बीते कई दिनों से रुपये की बेदम होती चाल पर अर्थव्यवस्था को पलीता लग रहा है, जिसका खामियाजा निश्चित तौर पर आने वाले दिनों में देश के आम लोगों को भुगतना होगा। हालत ये है कि आज रुपया दुनिया की सबसे कमजोर मुद्रा में से एक हो गई है। ऐसे में सरकारी खजाने का बढ़ता घाटा खतरनाक स्तर तक जा सकता है।
.कमजोर होती अर्थव्यवस्था को लेकर न तो सरकार को कुछ सूझ रहा है और न ही रुपये में ऐतिहासिक गिरावट को थामने के कोई कारगर उपाय नजर आ रहे हैं। न जानें यह रुपया कहां जाकर ठहरेगा। जानकारों के अनुसार, आजादी के बाद से रुपये में इतनी तेज गिरावट कभी नहीं देखी गई। आजादी को बीते 67 साल हो गए और रुपया भी पूरी तरह `आजाद` होकर कुलांचे मारने लगा। एक समय तो ऐसा भी आया जब रुपया आजादी के सालों की गिनती को भी बेमानी कर गया।
सरकार की ओर से बीते दिनों आए बयानों से यह कयास लगाया जाने लगा कि देश 1991 की तरह आर्थिक बदहाली के दौर में पहुंच चुका है। तभी तो एक बार फिर सोना गिरवी रखने की बात की जा रही है। देश में एक तरह से `आर्थिक इमरजेंसी` के हालात पैदा होते दिखने लगे हैं। रुपये का क्या स्तर होगा, इस पर सरकार कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है। ऐसी दयनीय स्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था में दीर्घकालिक क्षमता नजर नहीं आ रही है।
रुपये की मजबूती को लेकर सरकार के प्रयास क्या हाल है, इसकी बानगी रिजर्व बैंक के गवर्नर एक वक्तव्य से लग जाती है। रिजर्व बैंक के गवर्नर ने मौजूदा आर्थिक हालात के लिए सीधे सरकार की ढुलमुल वित्तीय नीतियों को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने सीधे तौर पर कहा कि रुपये के अवमूल्यन के पीछे घरेलू संरचनात्मक कारक ही मूल वजह है। यानी रुपये की मौजूदा हाल के लिए यह सरकार ही जिम्मेवार है।
वहीं, सरकार इसे पूरी तरह झुठलाने पर आमदा है और घरेलू तथा विदेशी कारकों को इसके लिए जिम्मेवार ठहरा रही है। आर्थिक नरमी एवं उच्च मुद्रास्फीति के लिए सरकार के ढीले राजकोषीय रुख को भी जिम्मेदार ठहराया गया। विदित है कि देश का राजकोषीय घाटा बीते कई सालों से बढ़ता ही जा रहा है, मगर सरकार को इससे कोई फर्क ही नहीं पड़ा।
सरकार की कुछ `चुनावी` योजनाओं ने भी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने में कसर नहीं छोड़ी है। बीते दिनों खाद्य सुरक्षा बिल संसद में पारित किया गया। इस बिल के अमल में आने के बाद देश के ऊपर लाखों करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा। जाहिर है कि एक तरफ राजकोषीय घाटा सुरसा की मुंह की तरह बढ़ रहा है और ऊपर से ऐसी योजनाओं के क्रियान्वयन से वित्तीय खजाने पर भारी बोझ पड़ेगा। ऐसे में अर्थव्यवस्था की हालत और बिगड़ेगी। खाद्य सुरक्षा विधेयक ने भी वित्तीय बाजार को चिंता में डाल दिया।
बाजार में यह भरोसा नहीं है कि सरकार अपने राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण लगा सकेगी। बाजार को आशंका है कि इससे सरकारी खजाने पर जबरदस्त असर पड़ेगा क्योंकि खाद्य सुरक्षा के लिए भारी सब्सिडी की जरूरत पड़ेगी। कुछ आर्थिक जानकार यह कहने को मजबूर हैं कि इस तरह की योजनाओं ने रुपये को रसातल में जाने को मजबूर किया है। आज देश की आर्थिक हालत ऐसी नहीं है कि फिर से किसी नई योजना के मद में आने वाले खर्च का बड़ा बोझ आसानी से सहा जा सके। साथ ही, सरकार ने आने वाले दिनों में लाखों करोड़ रुपये सब्सिडी देने का भी लक्ष्य तय कर रखा है।
रुपये में लगातार गिरावट के पीछे कई कारण हो सकते हैं। कारण चाहे जो भी हों, मगर विशेषज्ञों का मानना है कि इसमें और गिरावट हो सकती है। जिक्र योग्य है कि जनवरी में रुपया प्रति डॉलर 55 के स्तर पर था और आज यह 18 फीसदी लुढ़कर 65-66 के स्तर पर पहुंच गया है। एक समय तो रुपया 69 का आंकड़ा छूने के करीब था। महज एक सप्ताह में ही रुपये में करीब पांच फीसदी गिरावट दर्ज की गई।
जोकि कई सालों के बाद ऐसा देखने को मिला। वैसे दुनिया की कई उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में मुद्रा कई वर्षों के निचले स्तर तक कमजोर हो गया, लेकिन रुपये में सर्वाधिक कमजोरी रही। यह तीन महीने में 15 फीसदी अवमूल्यन का शिकार हुआ है। खाद्य सुरक्षा बिल, डॉलर की भारी मांग, सोने के दाम में तेजी और कच्चे तेल की कीमतों में उछाल भी रुपये की कीमत के लिए जिम्मेदार हो सकता है।
इसमें कोई संशय नहीं है कि खराब घरेलू और वैश्विक हालात ने रुपये पर ऐसा पलीता लगाया है कि यह डॉलर के मुकाबले बेदम हो रहा है। भारतीय मुद्रा की इज्जत बचाने के लिए रिजर्व बैंक पिछले कई महीनों से बाजार में डॉलर झोंक रहा है, पर बात बनती नहीं दिख रही है। जिसकी खींझ आरबीआई गवर्नर के बयान से साफ मिल जाती है। प्रत्यक्ष रूप से उन्होंने सरकार की योजनाओं और क्रियाकलापों को कठघरे में खड़ा कर दिया।
हो सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचनागत खामियां भी रुपये के अवमूल्यन का एक बड़ा कारण हो। खैर जो भी हो, इसके पीछे ठोस आर्थिक कारण तो है ही। आज भारतीय अर्थव्यवस्था में संरचनागत समस्याओं के कारण निवेश और विकास बाधित हो रहा है। इसे ठीक करने के प्रयास से बाजार तथा रुपये की गिरावट थम सकती है। मौजूदा समय में चालू खाता घाटा पिछले पांच सालों में 10 गुणा बढ़ गया है। चालू खाता घाटा से आशय यह है कि निर्यात से देश को जितनी राशि मिल रही है, उससे कहीं अधिक राशि आयात के कारण बाहर जा रही है।
पांच साल पहले यह घाटा आठ अरब डॉलर था, जो आज 90 अरब डॉलर हो गया है। इस घाटे से विदेशी पूंजी भंडार पर दबाव बढ़ गया। जिक्र योग्य है कि विदेशी पूंजी भंडार का उपयोग रिजर्व बैंक रुपये में स्थिरता बनाए रखने में करता है।
आज देश का विकास दर कम है, चालू खाता घाटा अधिक है। ऐसे में जब तक भारतीय अर्थव्यवस्था में स्थिरता नहीं आती और जब तक वैश्विक बाजार में अनुकूल माहौल नहीं होगा, रुपये में गिरावट का दौर जारी रहेगा। ऐसे में रोजमर्रा की जरूरतों की सभी चीजें महंगा हो जाएंगी। लोगों का जीवन स्तर बेहतर होने के बजाय कमतर होगा। उनकी बचत कम होगी। आखिरकार पूरी अर्थव्यवस्था को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा।
रुपये में जरूरत से ज्यादा गिरावट क्या अस्थायी साबित होगी? यह हम ही नहीं, सभी देशवासी कामना करेंगे कि रुपये की गिरती चाल पर तत्काल ब्रेक लगे ताकि देश की आर्थिक स्थिति सुधरने के साथ साथ आम जनजीवन भी राहत पा सके।