भाजपा ने अभी तक तो अपनी इन दो कद्दावर महिला नेत्रियों का जमकर बचाव किया है। शायद उसका आकलन यह है कि जल्द ही यह स्कैंडल भुला दिया जाएगा और दूसरी खबरें उस पर हावी हो जाएंगी। अवाम की याददाश्त कमजोर होती है और मीडिया की याददाश्त तो अवाम से भी कमजोर होती है। ऐसे कई तरीके हैं, जिनकी मदद से देश में फीलगुड का माहौल पैदा कर इस कांड को भुलाया जा सकता है, जैसे कि बीमा और पेंशन संबंधी सामाजिक सुरक्षा योजनाएं, फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफा करके किसानों की आमदनी बढ़ाना, बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं में सार्वजनिक निवेश के माध्यम से रोजगार के अवसर निर्मित करना या छोटे उद्यमियों को आसान कर्ज की सुविधा मुहैया कराना वगैरह-वगैरह। हो सकता है यह एक नेक सोच हो, लेकिन इसमें एक गड़बड़ यह है कि घोटालों को भले ही कुछ देर के लिए भुला दिया जाए, लेकिन वे कभी खत्म नहीं होते हैं। यूपीए सरकार से अच्छी तरह इस बात को भला कौन जान सकता है कि घोटाले चुटकी बजाते ही कभी भी फिर उठ खड़े होते हैं।
यही कारण है कि बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं के घोटाले को भले ही फिलवक्त भुला दिया गया हो, लेकिन अब ललितगेट कांड के बाद पार्टी के भीतर सुषमा स्वराज के विरोधियों द्वारा उन्हें फिर से उठाया जाएगा, क्योंकि सुषमा को रेड्डी बंधुओं की 'गॉडमदर" कहा जाता था। जब सुषमा दिल्ली की मुख्यमंत्री हुआ करती थीं, तब बताया जाता है कि उन्होंने दाउद इब्राहीम के सहयोगी माने जाने वाले रोमेश शर्मा की मदद की थी। लेकिन शर्मा के मामले की जांच कर रहे आयकर अधिकारी का रातोंरात तबादला करवा दिया गया था। सूचनाओं के इस डिजिटल युग में कोई घटना पूरी तरह से मरती नहीं है, और कोई नहीं जानता अतीत की किस घटना का भूत कब फिर से जीवित होकर हमें सताने लगेगा।
कम ही लोगों को इस बात में भरोसा है कि ललित मोदी की मदद के लिए ब्रिटिश सरकार को फोन लगाने से पहले स्वराज ने प्रधानमंत्री से राय-मशविरा किया था। ललित मोदी, जिनके खिलाफ 16 मामले दर्ज हैं, से सुषमा की दोस्ती 15 साल पुरानी है। बताया जाता है कि जब अटल सरकार के समय सुषमा केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री थीं, तब से ही ललित मोदी से उनकी मित्रता रही है और मोदी उनकी मदद से एक प्रसारण एजेंसी चला रहे थे। इसके बावजूद अगर सुषमा ने ब्रिटिश सरकार से बात करके अपने पुराने दोस्त की मदद की तो इसमें अप्रत्याशित कुछ नहीं है। वास्तव में, नेताओं, नौकरशाहों, कारोबारियों, मीडिया के प्रभावशाली लोगों के बीच आपसी मदद के लेनदेन की ऐसी घटनाएं नई दिल्ली में आमतौर पर होती ही रहती हैं। और 'हितों के टकराव" की घटनाएं तो इतनी आम हैं कि कोई उन पर टिप्पणी तक नहीं करता। वैसे भी, सत्ताधीशों के लिए केवल अपना लाभ सर्वोपरि होता है, जनहित से उन्हें कोई लेनादेना नहीं होता।