यूपीए सरकार ने नौ वर्ष पूरे कर लिए हैं। यूपीए-2 की पारी का चौथा रिपोर्ट
कार्ड जारी हो चुका है। विपक्ष के तमाम कटाक्षों और जली-कटी टिप्पणियों के
बाद भी सरकार के रणनीतिकारों ने जमकर उपलब्धियों का जश्न मना लिया है। देश
को यह बता दिया है कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने कैसे वैश्विक
आंधी-तूफानों के बीच से भारत की आर्थिक नैया को पार लगा लिया है?
सो, यह अवसर मातम करने का नहीं, बल्कि जमकर जश्न मनाने का है। क्योंकि, और
भी कई क्षेत्रों में सरकार ने जो उपलब्धियां की हैं, वे कोई कमतर नहीं
हैं। यूपीए प्रमुख सोनिया गांधी ने बुधवार को एक बार फिर दोहरा दिया है कि
पूरी कांग्रेस, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ मजबूती से खड़ी है। कुछ लोग
कांग्रेस और प्रधानमंत्री के बीच मतभेदों की अफवाहें उड़ाते रहे हैं, लेकिन
इसे सिर्फ कोरी हवाबाजी ही समझा जाए। कांग्रेस प्रमुख की इस जोरदार अपील
से भी पार्टी के अंदर शायद ही कोई नई ऊर्जा पैदा हो पाई हो?
क्योंकि, 79 पृष्ठों का खूबसूरत रिपोर्ट कार्ड तमाम जमीनी हकीकतों को
ठेंगा सा दिखा रहा है। ये बात कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ता, ‘24 अकबर रोड’
और ‘10 जनपथ’ की गणेश परिक्रमा करने वालों से कहीं ज्यादा अच्छी तरह से
समझ रहे हैं। अनौपचारिक बातचीत में कांग्रेस के एक युवा सांसद कहते हैं कि
सरकार का सालाना रिपोर्ट कार्ड एक औपचारिक कवायद ही साबित होता है।
क्योंकि, पिछले चार सालों से देश का आम आदमी लगातार बढ़ रही महंगाई से जूझ
रहा है। वह इससे राहत चाहता है। क्योंकि, वह साल-दर-साल के वायदों से बहुत
ऊब गया है। उसे अब गुस्सा आने लगा है। खासतौर पर इसलिए क्योंकि, उसे
कुछ-कुछ पता होने लगा है कि इस महंगाई की जड़ में कहीं न कहीं बड़े घोटालों
और भ्रष्टाचार की भूमिका है। जिसे हमारी सरकार रोक नहीं पा रही है। पार्टी
के कार्यकर्ता क्षेत्र में उनसे सवाल करते हैं कि वे इन मुद्दों पर जनता को
क्या सफाई दें? हम लोग कार्यकर्ताओं के इन ज्वलंत सवालों का सटीक जवाब खुद
ही नहीं दे पा रहे।
कांग्रेस सूत्रों के अनुसार, पार्टी के कुछ रणनीतिकारों ने सुझाव दिया है
कि सरकार के चौथे रिपोर्ट कार्ड को बड़ी संख्या में वितरित करा दिया जाए।
ताकि, लोगों को यह पता चले कि सरकार ने कितनी उपलब्धियां अपने खाते में
जोड़ी हैं? लेकिन, तमाम नेता इस रणनीति को ठीक नहीं मान रहे। वे यही कह रहे
हैं कि रिपोर्ट कार्ड का वितरण तो मीडिया तक ठीक है, लेकिन आम लोगों के बीच
इस रिपोर्ट कार्ड का असर प्रतिगामी भी हो सकता है। क्योंकि, इस रिपोर्ट
में उसे अपने बुनियादी सवालों का जवाब नहीं मिल रहा। 22 मई की शाम सोनिया
गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यूपीए-2 का चौथे साल का आखिरी
रिपोर्ट कार्ड जारी कर दिया। कार्यकर्ताओं में दम भरने के लिए पार्टी
प्रमुख ने यहां तक कह दिया कि कार्यकर्ताओं को किसी मुद्दे पर मुंह छिपाने
की जरूरत नहीं है। क्योंकि, सरकार ने ढेरों अच्छे काम किए हैं।
जबकि, लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज लगातार यह कह रही हैं कि
यूपीए-2 की चार सालों की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि वह सीबीआई की मदद से
चलती आ रही है। यूपीए सरकार के औपचारिक जश्न के कुछ घंटे पहले ही भाजपा
नेतृत्व ने सरकार को जमकर कोसा था। यहां तक कह डाला कि सरकार को जरा भी
शर्म हो, तो उसे जश्न की जगह पूरे देश से माफी मांगनी चाहिए। क्योंकि, इन
चार सालों में घोटालों और नियोजित भ्रष्टाचार के नए रिकॉर्ड बने हैं। इससे
देश में निराशा का वातावरण बन गया है। इस सरकार के दौर में प्रधानमंत्री पद
की गरिमा एकदम गिरी है। सच्चाई तो यह है कि सरकार के नीतिगत फैसले ‘7
रेसकोर्स रोड’ से न होकर ‘10 जनपथ’ से होते हैं। इस हकीकत को दुनिया जान गई
है।
राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली यहां तक कह चुके हैं कि
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, भले बड़े अर्थशास्त्री हों। लेकिन, उनकी सरकार की
अर्थव्यवस्था को लकवा-सा मार गया है। प्रधानमंत्री, ईमानदार छवि के जरूर
रहे हैं, लेकिन उनका ताजा रिकॉर्ड यह है कि वे हर घोटाले को दबाने की
कोशिश करते हैं। इस सरकार की विदेश नीति इतनी पिलपिली हो गई है कि पड़ोसी
देशों में भी हमारी छवि ‘दब्बूपन’ की होती जा रही है। इसी के चलते छोटा-सा
देश मालद्वीव भी भारत को आंख दिखाने की हिम्मत करने लगा है। वरिष्ठ
कांग्रेसी नेता एवं संसदीय कार्य मामलों के मंत्री कमलनाथ कहते हैं कि
प्रमुख विपक्षी दल भाजपा नेतृत्व, लगता है राजनीतिक रूप से हीन भावना का
शिकार हो गया है। शायद, इसीलिए उसे सरकार के हर कामकाज में सिर्फ नकारात्मक
पहलू ही दिखते हैं। अच्छा यही रहेगा कि भाजपा के नेता पहले अपने गिरेबां
में झांककर देखें कि क्या वे सचमुच मुख्य विपक्षी दल की सही भूमिका निभा पा
रहे हैं?
लोकसभा चुनाव अगले साल होने हैं। इसकी तैयारियों के लिए सभी प्रमुख दलों
में राजनीतिक होड़ शुरू हो गई है। 2009 के मुकाबले अब यूपीए गठबंधन की
तस्वीर भी काफी बदल गई है। क्योंकि, कांग्रेस के दो प्रमुख सहयोगी दल,
तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक उससे दूर हो चुके हैं। नई भूमिका में इन दलों के
क्षत्रपों ने कांग्रेस के खिलाफ आक्रामक रणनीति अपना ली है। तृणमूल
कांग्रेस की सुप्रीमो एवं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुलकर
कह रही हैं कि आम आदमी के नाम पर वोट लेने वाली कांग्रेस, अमीरों की भलाई
के लिए ज्यादा काम कर रही है। इस तरह से इस पार्टी के नेता देश के आम आदमी
के साथ सबसे बड़ी राजनीतिक ठगी करने में लगे हैं। उनकी कोशिश है कि सेक्यूलर
विपक्ष एकजुट होकर यूपीए सरकार से जनता को मुक्ति दिलाए। अपने गृह राज्य
पश्चिम बंगाल में वे कांग्रेस और वाममोर्चा, दोनों को करारा सबक सिखाने की
तैयारी कर रही हैं। उन्होंने संकेत दिए हैं कि उचित अवसर आने पर वे देश के
तमाम सेक्यूलर क्षत्रपों से साझा रणनीति बनाने की बात करेंगी।
द्रमुक सुप्रीमो एम. करुणानिधि ने अभी अपने सभी रणनीतिक पत्ते नहीं खोले
हैं। उन्होंने यह जरूर कहा है कि लोकसभा के चुनाव में वे किसी भी हालत में
फिर से कांग्रेस से हाथ नहीं मिलाएंगे। क्योंकि, इस पार्टी के बड़े नेताओं
ने उनकी पार्टी के साथ तमाम राजनीतिक गैर-इंसाफी की है। केंद्र की सरकार ने
तमिलों के भावनात्मक मुद्दों की भी परवाह नहीं की। ऐसे में, जरूरी हो गया
है कि तमिलनाडु की जनता कांग्रेस को करारा सबक सिखा दे। मनमोहन सरकार,
तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक के समर्थन वापसी के बाद से लोकसभा में अल्पमत
में हैं। सपा और बसपा के बाहरी समर्थन से ही सरकार का अस्तित्व बरकरार है।
लेकिन, चुनावी राजनीति के समीकरणों के चलते सपा और बसपा से भी कांग्रेस के
रिश्ते ज्यादा अच्छे नहीं रहे। इस बार तो सपा नेतृत्व ने यूपीए-2 के चौथे
जश्न में औपचारिक हिस्सेदारी भी नहीं की। बसपा सुप्रीमो मायावती भी इस जश्न
से दूर ही रहीं, लेकिन उन्होंने यूपीए के डिनर में अपने दो सिपहसालारों को
जरूर भेज दिया था।
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरणों को देखते हुए सपा सुप्रीमो ने कांग्रेस
से अपनी राजनीतिक दूरी बढ़ानी शुरू कर दी है। इसकी वजह से मनमोहन सरकार को
संसद में और परेशानी भरे दिन देखने पड़ सकते हैं। पिछले दिनों ही बजट सत्र
का दूसरा चरण खत्म हुआ है। संसद सत्र का यह चरण पूरी तौर पर गतिरोध का
शिकार रहा। क्योंकि, मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने कोयला घोटाले के मामले में
प्रधानमंत्री के इस्तीफे के मुद्दे पर अड़ियल रुख अपना लिया था। संकट की इस
घड़ी में ‘संकटमोचक’ की भूमिका में मुलायम भी आगे नहीं आए। यूपीए के जश्न से
दूरी बनाकर उन्होंने संकेत दे दिए हैं कि आने वाले दिनों में वे सरकार के
लिए कोई बड़ा राजनीतिक संकट भी खड़ा कर सकते हैं।