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Thursday, 18 June 2015

बिहार की राजनीति का रावण कौन?

बिहार में राम कौन और रावण कौन ? इसको जानने के लिए पहले विभीषण के किरदार को समझना जरूरी है. विभीषण लंका के राजा रावण का सबसे छोटा भाई था. सीता माता को लेकर जब वानरों की सेना के साथ भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई की तो विभीषण ने रावण का साथ न देकर राम का साथ दिया था. अंत में सबके सब मारे गए और सिर्फ विभीषण ही जिंदा बचे थे.

अब बिहार की राजनीति में नीतीश मांझी को विभीषण बताकर क्या कहना चाहते हैं ये तो वहीं जाने लेकिन कथा कहानियों में सत्य यही है कि रावण का साथ छोड़कर विभीषण राम के खेमे में आए थे. और बिहार का सत्य ये है कि कल तक नीतीश के भरोसेमंद रहे मांझी अब नीतीश का साथ छोड़कर बीजेपी के साथ खड़े हैं. नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव में हार के बाद इस्तीफा देकर पिछले साल मांझी को सीएम बनाया था. उस वक्त पार्टी में किसी ने कल्पना नहीं की थी कि नीतीश मांझी को अपना उत्तराधिकारी बनाएंगे. लेकिन ऐसा हुआ. लेकिन 10 महीने बाद ही इस साल फरवरी में मांझी से मोहभंग हो गया. अब उन्हीं मांझी को विभीषण बताकर निशाना साध रहे हैं.

नीतीश ने मांझी को विभीषण कहा तो बीजेपी के तमाम नेता राशन पानी के साथ नीतीश पर चढ़ गए. ये बताने के लिए कि मांझी विभीषण हैं तो नीतीश बिहार की राजनीति के रावण. सुशील कुमार मोदी से लेकर केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव तक सबने नीतीश को बारी बारी से रावण बताया. और बीजेपी खेमे को राम. मांझी खुद भी चुप नहीं हैं. मुजफ्फरपुर गए तो पत्रकारों से कह दिया कि वो विभीषण हैं और नीतीश की लंका को चुनाव में जलाकर दिखाएंगे. ऐसा नहीं कि बिहार के इस ‘राजनीतिक रामायण’ में विरोधियों ने लालू को अलग रखा है. जीतन राम मांझी की पार्टी लालू को कुंभकर्ण (रावण का मंझला भाई) बता रही है.

रावण बताने की ये लड़ाई पुरानी है. पिछले साल लोकसभा चुनाव के बाद जब विधानसभा के उपचुनाव में लालू-नीतीश की जोड़ी को जीत मिली थी तब नीतीश ने बीजेपी की तुलना रावण से की थी. नीतीश ने तब केंद्र सरकार पर हमला बोलते हुए कहा था कि जब रावण का घमंड नहीं रहा तो फिर बीजेपी क्या चीज है ?  तब बीजेपी हारी हुई थी और उनके पास हमले के जवाब का मौका नहीं था. अब बीजेपी को मौका मिला है तो नीतीश के बयान के जरिए ही पार्टी उन्हें रावण बताने में जुटी है.

असल में इस राजनीतिक रामायण की लड़ाई के पीछे भी वोट बैंक का ही गणित है. मांझी बिहार की राजनीति के केंद्र में इसलिए हैं क्योंकि नीतीश कुमार मांझी को राजनीति से आउट बताने में जुटे हैं और बीजेपी मांझी के सहारे महादलित वोट बैंक पर पकड़ और मजबूत करना चाहती है. बिहार में करीब 16 फीसदी महादलित वोट हैं. जब मांझी मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने महादलित समुदाय में अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी. बीजेपी को उम्मीद है कि मांझी के सहारे वो नीतीश के भरोसेमंद महादलित वोट बैंक में सेंध लगाकर उन्हें नुकसान पहुंचा सकते हैं. बीजेपी इसीलिए मांझी को भरपूर भाव दे रही है. लेकिन नीतीश मांझी को बिहार में आज कोई फैक्टर नहीं बताकर उनका कद कम करना चाहते हैं.

लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या वाकई में बीजेपी के लिए मांझी विभीषण साबित हो पाएंगे ? मांझी बिहार में आज जाति विशेष के प्रतीक भर बनकर रह गए हैं. विवादित बयानों की वजह से भी मांझी की छवि विवादित बन चुकी है. आज की राजनीतिक परिस्थिति में इस बात को लेकर शक है कि वो किसी का भविष्य बना सकते हैं. लेकिन बिगाड़ने की स्थिति में कमोबेश जरूर हैं. नीतीश से बागी होकर जो विधायक मांझी के साथ खड़े थे उनमें से ज्यादा बीजेपी के साथ जाने को तैयार खड़े हैं. मुट्टी भर लोग मांझी के साथ बचे हैं. ये वो लोग हैं जो अपने वोट बैंक और स्थानीय कारणों से बीजेपी के टिकट पर नहीं लड़ना चाहते. लेकिन जिनकी राजनितिक मजबूरी नहीं हैं वो सीधे सीधे बीजेपी के टिकट पर लड़ने को तैयार हैं. जो राजनीति परिस्थिति बन रही है उसमें मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा को बीजेपी अधिकतम 10-12 सीटें लड़ने को दे सकती है.
 बीजेपी की कोशिश है कि मांझी खुद चुनाव न लड़ें और एनडीए उम्मीदवारों का प्रचार करें. ऐसा उसी परिस्थिति में संभव है जब मांझी के परिवार से किसी को चुनाव का टिकट मिलेगा. अब देखना पड़ेगा कि नीतीश के लिए विभीषण बन चुके मांझी बीजेपी खेमे के लिए विभीषण साबित हो पाते हैं या नहीं.

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