ललन सिंह ने उपेन्द्र कुशवाहा पर कटाक्ष करते हुए कहा की जो लोग समाज को तोड़ने की बात करते हुए राजनीत करते है उन्हीं लोगों को नीतीश कुमार ने प्राश्रय दिया साथ ही ललन सिंह ने ब्यूरोक्रेट रहे नीतीश कुमार के सचिव आर. सी. पी. सिंहा को भी राज्य सभा से टिकट दिए जाने पर कहा कि स्वजातिय लोगों को लाभ पहूंचाकर नीतीश कुमार लालू जी के साथ ही खड़े दिखते है। उन्होंने नीतीश कुमार से केन्द्र के पैसे से हो रहे विकास पर वाहवाही लूटने की बात कहते हुए कहा कि नीतीश कुमार से इस बात का जबाब मांग रहें की वे बताए की उनके द्वारा कहां विकास किया गया है।
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Thursday, 18 April 2013
जातिवाद के पोषक नीतीश
कभी जातीय आधार पर टिकट बंटवारे से इनकार करने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिलवक्त अपने ही स्थापित मूल्यों से डिगते नजर आ रहे हैं. अब यह कहा जाने लगा है कि नीतीश कुमार की राजनीति ही नहीं, बल्कि अफसरशाही भी जातीय चक्रव्यूह में फंस गई है. सरकार और प्रशासन में जातीय समीकरण के आधार पर मनोनयन और पदस्थापन से तो ऐसा ही संकेत मिल रहा है. हाल ही में बिहार विधान सभा में उपाध्यक्ष और विधान परिषद में सभापति के पद पर क्रमश: अमरेन्द्र प्रताप सिंह और अवधेश नारायण सिंह के मनोनयन(चुनाव)को जातीय समीकरण के आधार पर ही देखा जा रहा है. वोट बैंक समीकरण के लिहाज से राजपूतों को तुष्ट करने की कार्रवाई भी इसे करार दिया जा रहा है. एक कयास यह भी लगाया जा रहा है कि चीफ सेक्रेटरी के पद पर ए के सिन्हा की नियुक्ति से भूमिहारों को यह संदेश दिया गया है कि सरकार उन्हें तवज्जो दे रही है. दूसरी ओर यह आशंका भी है कि अब डीजीपी अभयानंद की विदाई तय है. सरकार इसके लिए लचर होती विधि-व्यवस्था को बहाना बना सकती है. पर्दे के पीछे की हकीकत यह है कि मुख्य सचिव और डीजीपी दोनों की एक ही जाति (भूमिहार) है. और एक साथ इन दोनों महत्वपूर्ण पदों पर एक जाति की तैनाती का चलन आमतौर पर नहीं रहा है.
यह भी संभव है कि अभयानंद को अभी डीजीपी के पद पर कायम रखा जाए. इस दौरान ठोस विकल्प की तलाश भी जारी रहे.दूसरा तर्क यह भी है कि जातीय लोकप्रियता का अगर आकलन किया जाए तो ए के सिन्हा की तुलना में अभयानंद ज्यादा लोकप्रिय हैं. शायद ए के सिन्हा की कीमत पर अभयानंद की विदाई को भूमिहार समाज पसंद नहीं करे.जानकारों की मानें तो ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद से यह समाज या इसका कुछ हिस्सा सरकार से थोड़ा नाराज चल रहा है. ऐसे में अभयानंद की जल्द ही छुट्टी हो जाएगी, इससे अनेक लोगों की सहमति नहीं बन रही है. हाल की कई आपराधिक घटनाओं को लेकर सरकार की किरकिरी हुई है.
यह भी संभव है कि अभयानंद को अभी डीजीपी के पद पर कायम रखा जाए. इस दौरान ठोस विकल्प की तलाश भी जारी रहे.दूसरा तर्क यह भी है कि जातीय लोकप्रियता का अगर आकलन किया जाए तो ए के सिन्हा की तुलना में अभयानंद ज्यादा लोकप्रिय हैं. शायद ए के सिन्हा की कीमत पर अभयानंद की विदाई को भूमिहार समाज पसंद नहीं करे.जानकारों की मानें तो ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या के बाद से यह समाज या इसका कुछ हिस्सा सरकार से थोड़ा नाराज चल रहा है. ऐसे में अभयानंद की जल्द ही छुट्टी हो जाएगी, इससे अनेक लोगों की सहमति नहीं बन रही है. हाल की कई आपराधिक घटनाओं को लेकर सरकार की किरकिरी हुई है.
जातिवाद के जख्म की उपज हैं नीतीश कुमार
कांग्रेस भले ही नीतीश कुमार के साथ लंबे समय से नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश कर रही हो लेकिन ऐसा लगता है कि वह इस तथ्य को भूल गई है कि बिहार के मुख्यमंत्री राजनीति में इस जख्म के साथ आए हैं कि पार्टी ने उनके पिता के साथ सही बर्ताव नहीं किया था।
यह दावा हाल में ही जारी एक पुस्तक में किया गया है। इसमें कहा गया है कि कांग्रेस ने कुमार के स्वतंत्रता सेनानी पिता रामलखन सिंह को बिहार विधानसभा के 1952 में हुए पहले विधानसभा चुनाव और 1957 के चुनाव में बख्तियारपुर सीट से टिकट देने से मना कर दिया था।
इससे आहत कुमार के पिता ने आखिरकार कांग्रेस छोड़ने का फैसला किया और कांग्रेस के खिलाफ जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े। हालांकि, उन्हें जीत नहीं मिली थी। यह दावा नीतीश के बचपन के मित्र अरुण सिन्हा द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘‘नीतीश कुमार एंड द राइज ऑफ बिहार’’ में किया गया है।
पुस्तक में दावा किया गया है, ‘‘नीतीश के दिमाग में कहीं न कहीं यह बात घर कर गयी कि उनके पिता के साथ कांग्रेस ने सही सलूक नहीं किया। उनके पिता अपने राजनैतिक जख्म की विरासत उन्हें सौंप गए।’’ नीतीश के पिता स्वतंत्रता सेनानी थे। वह पटना के बाहरी हिस्से में स्थित बख्तियारपुर में आयुर्वेदिक चिकित्सक थे।
महात्मा गांधी के आह्वान पर उन्होंने 1942 में अपनी चिकित्सा प्रैक्टिस छोड़ दी और भारत छोड़ो आंदोलन में कूद गए। उन्हें गिरफ्तार किया गया और गंभीर आरोपों के साथ जेल भेज दिया गया। कांग्रेस पार्टी का सक्रिय सदस्य होने के बावजूद 1951-52 के चुनाव में रामलखन को सूची से हटा दिया गया क्योंकि श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिंह के नेतृत्व वाले कांग्रेस के दो समूहों में से किसी ने भी सभी जातियों को उचित प्रतिनिधित्व देने की अपनी समूची रणनीति में उन्हें उपयुक्त नहीं पाया। रामलखन पिछड़ी जाति का प्रतिनिधित्व करते थे।
दोनों गुटों के बीच एक ‘समझौते’ के बाद तारकेश्वरी सिन्हा (भूमिहार) को पटना पूर्व (बाद में बाढ़) सीट से टिकट दिया गया और एक कायस्थ उम्मीदवार सुंदरी देवी (दिवंगत प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की बहन) को बख्तियारपुर विधानसभा सीट से टिकट दिया गया। उन्होंने सुंदरी देवी की जीत के लिए कठोर प्रयास किया।
रामलखन की अनदेखी करते हुए दोनों सीटों से 1957 में फिर उन्हीं दोनों उम्मीदवारों को कांग्रेस ने मैदान में उतारा। हालांकि, रामलखन को 1957 के विधानसभा चुनाव में टिकट देने का वादा किया गया था लेकिन टिकट नहीं मिलने से वह काफी आहत हुए। पुस्तक में कहा गया है, ‘‘उनके सब्र का बांध टूट गया और उन्होंने दोनों गुटों को सबक सिखाने का फैसला किया।’’
पुस्तक में कहा गया है कि रामलखन सिंह कांग्रेस छोड़कर रामगढ़ के राजा आचार्य जगदीश के नेतृत्व वाली जनता पार्टी में शामिल हुए और 1957 में बख्तियारपुर सीट से मैदान में उतरे। हालांकि, वह खुद पर्याप्त वोट नहीं हासिल कर सके लेकिन वह सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के हाथों कांग्रेस प्रत्याशी की हार सुनिश्चित कर गए क्योंकि कांग्रेस और जनता पार्टी के बीच वोट बंट गए। पुस्तक में दावा किया गया है कि ‘‘राजनीति की ओर नीतीश का आकर्षण कांग्रेस के प्रति नफरत से ही हुआ क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों में उसके मंत्रियों को अपना प्रभुत्व बढ़ाते और जनहित का बेहद कम खयाल रखते देखा गया।’’
Wednesday, 17 April 2013
भारतीय जनता पार्टी
भारतीय जनता पार्टी की स्थापना 1980 में की गई थी। इससे पहले 1977 से 1979 तक इसे 'जनता पार्टी' के साथ के 'भारतीय जनसंघ' और उससे पहले 1951 से 1977 तक 'भारतीय जनसंघ' के नाम से जाना जाता था। भारतीय जनता पार्टी के इतिहास को तीन अलग-अलग हिस्सों में बांटा जा सकता है. भारतीय जनता पार्टी का गठन पुर्नगठित जनसंघ के रूप में 6 अप्रैल, 1980 को सम्पन्न हुआ था। इसके प्रथम अध्यक्ष के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी को चुना गया था। इस दल में अधिकांश सदस्य भूतपूर्व जनसंघ के शामिल हुए, जिसका 1977 में जनता पार्टी में विलय हो गया था। इसके साथ ही कुछ गैर जनसंघी भी इसमें शामिल हुए। इस दल के गठन के बाद जो चुनाव हुये, उसमें इस दल को अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिली और 1984 के लोकसभा के आम चुनाव में इस दल के दो सदस्य लोकसभा के लिए निर्वाचित किये गये। 1989 में चुनाव तथा 1991 के लोकसभा के मध्यावधि चुनाव में इस दल को पर्याप्त सफलता मिली।
'भारतीय जनसंघ' की स्थापना श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1951 में की थी। पार्टी को पहले आम चुनाव में कोई ख़ास सफलता नहीं मिली, लेकिन इसे अपनी पहचान स्थापित करने में कामयाबी ज़रुर प्राप्त हो गई थी। भारतीय जनसंघ ने शुरु से ही कश्मीर की एकता, गौ-रक्षा, ज़मींदारी प्रथा और परमिट-लाइसेंस-कोटा राज आदि समाप्त करने जैसे मुद्दों पर विशेष रूप से ज़ोर दिया था। कांग्रेस का विरोध करते हुए जनसंघ ने राज्यों में अपना संगठन फैलाने और उसे मज़बूती प्रदान करने का काम प्रारम्भ किया, लेकिन चुनावों में पार्टी को आशा के अनुरूप कामयाबी प्राप्त नहीं हुई। कांग्रेस का विरोध करने के लिए जनसंघ ने जयप्रकाश नारायण का समर्थन भी किया। जयप्रकाश नारायण ने श्रीमती इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ नारा दिया कि "सिंहासन हटाओ कि जनता आती है।" 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की। इस दौरान दूसरी विपक्षी पार्टियों की तरह जनसंघ के भी हज़ारों कार्यकर्ताओं और नेताओं को जेल में डाला गया। 1977 में आपातकाल की समाप्ति के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। तब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने और भारतीय जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी को विदेश मंत्री और लालकृष्ण आडवाणी को सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया। लेकिन ये सरकार अधिक दिनों तक टिक नहीं सकी, क्योंकि आपसी गुटबाज़ी और लड़ाई की वजह से सरकार तीस माह में ही गिर गई।1980 के चुनावों में विभाजित जनता पार्टी की हार हुई। भारतीय जनसंघ, जनता पार्टी से पृथक हो गया और अब उसने अपना नया नाम 'भारतीय जनता पार्टी' रख लिया। इस समय पार्टी संसट के दौर से गुजर रही थी। अटल बिहारी वाजपेयी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। दिसंबर, 1980 में मुंबई में भारतीय जनता पार्टी का पहला अधिवेशन हुआ। भाजपा ने कांग्रेस के साथ अपने विरोध को जारी रखा और पंजाब और श्रीलंका को लेकर तत्कालीन इंदिरा गांधी की सरकार की आलोचना की।
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ी जातियों और जनजातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के लिए मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू कीं। भाजपा को ऐसा लगने लगा कि वे अपना वोट बैंक खड़ा करना चाहते हैं। इसीलिए अब भाजपा ने हिंदुत्व के मुद्दे को दोबारा उठाया। पार्टी ने अयोध्या में 'बाबरी मस्जिद' की जगह राम मंदिर बनाने की बात कही। इस प्रकार हिंदू वोट बैंक को इकठ्ठा रखने की कोशिश की गई, जिसके मंडल रिपोर्ट आने के बाद बँट जाने का ख़तरा पैदा हो गया था। अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथ यात्रा भी की। उनकी गिरफ़्तारी के बाद भाजपा ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद 1991 में हुए चुनावों में प्रचार के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या कर दी गई। भाजपा को इन चुनावों में 119 सीटों पर विजय मिली। इसका बड़ा श्रेय अयोध्या मुद्दे को जाता था। कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, लेकिन पी. वी. नरसिंहराव अल्पमत की सरकार चलाते रहे। भाजपा ने सरकार का विरोध किया। शेयर घोटाले और आर्थिक उदारीकरण को लेकर उसने सरकार को घेरना लगातार जारी रखा।
1996 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रुप में उभरी। राष्ट्रपति डॉक्टर शंकरदयाल शर्मा ने अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। लेकिन लोकसभा में बहुमत साबित न कर पाने की वजह से उनकी सरकार सिर्फ़ 13 दिन में गिर गई। बाद में कांग्रेस के बाहरी समर्थन से बनीं एच.डी. देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल की सरकारें भी कार्यकाल पूरा करने में असमर्थ रहीं। 1998 में एक बार फिर आम चुनाव हुए। इन चुनावों में भाजपा ने क्षेत्रीय पार्टियों से गठबंधन और सीटों का तालेमल किया। ख़ुद पार्टी को 181 सीटों पर जीत हासिल हुई। अटल बिहारी वाजपेयी एक बार फिर प्रधानमंत्री बने, लेकिन गठबंधन की एक प्रमुख सहयोगी जयललिता की एआईएडीएमके के समर्थन वापस लेने से वाजपेयी सरकार गिर गई। 1999 में एक बार फिर आम चुनाव हुए। इन चुनावों को भाजपा ने 23 सहयोगी पार्टियों के साथ साझा घोषणा-पत्र पर लड़ा और गठबंधन को "राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन" (एन.डी.ए.) का नाम दिया। एनडीए को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी फिर प्रधानमंत्री बनाये गये। वे सही मायनों में पहले ग़ैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे।
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