दुख जताया कि उनके विपक्षी ‘दोस्त’ उनका पक्ष सुनने तक को तैयार नहीं हैं और उनसे पूछा कि उन्होंने क्या गलत किया है। इसके बाद रामचरितमानस का हवाला देते हुए दार्शनिक अंदाज में कहा कि हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश आदि मनुष्य नहीं बल्कि विधि यानी ईश्वर के हाथ में हैं। मगर उनके लिए अफसोस यह रहा कि इन बातों को सुनने के लिए अधिकतर विपक्षी सदस्य सदन में नहीं थे।
कांग्रेस और कई अन्य विपक्षी दल पहले ही अपना फैसला सुना चुके हैं कि विदेश मंत्री का आचरण नैतिक रूप से गलत था, क्योंकि उनके पति एवं बेटी के पेशेवर हित ललित मोदी से जुड़े थे। कांग्रेस तो यह दावा करने तक गई है कि स्वराज ने भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत ‘अपराध’ किया।
अतः विपक्ष स्वराज की कोई बात सुनने से पहले उनका इस्तीफा चाहता है। जबकि भाजपा की तरफ से कहा जा चुका है कि वह ‘यूपीए नहीं है’, अतः कोई इस्तीफा नहीं होगा। यानी दोनों पक्ष अपने रुख के चरम बिंदु पर हैं। इस पर कायम रहते मेल-मिलाप की कोई सूरत नहीं निकल सकती। इस रुख में बदलाव की गुंजाइश इसलिए नहीं बन रही है, क्योंकि मसले को गुण-दोष के आधार पर देखने की बजाय सियासी स्वार्थ से प्रेरित होने की प्रवृत्ति राजनीतिक समुदाय पर अधिक हावी है।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि दोनों पक्षों ने प्रत्यक्ष आपसी संवाद तोड़ रखा है। यह लोकतंत्र की मूल भावना के विरुद्ध है। इसके बावजूद यह रेखांकित करने का पहलू है कि स्वराज का स्वर टकराव भरा नहीं था। इसे सकारात्मक नज़रिया माना जाएगा। दोनों पक्ष ऐसा दृष्टिकोण अपनाएं तो अटूट लगते वर्तमान गतिरोध के बीच भी राह निकल सकती है।
क्या यह संभव नहीं है कि प्रधानमंत्री विपक्षी नेताओं की बैठक बुलाएं, जिसमें दोस्ताना माहौल में खुल कर बात हो? फिलहाल देश समाधान की आस में है, ताकि राष्ट्र हित से जुड़े विधायी कार्य पूरे हो सकें।
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