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Friday, 31 January 2014

माफ़ी मांगे केजरीवाल वरना मानहानि का केस

दिल्ली के मुख्यमंत्री द्वारा ख़ुद को भ्रष्ट बताए जाने पर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी भड़क गए हैं. उन्होंने केजरीवाल को चेतावनी दी है कि अगर उन्होंने तीन दिन के भीतर माफी नहीं मांगी तो वह उन पर मानहानि का केस ठोकेंगे.
 

उल्लेखनीय है कि केजरीवाल ने शुक्रवार को राहुल गांधी, पी चिदंबरम, मुलायम सिंह यादव, मायावती और गडकरी समेत कई नेताओं को भ्रष्ट बताते हुए उन्हें लोकसभा चुनाव में हराने की बात कही थी. गडकरी के अलावा कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने भी केजरीवाल पर निशाना साधा है. उन्होंने कहा कि केजरीवाल की नजर में सब बेईमान हैं.

इन्हें बताया भ्रष्ट
केजरीवाल ने जिन नेताओं को भ्रष्ट बताया, उनमें ज्यादातर नेता कांग्रेस के हैं. इनमें राहुल गांधी, सुशील कुमार शिंदे, पी चिदंबरम, सलमान खुर्शीद, कपिल सिब्बल, नवीन जिंदल, मायावती, मुलायाम सिंह यादव, सुरेश कलमाड़ी, नितिन गडकरी, प्रफुल्ल पटेल, अनंत कुमार, वीरप्पा मोइली, एचडी कुमार स्वामी, कनीमोझी, अलागिरि, जीके वासन, अनु टंडन, जगन मोहन रेड्डी, पवन बंसल, फारुख अब्दुल्ला, अवतार सिंह भड़ाना, अनुराग ठाकुर, शरद पवार, ए राजा और तरुण गोगोई को भ्रष्ट बताया. केजरीवाल ने अपील करते हुए कहा कि जनता इन नेताओं के खिलाफ वोट करे.

Thursday, 30 January 2014

1984 दंगा : राजीव ने नहीं उठाया फोन

 उपाध्यक्ष राहुल गांधी के सिख दंगों पर दिए गए बयान के बाद कांग्रेस की मुश्‍किलें बढ़ती जा रही है. एक निजी चैनल में अब पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के तत्कालीन प्रेस सचिव ने दावा किया कि 1984 दंगों के समय जैल सिंह प्रधानमंत्री राजीव गांधी से बात करना चाहते थे मगर उन्होंने फोन नहीं उठाया. उल्लेखनीय है कि राहुल गांधी ने एक अंग्रेजी न्यूज चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा था कि दिल्ली में सिखों के खिलाफ भड़के दंगों को रोकने में कांग्रेस सरकार ने जो भी संभव था किया.
हालांकि उन्होंने कहा कि दंगों में कुछ कांग्रेसियों का हाथ भी हो सकता है. जैल सिंह के प्रेस सचिव रहे त्रिलोचन सिंह ने बुधवार को सिख दंगों और वर्ष 2002 के गुजरात दंगों की तुलना करते हुए गुजरात दंगों को तत्क्षण बताया यानी ये तुरंत ही भड़के थे. उन्होंने कहा कि पुलिस ने गुजरात दंगों को रोकने की की कोशिश की जिसमें पुलिस फायरिंग में 137 लोगों की मौत हो गई जबकि दिल्ली में इस कार्रवाई में सिर्फ एक व्यक्ति की जान गई. उन्होंने एक अंग्रेजी अखबार को दिए इंटरव्यू में यह बात कही है.उन्होंने बताया कि इंदिरा गांधी को सुबह गोली मारी गई लेकिन पहले दंगे शाम को हुए. ज्ञानीजी ने खुद यह जानकारी जुटाई की राजीव के कोलकाता से लौटने से पहले ही कांग्रेस नेताओं की एक बैठक हुई जिसमें खून का बदला खून का नारा देने की बात तय हुई. उन्होंने कहा कि अगर ये दंगे तुरंत ही भड़के होते तो सुबह ही हो जाते. उन्होंने आरोप लगाया कि दंगा रोकने की गंभीर कोशिश नहीं की गई जिससे दंगे होते रहे. 

हमवतन में छपा आलेख


वामदलों और आम आदमी पार्टी के बीच पक रही राजनीतिक खिचड़ी

कांग्रेस के खिलाफ बने माहौल में जिस तरह से भाजपा बढ़ रही थी, उसमें सबसे ज्यादा परेशान वामपंथी दल थे. उन्हें ज्यादा परेशानी इस बात को लेकर थी कि यदि केंद्र में भाजपा की सरकार बनीं तो ममता बनर्जी भागीदार हो जाएगी और उनकी राजनीति दस साल पीछे जा सकती है लेकिन जैसे ‘आप’ के प्रति लोगों में रूझान दिखा उससे वामपंथी खेमे को अंधेरे में उम्मीद की किरण दिखाई दे गई. उसके बाद से ‘आप’ को लेकर वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोगों की सक्रियता बढ़ गई.

वामदलों और आम आदमी पार्टी के बीच राजनीतिक खिचड़ी पक रही है. दरअसल, इसमें दोनों दलों के अपने-अपने हित सध रहे हैं. दिल्ली की कुर्सी मिलने के बाद ‘आप’ का मन केंद्रीय सत्ता में आने के लिए मचल रहा है. वहीं इस रणनीति के माध्यम से वामपंथी धड़ा तृणमूल कांग्रेस की राह में स्पीड ब्रेकर बनकर पश्चिम बंगाल में अपनी खोई राजनीतिक जमीन हासिल करना चाहता है.
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कम्युनिस्टों के साथ सटना ‘आप’ को इसलिए सुहा रहा है क्योंकि केंद्रीय स्तर पर लॉबिंग के लिए एक अहम मध्यस्त की उन्हें भी जरूरत है. वाम दलों की निगाहों आम आदमी पार्टी पर टिकी हुई हैं. सबसे बड़े वामपंथी दल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात कहते हैं, “दिल्ली में अल्पमत सरकार बनाने वाली ‘आप’ पर अभी कोई राय बनाना बहुत जल्दबाजी है. लेकिन यह अच्छी बात है कि ‘आप’ को मध्य वर्ग से अच्छा सहयोग मिला है. हम उनसे उनके कार्यक्रमों और नीतियों का इंतजार कर रहे हैं.” प्रकाश करात ने अपने इस बयान से यह जाहिर कर दिया है कि उन्हें ‘आप’ का इंतजार है.

.वामपंथी खेमे में बाहर से जितना सन्नाटा दिखाई दे रहा है, अंदर उतनी ही हलचल चल रही है. कांग्रेस के पराभव को देखते हुए वामपंथी दलों को जिस तरह की राजनीतिक सीढ़ी की तलाश थी, वह ‘आप’ के रूप में पूरी हो गई है. आप को आगे कर वामपंथी दल राजनीतिक तिराहा बनाने की जुगत भिड़ा रहे हैं. इससे उनके दो मकसद हल हो रहे हैं. पहला भाजपा को केंद्रीय सत्ता में आने से रोकने का और दूसरा तृणमूल कांग्रेस को घेरना का. वामपंथी दल जानते हैं कि केंद्रीय मदद के बगैर पश्चिम बंगाल सरकार ज्यादा दिन तक मजबूती से खड़ी नहीं रह पाएगी, क्योंकि उसकी आर्थिक हालात काफी नाजुक है.

32 साल के शासन के कारण उन्हें राज्यकोषीय नब्ज पता है. उन्हें ये भी मालूम है कि ममता बनर्जी को यदि पटखनी देनी है तो उसे राज्य की बजाए केंद्रीय स्तर पर झटका देना ज्यादा उचित होगा, क्योंकि राज्य में इस समय वामपंथी दलों के खिलाफ उसी तरह का माहौल है, जैसे देशभर में कांग्रेस के विरूद्ध. बड़े रणनीतिक तरीके से कम्युस्टिों की एक टीम आम आदमी पार्टी के भीतर जाकर उनकी राजनीति को संचालित करने लगी है. ‘आप’ देश में अलग मिजाज के दल के रूप में अपनी छवि बना रहा है. उसकी कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों से दूरी बनाकर चलना और क्षेत्रीय दलों को “छूने से परहेज” उसी रणनीति का हिस्सा है. दरअसल, ‘आप’ के नेताओं को पता है कि वामपंथी दल के नेताओं का क्षेत्रीय दलों के साथ अच्छा संबंध है.




Saturday, 25 January 2014

भ्रष्टाचार है कैंसर

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने शनिवार को सरकारों को सचेत किया कि देश की जनता भ्रष्टाचार को लेकर गुस्से में है और अगर इसे खत्म नहीं किया गया तो मतदाता उन्हें हटा देंगे। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में मुखर्जी ने कहा कि भ्रष्टाचार ऐसा कैंसर है, जो लोकतंत्र को कमजोर करता है तथा राज्य की जड़ों को खोखला करता है। यदि भारत की जनता गुस्से में है तो इसका कारण है कि उन्हें भ्रष्टाचार तथा राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी दिखाई दे रही है। अगर सरकारें इन खामियों को दूर नहीं करतीं तो मतदाता उन्हें हटा देंगे।

राष्ट्रपति ने कहा कि सार्वजनिक जीवन में पाखंड का बढ़ना भी खतरनाक है। चुनाव किसी व्यक्ति को भ्रांतिपूर्ण अवधारणाओं को आजमाने की अनुमति नहीं देते हैं। जो लोग मतदाताओं का भरोसा चाहते हैं उन्हें केवल वही वादा करना चाहिए जिन्हें पूरा करना संभव है। उन्होंने कहा कि सरकार कोई परोपकारी निकाय नहीं है। लोक-लुभावन अराजकता शासन का विकल्प नहीं हो सकती। झूठे वादों की परिणति मोहभंग में होती है जिससे क्रोध भड़कता है तथा इस क्रोध का एक ही स्वाभाविक निशाना होता है सत्ताधारी वर्ग।
मुखर्जी ने कहा कि मैं निराशावादी नहीं हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि लोकतंत्र में खुद में सुधार करने की विलक्षण योग्यता है। यह ऐसा चिकित्सक है, जो खुद के घावों को भर सकता है और पिछले कुछ वर्षों की खंडित तथा विवादास्पद राजनीति के बाद 2014 को घावों के भरने का वर्ष होना चाहिए।
उन्होंने कहा कि पिछले दशक में भारत विश्व की सबसे तेज रफ्तार से बढ़ती एक अर्थव्यवस्था के रूप में उभरा है। देश की अर्थव्यवस्था में पिछले 2 वर्षों में आई मंदी कुछ चिंता की बात हो सकती है, परंतु निराशा की बिलकुल नहीं। फिर सुधार की हरी कोंपलें दिखाई देने लगी हैं। इस वर्ष की पहली छमाही में कृषि विकास की दर बढ़कर 3.6 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था उत्साहजनक है।
राष्ट्रपति ने कहा कि वर्ष 2014 हमारे इतिहास का चुनौतीपूर्ण समय है। हमें राष्ट्रीय उद्देश्य तथा देशभक्ति के उस जज्बे को फिर से जगाने की जरूरत है, जो देश को अवनति से उठाकर उसे वापस समृद्धि के मार्ग पर ले जाए। युवाओं को रोजगार दें। वे गांवों एवं शहरों को 21वीं सदी के स्तर पर ले आएंगे। उन्हें एक मौका दें और आप उस भारत को देखकर दंग रह जाएंगे जिसका निर्माण करने में वे सक्षम हैं।
मुखर्जी ने कहा कि यदि भारत को स्थिर सरकार नहीं मिलती तो यह मौका नहीं आ पाएगा। इस वर्ष हम अपनी लोकसभा के 16वें आम चुनावों को देखेंगे। मुखर्जी ने कहा कि इससे पहले कि मैं हमारे स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर आपको फिर से संबोधित करूं, नई सरकार बन चुकी होगी। आने वाले चुनाव को कौन जीतता है यह इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह बात कि चाहे जो जीते उसमें स्थायित्व, ईमानदारी तथा भारत के विकास के प्रति अटूट प्रतिबद्धता होनी चाहिए। हमारी समस्याएं रातोंरात समाप्त नहीं होंगी।

कब आएगा गणतंत्र


26 जनवरी को हम देश के लिए अपने प्राण की आहुति देने वाले शहीदों को याद करना नहीं भूलते, लेकिन उनके लिए या उनके नाम पर बनाये गए स्मारक व पार्क कहीं न कहीं हम भूलते जा रहे हैं| अगर जब इस ख़ास इन देश के लिए कुर्बानी देने वाले शहीदों को याद नहीं किया जाता तो अन्य दिन क्या हम उन्हें याद करेंगे? इस बारे में तो सोचने का कोई मतलब ही नहीं बनता| हम बहुत ही तेज़ी से आधुनिकता की तरफ बढ़ते जा रहे, जिसके चलते हमारी सोच और रहन-सहन का तरीका भी बदलता जा रहा है| लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि इस होड़ में उतनी ही तेजी से हमारे अंदर की देश प्रेम की भावना भी खत्म होती जा रही है| सैकड़ो वर्षों की गुलामी के बाद 26 जनवरी 1950 में भारत में गणतंत्र का पौधा रोपा गया| इस बार हम 64वां गणतंत्र मना रहे है| यह दिन इसलिए विशेष है क्योंकि इसी दिन हमारा संविधान लागू हुआ था, लेकिन क्या हम असल मायने में आज भी अपने संविधान को पूरी तरह से अपना पाए है? उस पर अमल कर पाए है? यह बात सोचने वाली है| अंग्रेजों की सैकड़ों वर्ष की गुलामी और हजारों बलिदान के बाद इस दिन हमने अपने भारत को संवैधानिक रूप से पा लिया था| बस तभी से देशवासी इसे पूरा हर्षोल्लास के साथ मानते हैं| लेकिन अगर देखा जाये तो आज हमारी बदलती मानसिकता के साथ इस दिन के मायने भी बदलते जा रहे हैं|
वर्ष 1950 का 26 जनवरी का दिन| डॉ. राजेन्‍द्र प्रसाद ने गवर्नमेंट हाउस के दरबार हाल में भारत के प्रथम राष्‍ट्रपति के रूप में शपथ ली और इसके बाद राष्‍ट्रपति का काफिला 5 मील की दूरी पर स्थित इर्विन स्‍टेडियम पहुंचा जहां उन्‍होंने राष्‍ट्रीय ध्‍वज फहराया| भारतीय इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण दिन के रूप में इस दिन को भारत के संविधान था में से एक है बल में आया है और भारत वास्तव में एक संप्रभु राज्य बना| इस दिन भारत में एक पूरी तरह से रिपब्लिकन इकाई बन गई|तो यह जो भी सविधान बना इसमे कहा गया आम आदमी को बराबरी का दर्जा उपलब्ध होगा| आज भी लोग कहते मिल जायेंगे उनके साथ कानून का ही खिलवाड़ किया गया| उन्हें न जाने किन किन अपराधों में जिन्हें उन लोगो ने नहीं किया उसकी सजा दी गयी| उनके लिए आज भी गणतंत्र प्रासंगिक ही है| देश में आज जिधर देखो उधर ही कभी राजनीतिक तो कभी प्रशासनिक उत्पीडन का शिकार होना पद रहा है| एक बार आम आदमी को इस गणतंत्र से किसी न्याय की आपेक्षा मखौल उडाता ही मिल रहा है|देश के न जाने कितने भागों में आज भी विकास की रह देखि जा रही है, कही भी यथोचित कागजी विकास के अलावा ज्यादा कुछ भी देखने को नहीं मिल रहा है| इस विकास की धनराशी को नेता और प्रशासन चलने वाले ही मिल बात कर खा रहे है| कोई भी कुछ कर सकने में सक्षम नहीं है| जिसका हक़ मारा जा रहा है वह भी रोज कमाने खाने वाले ही है, भला उनकी कहाँ हिम्मत है किसी का विरोध या कानून की जटिल प्रक्रिया से दो चार हो सके| ऐसे में हम केवल गणतंत्र मना ही सकते है, ज्यादा कुछ कर नहीं सकते|
अगर देखा जाए तो 26 जनवरी का हमारी जिंदगी में बहुत महत्व है पर वह महत्व भी जैसे किताबों तक ही सीमित रह गया है| अब गणतंत्र दिवस को राष्ट्रीय उत्सव कहना भी एक मजाक सा प्रतीत होने लगा है| इस दिन राजकीय अवकाश तो घोषित है, लेकिन यह अवकाश किस लिए घोषित किया गया है इस बात की जानकारी आज भी आजाद भारत के आजाद नागरिक को पूरी तरह नहीं है| इसे हम सरकार की असफलता ही कहेंगे कि 63 साल बाद भी उसका राष्ट्रीय उत्सव देश के आम आदमी तक नहीं पहुंच पाया है। आम आदमी जब इसके महत्व को ही नहीं समझ पाए तो वह उत्साह कैसे मनाएंगे| यकीनन आज भारत अंग्रेजों से तो आजाद हो गया है लेकिन किसी और मायने में गुलामी की जंजीरों में कैद होता जा रहा है|
गणतंत्र दिवस को यदि संविधान स्थापना समारोह के रूप में मनाया जाए तो फिर भी सही है। परंतु इसे राष्ट्रीय उत्सव कहना उचित नहीं लगता। जो उत्सव देश के आम आदमी को उत्साहित नहीं करता उसे राष्ट्रीय उत्सव कैसे कहें। अब तो ऐसा लगता है कि यह दिन महज एक कागजी तौर पर हमारे सामने छुट्टी का दिन बनकर रह गया है| इस साल की तरह हर साल यह दिन आयेगा और चला जायेगा और हम सिवाए बड़ी-बड़ी बातों के कुछ नहीं कर पाएंगे| आज हम अपनी ही उलझनों में इतने उलझ गए है कि हमारे पास इन सब के लिए समय ही नहीं है|आज भी इस देश में इन्सान भूख से मर रहा है | किसान फसल न होने पर उत्पीडन के चलते मर रहा है, भला इनके लिए कैसा गणतंत्र है| इनकी तो भूंख ही गणतंत्र है और भोजन ही इनकी मुख्य आवश्यकता है| भला एक मजदूर मजदूरी नहीं करेगा तो खायेगा, गणतंत्र दिवस मनायेगा तो भूखो उसका परिवार मर जतेगा| आज भी मनरेगा किसे कांग्रेस अपनी उपलब्धि मानती है उसे कैसे सभी लूट रहे है सभी ने देखा ही है| स्वास्थ्य बीमा योजना को तो ऐसा बिमा कंपनी ने ही छला जिसकी कोई भी बानगी ही नहीं मिलती| यह योजना भी अस्पतालों व बिमा कंपनियों के कर्मचारियों के सीधे लूट का साधन बन गयी और गुणवत्ता सभी मिलकर खा गए| इलाज के नाम पर एक अलग तरीके का ही बर्ताव किया जा रहा है| जब तक समाज या देश के निम्न आय वर्ग के व्यक्ति तक विकास की वास्तविक धन नहीं पहुचेगा तब तक कैसा गणतंत्र| भारत के सरकार जिस पार्टी की है उसी के कारिंदे ही स्वीकार करते है की देश के आखिरी आदमी तक विकास का धन ही नहीं पहुच रहा है| अर्थात वह आज भी भूखा है और उसके जीवन में कोई भी परिवर्तन नहीं देखने को मिल रहा है| तब समझो यह गणतंत्र आम आदमी के किस लायक है| अब तो दूसरे गणतंत्र की, जिसमे आम आदमी की भागीदारी हो की जरूरत महशूस ही होगी| आम आदमी का गणतंत्र कब आएगा यह तो समय ही बताएगा|

Wednesday, 22 January 2014

आप की नौटंकी


अन्ना हजारे के करीबी सहयोगी जस्टिस संतोष हेगड़े ने ठीक कहा है कि ‘आप’ की सरकार बनी तो खुश था, अब निराश हूं। यह देश के हम जैसे करोड़ों लोगों की भावना का प्रतिबिंब है। संतोष हेगड़े कहते हैं कि किसी की ओर से धारा 144 का उल्लंघन किया जाना गैरकानूनी है, चाहे वह मुख्यमंत्री ही क्यों न हों? पुलिस प्रशासन के नियंत्रण को लेकर कोई विवाद है, तो बातचीत के जरिए या कोर्ट जाकर मसले को सुलझाया जा सकता है। इनके अलावा, कांग्रेस-भाजपा सहित कई दूसरे दलों के लोग भी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के हालिया धरना-प्रदर्शन को ‘नौटंकी’करार देने से बाज नहीं आते। हालांकि, ‘आप’ के संयोजक दिल्ली के मुख्यमंत्री अरिवंद केजरीवाल कहते हैं कि देश की राजनीति बदल गई है। कांग्रेस, भाजपा और मीडिया वाले भी समझ लें कि अब राजनीति ऐसी ही होगी। जिसे आप नौटंकी कह रहे हैं वही असली जनतंत्र है। इन लोगों को समझना चाहिए कि देश का पॉलिटिकल डिस्कोर्स बदल रहा है। शहर में इतने अपराध को सहन नहीं किया जाएगा।

वहीं, दूसरी ओर कुछ लोगों का यह भी कहना है कि सच तो यह भी है कि ‘आप’ के नेताओं के उत्साह की दाद देनी होगी, क्योंकि मंत्री लोग पुलिस के काम में अक्सर हस्तक्षेप तभी करते हैं, जबकि उन्हें उससे कोई गलत काम करवाने होते हैं (जैसा कि पूर्व गृह सचिव ने गृहमंत्री पर आरोप लगाया है) जबकि ‘आप’ के मंत्री सही काम के लिए दखलंदाजी कर रहे थे। लेकिन यहां मूल प्रश्न यह है कि सही काम के लिए क्या सही तरीका अपनाया गया था? यदि तरीका गलत हो तो सही काम भी खटाई में पड़ जाता है। यह गलती उत्साह के आधिक्य और अनुभव की कमी के कारण हुई है। इसके अलावा ‘आप’ की सरकार से कोई पूछे कि कोई सेनापति सीमांत पर पहुंचकर गोलियां दागता है, क्या? क्या उसे अपने जवानों पर विश्वास नहीं है? यदि आपको अपनी पुलिस और अफसरों पर विश्वास नहीं है तो आप सरकार कैसे चलाएंगे? क्या अपराधियों को पकड़वाने के लिए मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री रात भर गलियों के चक्कर लगाते रहेंगे? यदि हां तो दिन में सरकार कौन चलाएगा? सरकार चलाना और आंदोलन चलाना, दो अलग-अलग बाते हैं। इसके अलावा अफ्रीकी महिलाओं के साथ जो दुर्व्यवहार हुआ और उनकी जांच के नाम पर अस्पताल में उनकी जो बेइज्जती हुई, उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा? अफ्रीकी देशों के अखबारों में भारत की बदनामी का खामियाजा कौन भुगतेगा? यह सरकार तो दिल्ली प्रदेश की है लेकिन बदनामी पूरे भारत की हो रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि डेनमार्क की महिला के साथ हुए बलात्कार की खबर को दबाने के लिए यह स्वांग रचा गया था? यदि ऐसा है तो आम आदमी पार्टी जल्दी ही अपने आपको आम नौटंकी पार्टी बना लेगी।
हालिया धरना-प्रदर्शन और उसकी समाप्ति को लेकर भी कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं।
बहुत अधिक दिन नहीं बीते हैं। चंद सप्ताह पहले की बात है। आम आदमी पार्टी की सदस्यता लेने के लिए लोग उमड़ से पड़े थे और अब हालात कुछ ऐसे हैं कि 'आप' के प्रचंड समर्थक भी कह रहे हैं कि उनका नेतृत्व जरूरी मुद्दों से भटक रहा है। बीते दिनों 'आप' में शामिल होने वाले महत्वपूर्ण लोगों में से एक कैप्टन जीआर गोपीनाथ ने भी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के तौर तरीकों की कड़ी आलोचना की है। विमानन क्षेत्र की कंपनी एयर डक्कन के संस्थापक कैप्टन गोपीनाथ को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने सस्ती विमानन सेवा मुहैया कराकर भारत के आम आदमी को हवाई यात्रा कराई। "'आप' में हाल में शामिल हुए सदस्य इस बात को लेकर फिक्रमंद हैं कि पार्टी विकास विरोधी और कम्युनिस्ट समर्थक करार दिए जाने के खतरे की कीमत पर चलाई जा रही है। 'आप' के कट्टर समर्थक रहे मध्य वर्ग के पढ़े लिखे लोगों का समर्थन खोने का भी खतरा है, जिन्होंने इसे सत्ता में पहुँचाया।
ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि  अगर ह्यआपह्ण  (जो बार-बार उसके मंत्री या नेता सत्ता में आने के पहले कहते रहे हैं) पहले की कांग्रेसी सरकार पर, जिन आरोपों की सीढ़ी चढ़ कर सत्ता में आयी, उसे खुलासा कर, शीला दीक्षित, कांग्रेस सरकार या भाजपा के दोषी लोगों को जेल पहुंचाये, तो एक नयी शुरूआत होगी। यह मूल काम छोड़ कर ह्यआपह्ण अपनी सरकार को शहीद बनाने के लिए यह आंदोलन अगर चला रही है, तो देश की राजनीति में जो उम्मीद की किरण पैदा हुई है, वह धुंध में बदल जायेगी। ह्यआपह्ण  की विफलता,  देश में बदलाव के सपनों को ही आनेवाले कई दशकों के लिए खत्म कर देगी। आज जब भारत को बचाने-मजबूत बनाने के लिए दिल्ली में मजबूत सरकार चाहिए, तब यह अराजकता देश को कहां पहुंचायेगी?
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के धरने को खत्म करवाने में कुछ खास लोगों ने भूमिका निभाई। इस धरने को लेकर एक हद तक अड़ गए केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे और केजरीवाल के बीच 'समझौता' करवाने में दिल्ली के उपराज्यपाल और पुरानी दिल्ली के वाशिंदे नजीब जंग को ही आखिर आगे आना पड़ा। 21 जनवरी की रात में जिस तरह से धरना अचानक खत्म हुआ है, उससे साफ है कि शहर में गंभीर तनाव का कारण बन रहे इस धरने को खत्म करवाने में पर्दे के पीछे कुछ लोगों ने अपना रोल जरूर अदा किया है। मुख्यमंत्री केजरीवाल इससे पूर्व सुबह तक गृह मंत्री शिंदे की नींद उड़ाने की बात कर रहे थे। इसके अलावा उन्होंने यह भी धमकी दी थी कि अगर हमारी मांगें नहीं मानी गईं, तो आम आदमी पार्टी के लाखों कार्यकर्ता रेल भवन पर पहुंच जाएंगे। लेकिन दिन चढ़ते-चढ़ते मामला बदलने लगा और दोपहर बाद पुलिस और पार्टी कार्यकर्ताओं की भिड़ंत और उसके बाद उपजे हालात और कुछ खास लोगों की इस धरने को खत्म करवाने की पहल ने सारा तनाव खत्म करा दिया और शाम ढलते ही केजरीवाल ने धरना वापस लेने की घोषणा कर डाली। इस मामले में पुरानी दिल्ली के मटियामहल से विधायक शोएब इकबाल और आम आदमी पार्टी के एक पदाधिकारी ने मध्यस्थता की भूमिका अदा की। बताते हैं कि कड़ी पुलिस व्यवस्था के कारण आम लोगों के धरना स्थल तक न पहुंचने, पुलिस और आप कार्यकर्ताओं र्ओं के विरोध और मीडिया द्वारा धरने के खिलाफ रिपोर्टिंग के बाद आम आदमी पार्टी के 'दिमागदार' लोग खासे 'विचलित' हो गए। इससे पूर्व पार्टी नेताओं की विधायक और अपनी पार्टी के पदाधिकारी द्वारा धरने को खत्म करने को लेकर उपराज्यपाल नजीब जंग से बातचीत चल रही थी। असल में शोएब इकबाल इसलिए बीच में आए, क्योंकि कुछ दिन पूर्व वह ‘आप’ में शामिल होने का संकेत दे चुके थे। इस कवायद के बीच उपराज्यपाल ने गृह मंत्री से मामले को सुलझाने की गुजारिश की, जिसके बाद दो पुलिस आॅफिसरों को छुट्टी पर भेजने का निर्णय लिया गया। खास बात यह रही कि इस सुलझते मामले की सूचना देने के लिए दोपहर करीब 3 बजे शोएब इकबाल धरनास्थल पर पहुंचे। उन्होंने मामले की सारी जानकारी आप टीम को बताई। इसके बाद आप टीम ने प्रेस क्लब में बैठक कर धरना खत्म करने पर विचार किया। मामले को आगे बढ़ाने के लिए उपराज्यपाल ने शाम करीब 7 बजे अरविंद केजरीवाल से गणतंत्र दिवस की सुरक्षा को देखते हुए धरना खत्म करने की अपील की और यह भी बताया कि दो पुलिस आॅफिसरों मालवीय नगर के एसएचओ और पहाड़गंज के पीसीआर ड्यूटी इंचार्ज को अवकाश पर भेजा जा रहा है। इतना होने के कुछ देर बाद केजरीवाल ने धरनास्थल पर ही अपना धरना खत्म करने की घोषणा की। माना जा रहा है कि 'पुरानी दिल्ली के लोग' अगर धरने को लेकर अगर पहल न करते तो धरना आगामी दिनो में बवाल का कारण बन सकता था।

Wednesday, 15 January 2014

झूठ बोल रहे हैं केजरीवाल

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की अरविंद केजरीवाल सरकार आज एक नई मुश्किल में फंस गई है। पार्टी के विधायक विनोद कुमार बिन्नी फिर से नाराज हो गए हैं। उन्होंने कहा है कि दिल्ली सरकार अपने मुद्दे से भटक गई है और कल वे इस मुद्दे पर प्रेस कांफ्रेंस करेंगे। गौरतलब है कि सरकार गठन के दौरान भी बिन्नी मंत्री न बनाए जाने से नाराज हो गए थे जिन्हें मशक्कत के बाद मनाया गया था। बताया जाता है कि बुधवार की शाम को अरविंद केजरीवाल ने अपने सारे विधायकों के साथ मीटिंग की थी पर किसी ने कुछ नहीं कहा, बिन्नी ने भी। पार्टी ने इस बात का फैसला ले लिया है कि कोई भी विधायक लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेगा। इसके बाद ही बिन्नी का ये तेवर दिखाना माना जा रहा है कि लोकसभा चुनाव का टिकट न मिलने का नतीजा है।
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी कहा कि बिन्नी पहले मेरे पास आए थे मंत्री पद के लिए। अब वो आए थे लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए। हमने सीधा कहा है कि किसी भी एमएलए को लोकसभा का टिकट नहीं देंगे। अब वे किन बातों पर नाराज हैं ये खुद बताएं।
केजरीवाल के बयान पर विनोद कुमार बिन्नी भड़क उठे और कहा कि लोकसभा का टिकट लेने की बात नहीं हुई थी। अगर उन्होंने ऐसा कहा हो तो वो सबसे बड़े झूठे हैं। वो भगवान की कसम खाएं। अगर वो बयान दिया है तो वो 100 प्रतिशत झूठ बोल रहे हैं। इससे घिनौना स्टेटमेंट नहीं हो सकता है। आप मुद्दों पर बात करें। मैंने टाइम मांगा था लेकिन टाइम नहीं दिया गया। कल 10 बजे खुलासा हो जाएगा। पार्टी का सच्चा सिपाही हूं। पार्टी छोड़ने का सवाल ही नहीं हैं। पार्टी से निकाला जाना तानाशाही होगा। सच्चाई कहने पर अगर किसी को निकाला जाता है तो लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं। जब जब सरकार की कथनी करनी में अंतर होगा तब-तब बिन्नी आंदोलन करेगा।
इससे पहले बिन्नी ने कहा कि जो मुद्दे हमने जनता के बीच कहे थे, और आज के परिदृश्य में काफी अंतर आ गया है। मेरी नाराजगी पहले दिन भी वही थी, जो आज है। उन्होंने कहा कि उन्हें मंत्री न बनने का कोई मलाल नहीं है। लेफ्टिनेंट गवर्नर को भावी मंत्रियों की जो लिस्ट भेजी गई थी उसमें उनका नाम था लेकिन उन्होंने खुद जाकर अपना नाम कटवाया था। बिन्नी ने कहा कि मैं सिर्फ पार्टी से मुद्दों के आधार पर जुड़ा था। जिन मुद्दों पर पार्टी बनी थी उससे वो भटक रही है। पार्टी से नहीं, सरकार से नाराजगी है। सरकार अपने मुद्दों से भटक रही है। ये मामला मनाने और रुठने का नहीं है। अगर वायदों से भटकते हैं तो जनता के साथ छल हो रहा है। इसके लिए अगर होगा तो भूख हड़ताल करेंगे।
उधर, आम आदमी पार्टी ने भी बिन्नी को मनाने की बजाय उनपर सख्त रुख दिखाया है। पार्टी सूत्रों ने कहा कि व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं वाले लोगों के लिए पार्टी में कोई स्थान नहीं है। कोई जाना चाहता है, तो जाए। बिन्नी ने पार्टी से बात नहीं की। मीडिया के जरिए पार्टी से बात करना गलत है। पार्टी इसका संज्ञान लेकर उन्हें नोटिस जारी कर सकती है।
 आम आदमी पार्टी एक बार फिर बगावत का सामना कर रही है और इस बार यह बगावत पहले से बड़ी है। पार्टी लोकसभा चुनाव के लिए कमर कस चुकी है। 20 जनवरी तक उम्‍मीदवारों की पहली लिस्‍ट जारी करने का एलान भी कर दिया है। ऐसे में बगावत होना पार्टी की राह में रोड़े खड़े कर सकता है।

पार्टी के वरिष्‍ठ नेता योगेंद्र यादव ने कहा कि आम चुनाव में उनकी पार्टी का मुख्‍य मुकाबला भाजपा से होगा। अभी तक कराए गए विभिन्‍न सर्वेक्षणों में 'आप' को अच्‍छी सफलता मिलने की भविष्‍यवाणी की गई है। 'आप' ने 26 जनवरी तक एक करोड़ सदस्‍य बनाने के लिए अभियान भी चला रखा है। पार्टी हर वर्ग को आकर्षित करने के लिए नए तरीके अपना रही है। इसी क्रम में दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री और 'आप' के संयोजक अरविंद केजरीवाल मंगलवार को मिलन-उन-नबी के अवसर पर मस्जिद भी गए। सिविल सोसायटी के सदस्‍य भी बड़ी संख्‍या में 'आप' के साथ जुड़ रहे हैं, लेकिन इन सभी बातों के बावजूद 'आप' के भविष्‍य को लेकर सवाल उठ रहे हैं। कुछ विश्‍लेषक ऐसा भी कह रहे हैं कि 'आप' कुछ समय के बाद बिखर जाएगी। इसके पीछे कई कारण गिनाए जा रहे हैं। इनमें सबसे प्रमुख हैं- नेतृत्‍व का अभाव, विचारधारा न होना, आंदोलन से जुड़े लोगों की अपनी विचारधारा, सिर्फ भ्रष्‍टाचार की बात करना और राष्‍ट्रीय एजेंडा न होना। इन्‍हीं कारणों की वजह से 'आप' में शामिल हुए सभी लोग अपना-अपना एजेंडा लेकर काम कर रहे हैं। प्रशांत भूषण कश्‍मीर में जनमत संग्रह की बात कर रहे हैं तो कुमार विश्‍वास अमेठी में जाकर पार्टी के सिद्धांतों से अलग वन-मैन आर्मी की तरह काम कर रहे हैं। ये सभी ऐसे मुद्दे हैं, जिनके जवाब 'आप' के पास नहीं हैं। ऐसा हो सकता है कि 2014 लोकसभा चुनाव में पार्टी को सफलता मिले, लेकिन 'आप' ने अगर पार्टी को संगठित रखने के तरीके और नेतृत्‍व पर जोर नहीं दिया तो यह बिखर सकती है या यूं कहें कि 'आप' प्रासंगिकता खो देगी।
आम आदमी पार्टी की स्‍थापना लगभग 13 महीने पहले की गई। दिसंबर 2013 में दिल्‍ली विधानसभा चुनाव में 'आप' को 70 विधानसभा सीटों में से 28 पर विजय हासिल हुई। अरविंद केजरीवाल पार्टी के संयोजक हैं और इसमें शक नहीं है कि वह 'आप' का एकमात्र ऐसा चेहरा हैं, जो सर्वामान्‍य हैं, लेकिन मौजूदा दौर में वह दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री के तौर पर सक्रिय हैं और राष्‍ट्रीय मुद्दों से लगभग किनारा किए हुए हैं। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि लोकसभा चुनाव में 'आप' का राष्‍ट्रीय चेहरा कौन होगा? यह सवाल गंभीर इसलिए भी हो जाता है, क्‍योंकि केजरीवाल लोकसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर चुके हैं। हालांकि, पार्टी के पास योगेंद्र यादव के रूप में एक अन्‍य विकल्‍प है, लेकिन नेतृत्‍व के प्रश्‍न पर वह पहले ही हाथ खड़े हो चुके हैं और संगठन के लिए कार्य कर रहे हैं। इसके अलावा सवाल राज्‍यों में नेतृत्‍व का प्रश्‍न भी 'आप' के सामने बना हुआ है। कर्नाटक में पार्टी की संभावनाएं अच्‍छी है, लेकिन वहां कोई एक चेहरा नहीं है। गुजरात में 'आप' के सदस्‍यों की संख्‍या डेढ़ लाख से ज्‍यादा हो चुकी है, लेकिन चेहरा नहीं है। दिल्‍ली से सटे उत्‍तर प्रदेश में भी नेतृत्‍व का प्रश्‍न खड़ा है। राजस्‍थान, मध्‍य प्रदेश, महाराष्‍ट्र, केरल, पश्चिम बंगाल किसी भी राज्‍य को लीजिए पार्टी के पास कोई विकल्‍प नहीं है। सिर्फ दिल्‍ली ही ऐसी जगह है, जहां पर पार्टी के पास केजरीवाल का नेतृत्‍व है और यहां पार्टी का प्रभाव बना हुआ है।
हम यह कह रहे हैं तो इसके पीछे न कोई विरोधियों का आरोप है और न ही किसी बेजा लांछन लगाने वाले की केजरीवाल के खिलाफ साजिश। दरअसल, केजरीवाल फंस चुके हैं अपनी ही बातों में। अब जवाब केजरीवाल को देना है कि वो उस दिन गलत तथ्य पेश कर लोगों को गुमराह कर रहे थे या अब कर रहे हैं? क्योंकि तब उन्होंने बिन्नी के मंत्री पद न मांगने की बात कही थी जबकि अब कह रहे हैं कि बिन्नी मंत्री पद मांग रहे थे। राजनीति में ऐसी बातें अकसर चलती रहती हैं। नेता सुविधा के हिसाब से बयान देते हैं और पलट भी जाते हैं लेकिन आप राजनीति की अलग धारा की बात करती है। सुचिता और सच्चाई की बातें करती है। लिहाजा उन्हें यह आईना जरूर देखना होगा और फिर से सोचना होगा कि कितने अलग हैं आप?


Saturday, 11 January 2014

नक्सलियों के सरगना केजरीवाल

कुछ समय से लगातार आम आदमी पार्टी के लोग देश विरोधी बाते करते चले आ रहे हैं जिनमें सबसे आगे प्रशांत भूषण है जो कश्मीर पर अपनी विवादित टिपण्णी को लेकर काफी चर्चा मैं हैं।  शुरुआत मैं तो पार्टी ने कुछनहि कहा लेकिन जनता कि ओर से विरोध होने के बाद से आप आदमी पार्टी अपने बयां से पलट गयी और अब उसे प्रशांत भूषण कि निजी रे बता करअपना पल्ला झाड़ रही है लेकिन सच यही है कि कश्मीर पर आम आदमी पार्टी कि देश विरोधी रुख रखती है। अगर वाकई मैं वे कश्मीर मैं जनमत संग्रह करना चाहते हैं तो पहले वहाँ के हालात सामान्य होने का तथा कश्मीरी विस्थापित पंडितों के पुनर्वास केउचित इतजाम कि माग करते और फिर जनमत कि बात करते।  साफ़ है कि समाज के एक खास वर्ग को खुश करने कि जुगत मैं वे भी कांग्रेस कि तरह ही हैं।
यही नहीं केजरीवाल का नक्सलियों को समर्थन देना एक और देश विरोधी होनेका सबूत है , कल को वो नॉर्थ ईस्ट में मौजूद तमाम आतंकवादियों और अलगाववादियों का भी सरथान करते नज़र आये तो  ज्यादा आश्चर्य कि बात नहीं होगी।
अब जबकि एक तरफ टेलीविज़न पर पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा दो भारतीय सैनिकों के सर काटने के खुले प्रदर्शन का विडियो दिखाया जा रहा है वही दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी द्वारा इस तरफ कि देश विरोधी बाते करना सेना के शहीदों का घोर अपमान है और इससे सेना का मनोबल कमजोर ही होगा।  अभी कुछ दिनों पहले ही टेलीविज़न मैं एक कार्यक्रम के दौरान आई. बी. के एक अधिकारी ने इस बात का खुलासा किया था कि केजरीवाल को नक्सलियों कि तरफ से पैसा मिलता है।
अगर यही हाल चलता रहा और मीडिया आपनी आँख पर पट्टी बांधे आम आदमी पार्टी को इसी तरह समर्थन देती रही तो यह देश के लिए काफी खतरनाक होगा। 

Wednesday, 8 January 2014

पार्टी भले ही बूढ़ी हो, हम तो युवा हैं


लोकसभा चुनाव से पहले देश भर में कांग्रेस की पतली हालत को देखते हुए प्रियंका गांधी भी राजनैतिक रूप से सक्रिय हो गई हैं। मंगलवार को उन्होंने पार्टी के सीनियर नेताओं के साथ करीब डेढ़ घंटे तक मीटिंग की। यह बैठक राहुल गांधी के आधिकारिक निवास 12 तुगलक लेन पर हुई, लेकिन राहुल इसमें मौजूद नहीं थे। 17 जनवरी को एआईसीसी सम्मेलन से ठीक पहले हुई इस बैठक को लेकर पार्टी में खासी गहमागहमी है। चर्चा है कि सम्मेलन में राहुल को पीएम कैंडिडेट बनाया गया तो प्रियंका पार्टी में बड़ी भूमिका संभाल सकती हैं।
नेताओं की मीटिंग ली  मीटिंग के बारे में कोई नेता बोलने को तैयार नहीं है, लेकिन सूत्रों से पता चला है कि मीटिंग की अध्यक्षता खुद प्रियंका ने ही की। उन्होंने लोकसभा चुनाव की रणनीति पर चर्चा की। आम आदमी पार्टी की सियासी रणनीति और कुमार विश्वास के अमेठी से चुनाव लड़ने पर भी बात हुई। यह भी मुद्दा उठा कि चुनाव और प्रचार में राहुल की मदद कैसे की जाए। हालांकि एक सीनियर कांग्रेसी नेता का कहना है कि प्रियंका ने अपनी बात अमेठी और रायबरेली तक ही सीमित रखी। सूत्रों का कहना है कि प्रियंका ने अभी रायबरेली, अमेठी या कहीं और से चुनाव लड़ने का मन नहीं बनाया है।
पार्टी ने कहा, सामान्य बात
बैठक में प्रियंका की मौजूदगी को पार्टी महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने सामान्य बात करार दिया। उन्होंने कहा कि वह सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेती नहीं दिखती हों लेकिन लंबे समय से कांग्रेस की सक्रिय सदस्य हैं। सूत्र बताते हैं कि इस मीटिंग में सोनिया गांधी के राजनैतिक सचिव अहमद पटेल, जनार्दन द्विवेदी, केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश, गुजरात के बड़े कांग्रेसी नेता और यूपी के इंचार्ज मधुसूदन मिस्त्री, कांग्रेस के मीडिया प्रभारी अजय माकन, अंबिका सोनी और राहुल की कोर टीम के मेंबर मोहन गोपाल मौजूद थे। चर्चा है कि इस मीटिंग से एक दिन पहले प्रियंका पार्टी कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा, जनार्दन द्विवेदी और अजय माकन से मिली थीं।
प्रियंका गांधी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की निःसन्देह एक संभावनाशील महिला हैं। लोग अपने नेता के किसी गुण से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं, तो वह उसके द्वारा करिश्मा पैदा करने की क्षमता से होते हैं। 1999 के संसदीय चुनाव में किस तरह से प्रियंका गांधी के मात्र एक चुनावी संबोधन से रायबरेली लोकसभा में कांग्रेस ने भाजपा के प्रत्याशी अरुण नेहरू को हरा दिया था। प्रियंका गांधी के व्यक्तित्व में यदि कोई गुण सर्वाधिक प्रभावित करता है, तो वह उनके द्वारा लोगों से सहज संवाद स्थापित करने की क्षमता है, बोली-वाणी, पहनावे एवं रहन-सहन से लोगों को सीधे प्रभावित करती हैं।
रायबरेली और अमेठी में संगठन को दुरुस्त करने का जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेने वाली प्रियंका अब लोकसभा चुनाव तक लगभग हर महीने यहां का दौरा करेंगी। इसी योजना के तहत वह रायबरेली और अमेठी के ब्लॉक स्तर के कार्यकर्ताओं से कई बार अलग-अलग बैठक कर चुकी हैं। प्रियंका अब तक पारिवारिक जिम्मेदारियों के नाम पर सक्रिय राजनीति से दूर रही हैं। सच तो यह भी है कि  पार्टी का एक तबका प्रियंका में उनकी दादी इंदिरा गांधी की झलक देखता है और वह चाहता है कि प्रियंका सक्रिय भूमिका निभाएं। इस तबके का मानना है कि उत्तर प्रदेश और अन्यत्र पार्टी के बेहतर भविष्य के लिए ऐसा किया जाना अनिवार्य है। पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने राहुल की अगुवाई में उत्तर प्रदेश में बेहतर प्रदर्शन किया था और उसे 22 सीटें मिली थीं, लेकिन विधानसभा चुनावों के दौरान प्रदर्शन अपेक्षित नहीं रहा और पार्टी के गढ़ माने जाने वाले अमेठी एवं रायबरेली जैसे स्थानों पर भी पार्टी ने खराब प्रदर्शन किया। चुनावों में प्रदर्शन खराब रहने के कारणों को लेकर राहुल ने खुद ही पार्टी विधायकों, सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों से बातचीत की थी। गौर करने योग्य यह भी है कि पहले राजनीति में आने के सवाल पर प्रियंका कहती थीं कि राजनीति में बिना आए भी समाज की सेवा की जा सकती है, लेकिन अब माहौल बदल गया लगता है। प्रियंका ने राजनीति में आने के संकेत कई महीने पहले ही देने शुरू कर दिए थे। 2012 के विधानसभा चुनाव के दौरान जब मीडिया ने प्रियंका गांधी से पूछा था कि वे राजनीति में कब आएंगी, तो इसके जवाब में उन्होंने कहा था, जब राहुल भैया चाहेंगे तब राजनीति में आएंगी। हालांकि कांगे्रस के प्रवक्ता अब भी इसकी पुष्टि नहीं कर रहे कि प्रियंका सक्रिय राजनीति में आएंगी और यह कह कर सवालों को टाल देते हैं कि आखिरी निर्णय तो प्रियंका को ही करना है। इससे साफ जाहिर है कि कांग्रेस उन्हें आगे लाने को आतुर है। कुछ दिग्गज तो साफ कह भी चुके हैं कि प्रियंका को आगे आना चाहिए। सच तो यह है कि कांग्रेस के दिग्गज नेता व कार्यकर्ताओं में यह धारणा मजबूत होती जा रही है कि चूंकि राहुल गांधी खारिज होते नजर आ रहे हैं, ऐसे में प्रियंका को ही आखिरी दाव के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। वे ही राजनीति के खेल में कांग्रेस का आखिरी ‘तुरूप का पत्ता’ साबित हो सकती हैं। मगर संभवतरू सोनिया गांधी इस राय से इत्तफाक नहीं रखतीं। जाहिर सी बात है कि वंश परंपरा को कायम रखने के लिए सोनिया की रुचि बेटे राहुल गांधी में है। प्रियंका दूसरा विकल्प हैं।
दरअसल, कांग्रेस में गांधी परिवार का बड़ा ही योगदान रहा है। जब-जब कांग्रेस कमजोर हुई है या कमजोर की गई है, गांधी परिवार का कोई न कोई व्यक्तित्व इसको उबारने में महती भूमिका निभाया है। जिसमें उनके बलिदान तक की बातें निहित हैं। 20वीं सदी के अंत में जब कांग्रेस कई टुकड़ों में विभाजित हो गई थी ओर देश में भाजपा की सरकार चल रही थी। उस समय कांग्रेस की अपील पर गांधी परिवार की मुखिया श्रीमती सोनिया गांधीजी अपने पुत्र राहुल गांधी के साथ राजनीति में सक्रिय होकर भारतीय कांग्रेस का नेतृत्व संभाला। इसमें संदेह नहीं की गांधी परिवार ने अपने नेतृत्व क्षमता और साफ सुथरी छवि के आधार पर 2004 के आम चुनाव में आम जनमानस के सहयोग से विखंडित कांग्रेस को संगठित एवं जोड़कर भारत की सत्ता में पुनः वापसी की। प्रियंका गांधी का राजनीतिक योगदान इस चुनाव में काफी बढ़ गया, वे कांग्रेसियों को जोड़ने में सफल रही। उनके सक्रिय राजनीति में आने का प्रश्न अब महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि उन्हे तो अब इसका विस्तारीकरण करना है। अमेठी और रायबरेली में वह लगाार समय देती आ रही हैं। उनके आने से निश्चित रूप से कांग्रेस को फायदा होगा, क्योंकि वह इंदिरा गांधी की प्रतिरूप मानी जाती हैं। साथ ही उनकी छवि संवेदनशील एवं ईमानदार राजनीतिज्ञ की है। रही बात वंशवाद की तो अगर किसी के पूर्वज राजनीति में थे, तो उसमें उसका क्या दोष?
प्रियंका गांधी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की निःसन्देह एक संभावनाशील महिला हैं। लोग अपने नेता के किसी गुण से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं, तो वह उसके द्वारा करिश्मा पैदा करने की क्षमता से होते हैं। 1999 के संसदीय चुनाव में किस तरह से प्रियंका गांधी के मात्र एक चुनावी संबोधन से रायबरेली लोकसभा में कांग्रेस ने भाजपा के प्रत्याशी अरुण नेहरू को हरा दिया था। प्रियंका गांधी के व्यक्तित्व में यदि कोई गुण सर्वाधिक प्रभावित करता है, तो वह उनके द्वारा लोगों से सहज संवाद स्थापित करने की क्षमता है, बोली-वाणी, पहनावे एवं रहन-सहन से लोगों को सीधे प्रभावित करती हैं। भीड़ में विषेशतया महिलाओं में अपने घुलने मिलने की क्षमता के कारण वह लोगों के दिलों में अपनी जगह बना लेती है। जो लोग कांग्रेस पर वंशवाद का आरोप लगाते हैं, वह अन्य राजनीतिक दलों के वंशवाद की तरफ से आंखे फेरे हुए हैं। अन्य दलों से विपरीत कांग्रेस का परंपरा से प्राप्त नेतृत्व सदैव जनता द्वारा बड़े इम्तिहान पास कर आता है। वह चाहे इंदिरा जी की ‘इन्डीकेट बनाम सिण्डीकेट’ की लड़ाई हो, संजय गांधी द्वारा 1977 के आम चुनाव से पस्त मृतप्राय कांग्रेस में जान फूंकने का काम हो, राजीव गांधी द्वारा इंदिरा जी की हत्या से उपजे शून्य को भरना रहा हो, या श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा 2004 में साम्प्रदायिक ताकतों को सत्ता से अप्रत्याशित तौर पर बाहर करना हो। इस तरह नेहरू - गांधी परिवार का नेतृत्व जनता द्वारा कठिनतम परीक्षा पास करता आ रहा है। प्रियंका गांधी निरूसन्देह कांग्रेस का भविष्य हैं उनके आने से कांग्रेस को मजबूती मिलेगी एवं समाज को भी एक सक्षम नेतृत्व मिलेगा।
राहुल दिखाते रहे हैं अपरिपक्वता लेकिन प्रियंका गंभीर

राहुल गांधी पिछले कई मौकों पर अपरिपक्व नेता के तौर पर पेश हुए हैं। दागी सांसदों की सदस्यता रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कांग्रेस सरकार के अध्यादेश को उन्होंने फाड़कर कूड़े में फेंकने के काबिल बताया था। इस बयान पर न केवल राहुल को बल्कि कांग्रेस सरकार को भी जबरदस्त आलोचना झेलनी पड़ी। मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों से आतंकियों के संपर्क होने का दावा भी राहुल कर चुके हैं। इस बयान पर भी राहुल की खूब किरकिरी हुई। इसके विपरीत प्रियंका गांधी जब भी मीडिया में किसी विषय पर बोलती हैं, बेहद ही संयमित और सधी हुई भाषा का इस्तेमाल करती हैं। मोदी द्वारा कांग्रेस को बूढ़ी पार्टी बताने पर प्रियंका ने प्रतिक्रिया दी तो ऐसा ही उदाहरण पेश किया था। उन्होंने कहा था,  'पार्टी भले ही बूढ़ी हो, हम तो युवा हैं'