भरा निर्णय। किसी ने इसे केजरीवाल की हठधर्मिता बताया, तो किसी ने दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय। किसी ने केजरीवाल को भगौड़ा कहा, तो किसी ने असंवैधानिक। सवाल यह है कि क्या केजरीवाल अब लोकपाल को पीछे कर लोकसभा की राजनीति कर रहे हैं? क्या केजरीवाल ने आम आदमी नहीं, बल्कि आम चुनाव की राजनीति करनी शुरू कर दी है? केजरीवाल का सीएम पद से इस्तीफा शहादत है या फिर पॉलिटिकल स्टंट?
आखिर, केजरीवाल रॉबर्ट वाड्रा को लेकर चुप क्यों रहे, जबकि सत्ता में आने से पहले वह लगातार वाड्रा के खिलाफ बोलते रहे थे। उनकी राजनीतिक जमीन तैयार करने में उनके वाड्रा विरोध का हाथ रहा था और लोग वाड्रा के खिलाफ कदम उठाए जाने की उनसे अपेक्षा कर रहे थे लेकिन वह चुप रहे। कानून मंत्री सोमनाथ भारती को लेकर अरविंद केजरीवाल क्यों चुप रहे? इन 48 दिनों में अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस को बिलकुल परेशान नहीं किया। शीला दीक्षित को जरुर परेशान किया लेकिन शीला दीक्षित तो खुद कांग्रेस में हाशिए पर ढकेली जा चुकी हैं। अरविंद केजरीवाल ने पूछा जाना चाहिए कि हर बात पर जनादेश करने वाली एएपी ने इस्तीफे के वक्त जनादेश क्यों नहीं किया?
दरअसल, एएपी का लक्ष्य लोकपाल नहीं लोकसभा है, और केंद्र में आम आदमी नहीं आम चुनाव हैं। और इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए ही अरविंद केजरीवाल ने एक स्क्रिप्ट लिखी थी। बेहद सधी और कसी पटकथा। इस पटकथा में आम आदमी का दर्द था, जज्बातों का सैलाब था, कानून के खिलाफ मोर्चा खोलता नायक था, भीड़ थी, खलनायक थे और कुबार्नी की नौटंकी भी। अरविंद केजरीवाल ने एक पटकथा लिखी और 48 दिनों तक पटकथा पर डटे रहे। यह उनकी खासियत थी। अपनी स्क्रिप्ट में उन्होंने सलीम जावेद जैसे स्क्रिप्ट राइटर्स को भी पानी पिला दिया। क्योंकि, शुरू से अंत तक वही हुआ, जो केजरीवाल चाहते थे। इस बीच, लीक से हटकर अपनी सोच के बूते केजरीवाल ने यह तो दिखा ही दिया कि चाहने पर कुछ भी हो सकता है। देश के सड़े गले राजनीतिक सिस्टम पर केजरीवाल ने करारी चोट की और लाल बत्ती और वीआईपी कल्चर के खिलाफ मुहिम छेड़ी। जनता से सीधे संवाद कर केजरीवाल ने बीजेपी-कांग्रेस जैसी पुरानी पार्टियों को संदेश दे दिया कि अब पुरानी राजनीति के लिए जगह नहीं बची है और राजनीति करनी है तो जनता को साथ लेना होगा। हां, केजरीवाल बंगलों से लेकर सुरक्षा के मुद्दे पर कई बार आम आदमी से खास आदमी बनते दिखे, और अधूरे वादों पर लोगों के निशाने पर भी आए। लेकिन, उन्हें मालूम था कि जनलोकपाल का मुद्दा ही उन्हें सुरक्षित बाहर निकलने का मौका दे सकता है। यह उनकी स्क्रिप्ट का ैपीक प्वाइंटै था। और केजरीवाल ने इस पीक प्वाइंट पर अपनी स्क्रिप्ट में वह टर्निंग प्वाइंट दिया है, जहां से आगे की राह सीक्वल की तरफ जाती है।
केजरीवाल के इस निर्णय की गहराई में उतरने से पहले यह जानना जरूरी है कि आखिर नौबत इस्तीफे तक पहुंची कैसे? केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा में जनलोकपाल बिल पेश करने की जिद की। इसका भाजपा व कांग्रेस दोनों ने विरोध किया। सदन में वोटिंग हुई। जनलोकपाल पेश करने के खिलाफ 42 मत पड़े और उसके समर्थन में केवल 27। नतीजतन जनलोकपाल विधेयक पेश नहीं हो सका। इसी को मुद्दा बनाकर मुख्यमंत्री केजरीवाल ने विधानसभा की बैठक खत्म होने के बाद कैबिनेट की बैठक की। उसमें उपराज्यपाल को इस सिफारिश के साथ इस्तीफे का पत्र फैक्स किया गया कि विधानसभा भंग करके चुनाव कराए जाएं। जानकारों का मानना है कि सरकार सदन में गिरी नहीं थी और न ही अल्पमत में आई थी, इसलिए केजरीवाल कैबिनेट की सिफारिश उपराज्यपाल के लिए बाध्यकारी है।
आखिर जनलोकपाल बिल पर केजरीवाल क्यों अड़े? यह उनकी राजनीतिक मजबूरी थी या जिम्मेदारी से निकल भागने का एक बहाना? असंवैधानिक तरीके से केजरीवाल का जनलोकपाल बिल पारित कराने का प्रयास पूरी तरह एक सोची समझी राजनीति का हिस्सा थी। मुख्यमंत्री केजरीवाल मूर्ख नहीं हैं। वे अच्छी तरह जानते थे कि जनलोकपाल बिल को सीधे विधानसभा में पास कराना गैरकानूनी है और इसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है। बावजूद इसके उन्होंने ऐसा किया, तो इसका मकसद सिर्फ एक था। विधानसभा से मुक्ति व लोकसभा पर नजर। गौरतलब है कि केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले सरकार बनने पर दिसंबर में ही जनलोकपाल बिल पास करवाने का वादा किया था। लेकिन आधी फरवरी बीत जाने के बाद उन्होंने विधानसभा में जनलोकपाल बिल पेश करने का प्रयास किया और असफल होने पर इसी को मुद्दा बना इस्तीफा दे दिया। तब तक केजरीवाल ने अपने कई वादे खास कर बिजली, पानी आदि को अमलीजामा पहना वाहवाही लूट ली।
अरविंद केजरीवाल ने चित भी मेरी और पट भी मेरी के फॉमूर्ले को अमल में लिया है। केजरीवाल को यह पता था कि अगर जनलोकपाल बिल पास होता है, तो उन्हें फायदा होगा और नहीं भी होगा, तो वे इस्तीफा देकर शहीद बन जाएंगे। उन्होंने ऐसा ही किया। आम आदमी पार्टी का आकलन है कि केजरीवाल के इस्तीफा देने से जनता के बीच केजरीवाल के लिए सहानुभूति उमड़ेगी। इस्तीफे का कारण वह संभावित सहानुभूति भी है। यदि ऐसा है, तो फिर आगामी चुनाव में आप को लेने के देने भी पड़ सकते हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में दिल्ली के वोटरों ने सिर्फ केजरीवाल को ध्यान में रख वोटिंग की थी। लेकिन अब जब केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया है और आम आदमी पार्टी से बड़े-बड़े चेहरे भी जुड़ रहे हैं। ऐसे में इस बार वोटर सिर्फ आप को न देख उम्मीदवारों को भी परखेगा। इस बार जो आप के टिकट पर जीत विधायक बन गए थे, हो सकता है कि वे अगला चुनाव हार जाएं। दिल्ली में पिछला चुनावी परिणाम जो आप के पक्ष में गया था, उसकी एक बड़ी वजह आम लोगों का कांग्रेस व भाजपा के प्रति आक्र ोश था। यह आक्रोश बिना पहचान वाले आप के उम्मीदवारों को जीता गया। लेकिन अब यह आक्रोश कम हो गया है। यदि विरोधी दल केजरीवाल के इस्तीफे को मुद्दा बनाने में सफल हो गए, तो आप को लेने के देने पड़ सकते हैं।
वैसे भी सोमनाथ भारती और दिल्ली पुलिस के खिलाफ धरना प्रदर्शन करने से हुई बदनामी से मुक्ति पाने के लिए भी आप तड़प रही थी। लग रहा था कि वे सरकार बना कर फंस गए थे और किसी न किसी बहाने सरकार गिराना चाहते थे, ताकि वे लोकसभा चुनाव पर ध्यान केंद्रित कर सकें। लोकसभा चुनाव में केजरीवाल को कोई ऐसा मुद्दा चाहिए था, जो आप को भीड़ से अलग हटा सके। जनलोकपाल वह मुद्दा बन सकता है। अब प्रचार के दौरान वे यह कह सकते हैं कि हमने तो जनलोकपाल बनाने का वादा पूरा करने का प्रयास किया, लेकिन कांग्रेस व भाजपा नहीं चाहती है कि दिल्ली भ्रष्टाचार मुक्त हो और जनलोकपाल बने। इसलिए दोनों दलों ने जनलोकपाल विधानसभा में पेश ही नहीं होने दिया। आने वाले दिनों में आप द्वारा मीडिया में केंद्र सरकार के लोकपाल और दिल्ली सरकार के जनलोकपाल में तुलना करवाई जाएगी, तो यकीनन केंद्र पर केजरीवाल भारी पड़ सकते हैं। केजरीवाल चीख-चीख कर कहेंगे कि कांग्रेस व भाजपा दोनों में से किसी ने सच्चे इरादे से लोकपाल संस्था की नींव नहीं रखी है। केजरीवाल के समर्थक सीधे हल्ला करेंगे कि देखिए कैसे केंद्र ने लूल्हा-लंगड़ा लोकपाल बनाया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता में पसरे रोष के बीच आधी-अधूरी और भ्रष्ट मंशा से बना लोकपाल कांग्रेस-भाजपा दोनों की भारी बदनामी कराएगा। एक बात और, लोकपाल पर कांग्रेस और भाजपा यदि लड़ी, तो इससे दोनों दलों की साख घटेगी और इसका सीधा फायदा आप को होगा। आप की रणनीति का एक हिस्सा यह सोच भी है। कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली ने कहा कि हमारा विरोध जनलोकपाल का मसौदा नहीं, बल्कि उसे पेश करने का तरीका था। एक मुख्यमंत्री को असंवैधानिक रास्ता अख्तियार करना शोभा नहीं देता है। बावजूद इसके कांग्रेस का समर्थन जारी था। कांग्रेस विधायक हारून यूसुफ ने कहा कि जिस जनलोकपाल की नींव ही गैरकानूनी तरीके से रखी गई हो, उसे कानूनी रूप कैसे मिल सकता है। भाजपा विधायक व विधानसभा में नेता विपक्ष डॉ. हर्षवर्धन ने कहा कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है। अधिनियम 239(ए) के तहत दिल्ली विधानसभा के ऊपर संसद का अधिकार है। दिल्ली में पहले से लोकायुक्त है। ऐसे में जनलोकपाल बिल की अवधारणा पूरी तरह असंवैधानिक है। डॉ. हर्षवर्धन ने कहा कि लोकायुक्त को और अधिक अधिकार दिए जा सकते हैं, लेकिन केंद्र की मंजूरी के बिना कोई नया बिल लाना गैरकानूनी है। केजरीवाल को भी यह अच्छी तरह पता है।
दो महीने बाद देश में आम चुनाव होनेवाले हैं। अरविन्द केजरीवाल की पार्टी देशभर में अपने उम्मीदवार मैदान में उतार रही है। अगर आम आदमी पार्टी को बेहतर प्रदर्शन करना है तो उनकी पार्टी को पूरे देश को अरविन्द केजरीवाल की जरूरत होगी। दिल्ली में बतौर मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जिस तरह सक्रिय थे उसे देखते हुए एकदम उम्मीद नहीं थी कि वे देशभर में अपनी पार्टी के लिए काम कर पाते। ऐसे में अगर टकराव के रास्ते सरकार को कुर्बान करने की नीति पर अमल किया गया है तो यह केजरीवाल द्वारा लिया गया कोई भावनात्मक निर्णय तो बिल्कुल नहीं है। हो सकता है इसके बाद कांग्रेस और भाजपा एक बार फिर इसे खारिज कर दें और केजरीवाल की नौटंकी करार दे दे, लेकिन कांग्रेस और भाजपा जैसे स्थापित दलों को शायद अब यह अहसास नहीं रहा कि दो तरह की राजनीति के बीच विकल्प का एक खाली स्थान हमेशा रहा है और हमेशा रहेगालेकिन महज राजनीतिक फायदे के लिए उन्होंने आम लोगों की मजलिस में जनलोकपाल का नाटक खेला। दिल्ली की जनता काफी हद तक इस सच्चाई को समझ गई है और इसका परिणाम आगामी चुनाव में देखने को मिलेगा।